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समन्वय, शान्ति और समत्वयोग का आधार अनेकान्तवाद सर्वज्ञ ही एक पदार्थ को पूर्ण रूप से जान सकता है। सामान्य व्यक्ति एक भी पदार्थ को पूरा नहीं जान सकता । ऐसी अवस्था में अमुक व्यक्ति ने अमुक बात मिथ्या कही, ऐसा कहने का हमें कोई अधिकार नहीं । यह अधिकार तो सर्वज्ञ को ही है। व्यक्ति का पदार्थ विषयक ज्ञान अधूरा होता है, अतः यदि कोई अपने अधूरे ज्ञान को पूर्ण ज्ञान के रूप में दूसरों के सामने रखने का साहस करता हो और वही सच्चा और दूसरे सब झूठे ऐसा कहता हो तो हम उसे इतना अवश्य कह सकते है कि "तुम अपनी मर्यादा का उल्लंघन कर रहे हो ।" इससे अधिक हम उसे कुछ नहीं कह सकते । जैन-दर्शन प्रतिपादित “स्याद्वाद' सिद्धान्त से ऐसा फलित होता है।
अनेकान्तवाद की इस विशिष्टता को हृदयंगम करके ही जैन दार्शनिकों ने उसे अपने विचार का मूलाधार बनाया है। वस्तुतः वह समस्त .दार्शनिकों का जीवन है , प्राण है। जैनाचार्यों ने अपनी समन्वयात्मक उदार भावना का परिचय देते हुए कहा है-एकान्त वस्तुगत धर्म नहीं, किन्तु बुद्धिगत कल्पना है । जब बुद्धि शुद्ध होती है तो एकान्त का नाम-निशान नहीं रहता । दार्शनिकों की भी समस्त दृष्टियाँ अनेकान्त दृष्टि में उसी प्रकार विलीन हो जाती है जैसे विभिन्न दिशाओं से आनेवाली सरिताएँ सागर में एकाकार हो जाती है।'
प्रसिद्ध विद्वान उपाध्याय यशोविजयजी के शब्दों में कहा जा सकता है-'सच्चा अनेकान्तवादी किसी भी दर्शन से द्वेष नहीं कर सकता । वह एकनयात्मक दर्शनों को इस प्रकार वात्सल्य की दृष्टि से देखता है जैसे कोई पिता अपने पुत्रों को देखता है। अनेकान्तवादी न किसी को न्यून और न किसी को अधिक समझता है - उसका सबके प्रति समभाव होता है । वास्तव में सच्चा शास्त्रज्ञ कहलाने का अधिकारी वही है जो अनेकान्तवाद का अवलम्बन लेकर समस्त दर्शनों पर समभाव रखता हो । मध्यस्थभाव रहने पर शास्त्र के एक पद का ज्ञान भी सफल है, अन्यथा कोटि-कोटि शास्त्रों को पढ़ लेने पर भी कोई लाभ नहीं होता ।
हरिभद्रसूरि ने लिखा है-आग्रहशील व्यक्ति युक्तियों को उसी जगह खींचतान करके ले जाना चाहता है जहाँ पहले से उसकी बुद्धि जमी हुई है, मगर पक्षपात से रहित मध्यस्थ पुरुष अपनी बुद्धि का निवेश वहीं करता है जहाँ