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द्वितीय प्रकरण स्याद्वाद, सप्त-भंगी, नयवाद, प्रमाण
स्याद्वाद प्रत्येक वस्तु परस्पर विरोधी गुणधर्मों से युक्त है तथा ऐसे तत्त्वों को अनेकान्त दृष्टिकोण से देखने पर ही उनका वास्तविक ज्ञान होता है।
इस ज्ञान को हम अच्छी तरह से प्राप्त कर सकें तथा उसका स्पष्ट रूप से दर्शन हो सके इसके लिये कोई गणित या पद्धति हमारे पास हो तो वह काफी उपयोगी सिद्ध हो सकती है । इसके जानने के लिए जैन दार्शनिकों ने स्याद्वाद नाम की पद्धति बताई है।
अनेकान्तदृष्टि से यह सिद्ध हो चुका है कि प्रत्येक वस्तु में परस्पर विरोधी अनन्त गुण होते हैं । इस बात को युक्तिपूर्ण व तर्क के साथ प्रस्तुत करने की पद्धति स्याद्वाद बताता है ।
स्याद्वाद, अनेकान्तवाद अथवा अपेक्षावाद (सापेक्षवाद) के नाम से भी जाना जाता है। सामान्य दृष्टि से स्याद्वाद और अनेकान्तवाद एक जैसे ही लगते हैं परन्तु दोनों को यदि स्पष्ट रूप से समझा जाय तो मालुम होगा कि अनेकान्तवाद के तत्त्वज्ञान को प्रस्तुत करने कि पद्धति 'स्याद्वाद' है।
स्याद्वाद भाषा की निर्दोष पद्धति है। स्याद्वाद एक भाषा प्रयोग है, जिसमें अपना दृष्टिकोण बताते हुए भी अन्य दृष्टिकोणों के अस्तित्व की स्वीकृति रहती है। जब पदार्थ अनन्त धर्म वाला है, तब एक धर्म का कथन करने वाली भाषा, एकांश में तो सत्य हो सकती है, साँश में नहीं \ अपने दृष्टिकोण के सिवाय अन्य दृष्टिकोणों की स्वीकृति 'स्यात्' शब्द देता है । 'स्यात्' शब्द कहता है
___ "वस्तु का वही रूप नहीं है, जो आप कह रहे हैं । वस्तु के अनन्त रूप है। वस्तु के जिस धर्म का आप कथन कर रहे हैं , उसके अतिरिक्त भी वस्तु में बहुत-से धर्म है, उनके अस्तित्त्व की सूचना ही मैं आपको कर