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________________ १७ स्याद्वाद, सप्त-भंगी, नयवाद, प्रमाण रहा हूँ।" . 'स्यात्' शब्द का अर्थ-न सम्भावना है, और न शायद ही है। परन्तु उसका अर्थ है - एक निश्चित दृष्टिकोण । स्याद्वाद के मर्म को जानने वाला कभी भी वस्तु-स्वरूप के प्रति अन्याय नहीं करता । स्याद्वाद, भाषा में नम्रता और सहिष्णुता को लेकर ही वस्तु स्वरूप का कथन करता है । स्याद्वाद रहस्यविद आचार्यों ने स्याद्वाद की परिभाषा इन शब्दों में की है - "अपने अथवा दूसरे के विचारों, मन्तव्यों, वचनों तथा कार्य में तन्मूलक विभिन्न अपेक्षा या दृष्टिकोण का ध्यान रखना ही 'स्याद्वाद' है । इस परिभाषा को और अधिक स्पष्ट करते हुए आचार्य अमृतचन्द्र कहते हैं "जिस प्रकार ग्वालिन मंथन करने की रस्सी के दो छोरों में से कभी एक को और कभी दूसरे को खींचती है, उसी प्रकार अनेकान्त-पद्धति भी कभी वस्तु के एक धर्म को मुख्यता देती है, और कभी दूसरे धर्म को ।' स्याद्वाद को दार्शनिक परिभाषा इस प्रकार की जा सकती है - 'प्रत्यक्षादिप्रमाणाविरुद्धानेकात्मकवस्तु-प्रतिपादकः श्रुतस्कन्धात्मकः स्याद्वादः । "स्याद्" शब्द का अर्थ समझने में कई लोग धोखा खाजाते हैं । कोई इसका अर्थ 'संशय' करता है, तो दूसरा इसका अर्थ 'संभवितता' करता है तथा किसी ने 'कथचिंत्' अर्थ में प्रयुक्त किया है । ये सभी अर्थ गलत है। जैन दर्शन का विरोध करने वाले इस प्रकार का गलत अर्थ निकालकर इस महान तत्त्वज्ञान की यथार्थता के विषय में संशय खडा करने का प्रयत्न करते हैं । कम समझ के कारण या तलस्पर्शी ज्ञान के अभाव में अथवा आलस्य और अनिच्छा के कारण इस प्रकार का गलत अर्थ निकाल कर बैठ जाते हैं । जैन तत्त्ववेताओं ने जिस अर्थ में इस शब्द का प्रयोग किया है वो समझने के लिये अंदर तक जाने की अनिच्छा रखने वाले इस से उलझन या तकलीफ अनुभव करते हैं। जो समझना नही चाहते वे अपने निकाले हुए अर्थ पर अडिग रहते हैं । फलस्वरूप नुकसान उन्हें ही होता है क्योंकि वे लोग आत्मविकास के एक अनोखे और सबल साधन से वंचित रह जाते हैं। गुजरात के प्रसिद्ध विद्वान
SR No.002458
Book TitleSamanvay Shanti Aur Samatvayog Ka Adhar Anekantwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherParshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan
Publication Year1999
Total Pages124
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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