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वर्धमान महावीर का अनेकान्तवाद और गौतम बुद्ध...
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चाहिए । अत्यन्तभेद माननेपर इस प्रकार अकृतागम दोषकी आपत्ति है । और यदि अत्यन्त अभिन्न माना जाय तब शरीर का दाह हो जानेपर आत्मा भी नष्ट होगा जिससे परलोक संभव नहीं रहेगा। इस प्रकार कृतप्रणाश दोष की आपत्ति होगी । अतएव इन्हीं दोनों दोषोंको देखकर भगवान् बुद्धने कह दिया कि भेद पक्ष और अभेद पक्ष ये दोनों ठीक नहीं है। जब कि भ० महावीरने दोनों विरोधी वादोंका समन्वय किया और भेद और अभेद दोनों पक्षोंका स्वीकार किया । एकान्त भेद और अभेद माननेपर जो दोष होते हैं वे उभयवाद माननेपर नहीं होते । जीव और शरीरका भेद इसलिये मानना चाहिए कि शरीर का नाश हो जानेपर भी आत्मा दूसरे जन्ममें मौजूद रहती है या सिद्धावस्थामें अशरीरी आत्मा भी होती है । अभेद इसलिये मानना चाहिए कि संसारावस्थामें शरीरी और आत्माका क्षीरनीरवत् या अग्निलोहपिण्डवत् तादात्म्य होता है इसीलिये कायसे किसी वस्तुका स्पर्श होनेपर आत्मामें संवेदन होता है और कायिक कर्मका विपाक आत्मामें होता है ।
भगवतीसूत्रमें जीवके परिणाम दश गिनाए हैं- भग० १४.४ ५१४ । जीव और कायाका यदि अभेद न माना जाय तो इन परिणामों को जीवके परिणामरूपसे नहीं गिनाया जा सकता । इसी प्रकार भगवतीमें ( १२.५.४५१.) जो जीवके परिणामरूपसे वर्ग गन्ध स्पर्शका निर्देश है वह भी जीव और शरीर के अभेद को मान कर ही घटाया जा सकता है ।
अन्यत्रं जीवके कृष्णवर्णपर्यायका भी निर्देश है - भग० २५.४ | ये सभी निर्देश जीव शरीरके अभेदकी मान्यतापर निर्भर हैं ।
चार्वाक शरीरको ही आत्मा मानता था और औपनिषद ऋषिगण आत्मा को शरीर से अत्यन्त भिन्न मानते थे । भ. बुद्धको इन दोनों मतोंमें दोष तो नजर आया किन्तु वे विधिरूपसे समन्वय न कर सके । जब कि भगवान् महावीर ने इन दोनों मतों का समन्वय उपर्युक्त प्रकारसे भेद और अभेद दोनों पक्षोंका स्वीकार करके किया । १३.
जीवकी नित्यानित्यता
मृत्युके बाद तथागत होते हैं कि नहीं इस प्रश्नको भ० बुद्धने अव्याकृत कोटिमें रखा है क्योंकि ऐसा प्रश्न और उसका उत्तर सार्थक नहीं, आदि