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समन्वय, शान्ति और समत्वयोग का आधार अनेकान्तवाद
ब्रह्मचर्य के लिये नहीं, निर्वेद, निरोध, अभिज्ञा, संबोध और निर्वाणके लिये भी
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आत्माके विषयमें चिन्तन करना यह भ० बुद्धके मतसे अयोग्य है । जिन प्रश्नोंको भ. बुद्धने 'अयोनिसो मनसिकार' - विचारका अयोग्य ढंग - कहा है वे ये है- " मैं भूतकालमें था कि नहीं था । मैं भूतकालमें क्या था ? मैं भूतकालमें कैसा था ? मैं भूतकालमें क्या होकर फिर क्या हुआ ? मैं भविष्यत् कालमें होऊंगा कि नहीं ? मैं भविष्यत् कालमें क्या होऊंगा ? मैं भविष्यत् कालमें कैसे होऊंगा ? मैं भविष्यत् कालमें क्या होकर क्या होंऊंगा ? मैं हूँ कि नहीं ? मैं क्या हूँ ? मैं कैसे हूँ ? यह सत्त्व कहांसे आया ? यह कहां जायगा ?
भगवान् बुद्धका कहना है कि 'अयोनिसो मनसिकार' से नये आस्त्रव उत्पन्न होते हैं और उत्पन्न आस्त्रव वृद्धिगत होते हैं । अतएव इन प्रश्नोंके विचारमें लगना साधकके लिये अनुचित है । १५
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इन प्रश्नोंके विचारका फल बताते हुए भ० बुद्धने कहा है 'अयोनिसो मनसिकार' के कारण इन छः दृष्टिओं में से कोई एक दृष्टि उत्पन्न होती है उसमें फँसकर अज्ञानी पृथग्जन जरा - मरणादिसे मुक्त नहीं होता
(१) मेरी आत्मा है ।
(२) मेरी आत्मा नहीं है ।
(३) मैं आत्माको आत्मा समझता हूँ
(४) मैं अनात्माको आत्मा समझता हूँ ।
(५) यह जो मेरी आत्मा है वह पुण्य और पापकर्म के विपाककी भोक्ता है।
(६) यह मेरी आत्मा नित्य है, ध्रुव है, शाश्वत है, अविपरिणामधर्मा है, जैसी है वैसी सदैव रहेगी । १६
अतएव उनका उपदेश है कि इन प्रश्नोंको छोडकर दुःख, दुःखसमुदाय, दुःखनिरोध और दुःखनिरोधका मार्ग इन चार आर्यसत्योंके विषयमें ही मनको लगाना चाहिए । उसीसे आस्त्रवनिरोध होकर निर्वाणलाभ हो सकता है ।
भ० बुद्ध के इन उपदेशों के विपरीत ही भगवान् महावीर का उपदेश