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८४ समन्वय, शान्ति और समत्वयोग का आधार अनेकान्तवाद हैं और उपलब्ध साहित्य के अनुसार अनेकान्त-विरोधी तर्क के सर्वप्रथम प्रस्तोता है । आचार्य धर्मकीर्ति के दो, तर्क सामने आते हैं ।
१. एक तो वस्तु को स्व-पररूप मानने से बड़ी कठिनाई पैदा होना। २. दूसरे सबको स्व-स्वरूप मानने से बुद्धि और शब्द भिन्न नहीं हो
सकेंगे।
आचार्य धर्मकीर्ति ने जो प्रथम विरोधी तर्क उपस्थित किया है, वह वस्तु को स्वपररूप मानने की मान्यता को लेकर है। लेकिन साधारण तौर पर देखा जाय तो यह अनेकान्तवाद की मान्यता नहीं है। अनेकान्तवाद वस्तु में स्वरूप की दृष्टी से सत्त्व और पररूप की दृष्टि से असत्त्व मानता है। घट घटत्व की अपेक्षा सत् है, पटत्व की अपेक्षा असत् है। इसका मतलब यह हुआ कि घट पट नहीं है। तभी तो पटत्वावच्छेदेन उसमें नास्तित्व आता है। यदि घट को रूप भी मान लिया तो पट्टत्वावच्छेदेन उसमें नास्तित्व धर्म नहीं आयेगा । अनेकान्तदर्शन तो वस्तु में अस्तित्व
और नास्तित्व दोनों धर्मों को मानता हैं। उसके मत में सत्त्व असत्त्व को छोडकर नहीं रहता है। दोनों धर्म वस्तु में अवच्छेदक भेद से रहते हैं।'
इस विवेचन के परिप्रेक्ष्य में देखा जाय तो अनेकान्त दर्शन वस्तु को पररूप नहीं मानता है। अतः आचार्य धर्मकीर्ति का यह दूषण उद्भावित करना अनुचित एवं निर्मूल है।
दूसरा तर्क आचार्यश्री ने यह दिया है कि सबके स्व स्वरूप मान लेने से एक शब्द से ही अर्थों का बोध हो जायेगा । साधारणतः अनेकान्त दर्शन में सबको स्व स्वरूप नहीं माना गया है। यदि सबको स्व स्वरूप मान लिया जाय तो पर या अन्य के अभाव से वस्तु भावाभावात्मक नहीं हो पायगी और वस्तु की प्रतिनियत स्वभावता के लिये आवश्यक अन्य व्यावृत्ति रूप स्वभाव वस्तु का नहीं बन पायगा। यदि घट पटदि रूप हो जाय तो अन्य के अभाव हो जाने से अन्य व्यावृत्ति न हो पायेगी । फलस्वरूप वस्तु की प्रतिनियत स्वभावता नहीं रहेगी। अतः प्रत्यक्षबोध आवेगा । अनेकान्त का मूल सिद्धान्त है वस्तु को भावाभावात्मक आदि मानना । इस सिद्धान्त को भी क्षति पहुंचेगी। अतः सबको स्व स्वरूप नहीं माना जाता ।।
महर्षि बादरायण ने अपने ब्रह्मसूत्र में सामान्य रूप से अनेकान्त तत्त्व