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उपसंहार
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सकते है; क्योंकि जीवन व्यावहारिक हो या आध्यात्मिक - पर उसकी शुद्धि के स्वरूप में भिन्नता हो ही नहीं सकती और हम यह मानते हैं कि जीवन की शुद्धि अनेकान्त दृष्टि और अहिंसा के सिवाय अन्य प्रकार से हो ही नहीं सकती। इसलिये हमें जीवन व्यावहारिक या आध्यात्मिक कैसा ही पसंद क्यों न हो पर यदि उसे उन्नत बनाना इष्ट है तो उस जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में अनेकान्त दृष्टि को तथा अहिंसा तत्त्व को प्रज्ञापूर्वक लागू करना ही चाहिये ।
आज विश्व में, देश में, समाज में व साहित्य में ऐसे चिन्तन की आवश्यकता नहीं है, जो हमें भिन्न-भिन्न करके बिखेर दे । आज तो सर्वत्र ऐसे चिन्तन एवं विचारों की आवश्यकता है कि जो अलग व्यक्तिओं को जोड दे, उनमें एकता की धारा प्रवाहित कर दे । और उसमें समरसता, समन्वय एवं सामंजस्य स्थापित कर दे । इसी प्रकार के चिन्तन एवं विचारों से विश्व, देश, समाज एवं हम जीवित रह सकते हैं। जीवन में और उसके विकास में सबको परस्पर सहयोग की आवश्यकता है । यह सब कार्य अनेकान्त के दृष्टिकोण से ही संभव है । विभिन्नता में एकता, समरसता, सहिष्णुता, सामंजस्य एवं समन्वय स्थापित कर सकता है । आज के युग में तो इसकी बहुत आवश्यकता है ।
आजकल के जगत की सबसे बड़ी आवश्यकता यह है कि अपनेअपने परम्परागत वैशिष्टय को रखते हुए भी विभिन्न मनुष्य जातियाँ एक दूसरे के समीप आवें और उनमें एक व्यापक मानवता की दृष्टि का विकास हो । अनेकान्त सिद्धान्तमूलक समन्वय की दृष्टि से ही यह हो सकता है ।
आज विश्व में आन्तर्राष्ट्रिय क्षितिज में वैचारिक तनाव बहुत अधिक है। आंतर्राष्ट्रीय क्षेत्र में प्रधानतया दो विचार धाराएँ हैं - एक साम्यवाद और दूसरा पूंजीवाद । वास्तव में साम्यवाद की विरोधी धारा पूँजीवाद है। पूंजीवादी देशों ने प्रजातन्त्र को अपना रखा है। बहुत समय से इन दोनों प्रकार के राष्ट्रों में काफी तनाव है । कई बार संघर्ष के अवसर आ चुके हैं। लेकिन दोनों के पास भयंकरतम संहार करने वाले अस्त्र एवं शस्त्र है। इसलिये दोनों ही संघर्ष से कतराते हैं और युद्ध से दूर रहकर सामंजस्य एवं समन्वय स्थापित करने का प्रयत्न करते हैं । भयंकरतम संहारक अस्त्र शस्त्र वाले युग में सहअस्तित्व, सहिष्णुता और वैचारिक उदारता की अनिवार्य आवश्यकता है । यही दोनों देश