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________________ उपसंहार कोई भी विशिष्ट दर्शन हो या धर्म-पन्थ, उसकी आधारभूत-उसके मूल प्रवर्तक पुरुषकी एक खास दृष्टि होती है; जैसे कि शंकराचार्य की अपने मत निरूपण में 'अद्वेत दृष्टि' और भगवान बुद्ध की अपने धर्म-पन्थ प्रवर्तन में 'मध्यम प्रतिपदा दृष्टि' खास दृष्टि है । जैनदर्शन भारतीय दर्शनों में एक विशिष्ट दर्शन है और साथ ही एक विशिष्ट धर्म-पन्थ भी है, इसलिये उसके प्रवर्तक और प्रचारक मुख्य पुरुषों की एक खास दृष्टि उनके मूल में होनी ही चाहिए और वह है भी! यही दृष्टि अनेकान्तवाद है। अनेकान्तवाद के अनुसार प्रत्येक वस्तु परस्पर विरोधी अनेक गुणधर्मात्मक विविधताओं से युक्त होती है। किसी एक दृष्टिकोण से देखने पर हम किसी वस्तु के विषय में अपना अभिप्राय नहीं दे सकते । किसी भी विषय का निर्णय लेने से पहले हमें उसे सभी दृष्टिकोणों से तलाश कर लेना चाहिये । . ___ महावीर के अनेकान्तवाद का यही अर्थ है कि कोई दृष्टि पूरी नहीं है, कोई दृष्टि विरोधी नहीं है, सब दृष्टियाँ सहयोगी है और सब दृष्टियाँ किसी बड़े सत्य में समाहित हो जाती है। अर्थात् एक ही वस्तु या विचार को एक तरफ से न देखकर उसे चारों और से देख लिया जाय, फिर किसी को ऐतराज भी न रहेगा। इस दृष्टिकोण को ही महावीर ने अनेकान्तवाद या स्याद्वाद कहा । आइन्स्टीन का सापेक्षवाद और भगवान बुद्ध का विभज्यवाद इसी भूमिका पर खड़ा है। अनेकान्तवाद इन दोनों का व्यापक या विकसित रूप है। इस भूमिका पर ही आगे चलकर सगुण और निर्गुण के वाद-विवाद को, ज्ञान और भक्ति के झगडे को सुलझाया । आचार में अहिंसा की और विचार में अनेकान्त की प्रतिष्ठा कर महावीर ने अपनी दृष्टि को व्यापकता प्रदान की। . ___अनेकान्त दृष्टि यदि आध्यात्मिक मार्ग में सफल हो सकती है और अहिंसा का सिद्धान्त यदि आध्यात्मिक कल्याण साधक हो सकता है तो यह भी मानना चाहिये कि ये दोनों तत्त्व व्यावहारिक जीवन का श्रेय अवश्य कर
SR No.002458
Book TitleSamanvay Shanti Aur Samatvayog Ka Adhar Anekantwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherParshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan
Publication Year1999
Total Pages124
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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