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अष्टम प्रकरण अनेकान्तवाद का आधुनिक दार्शनिकों पर प्रभाव
विभिन्न दर्शनकारों ने किसी समस्या को हल करने एवं कहीं पर आने वाली विसंगति को दूर करने के लिए अज्ञात रूप से अनेकान्त दृष्टि या उसके समानधर्मा उपाय अपनाया है ।
- महामुनि पतंजलि का व्याकरण महाभाष्य में जो कथन है, उसको लें। पतंजलि का समय ईसा से पहले दूसरी शताब्दी है । महामुनि के सम्मुख यह प्रश्न आया कि
किं पुनः नित्यः शब्दः आहोस्वित् कार्यः ?' शब्दनित्य है या अनित्य ? इसका उत्तर आगे वे देते हैं । "संग्रहे एतत्प्राधान्येन परीक्षितम् ॥"२
"नित्यो वा स्यात् कार्यो वा इति । तत्रोक्ताः दोषाः प्रयोजनान्यपि उक्तानि । तत्र त्वेषः निर्णयः यद्येव नित्यः अथापि कार्यः
उभयाथापि लक्षणे प्रवर्त्यमिति ।" महाभाष्यकार समाधान करते हैं - "संग्रह" नामक व्याडि आचार्य कृत ग्रंथ में प्रधान रूप से इसका विचार किया गया है। इस विषय की परीक्षा करके, दोष तथा प्रयोजन कहने के बाद वहाँ यह निर्णय बतलाया गया है कि शब्द नित्य है और अनित्य भी है। दोनों प्रकार से लक्षण की प्रवृत्ति करनी चाहिए।
- यहां पर शब्द की नित्यता एवं अनित्यता दोनों बतलाकर स्पष्ट रूप से महाभाष्यकार ने अनेकान्त दृष्टि को अपनाया है । .. आचार्य बलदेव उपाध्याय गीता के विषय में कहते हैं - .
"गीता का अध्यात्म पक्ष जितना युक्तियुक्त तथा समन्वयात्मक है, उसका व्यवहार पक्ष भी उतना ही मनोरम तथा आदरणीय है..... इन विद्वान भाष्यकारों की युक्तियां अपने दृष्टिकोण से नितान्त सारगर्भित हैं, इसे कोई भी आलोचक मानने से नहीं हिचक सकता, परंतु पूर्वक्त मतों में गीता के उपदेशों