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समन्वय, शान्ति और समत्वयोग का आधार अनेकान्तवाद
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है । किन्तु सत्य के दर्शन के लिए अनेक मार्गो की खोज करता है । स्याद्वाद का कथन है कि मनुष्य की शक्ति सीमित है, इसीलिए वह आपेक्षिक सत्य को ही जान सकता है । हमें पहले व्यावहारिक विरोधों का समन्वय करके आपेक्षिक सत्य को प्राप्त करना चाहिए और आपेक्षिक सत्य को जानने के बाद हम पूर्ण सत्य केवलज्ञान का साक्षात्कार करने के अधिकारी हो सकते हैं । यद्यपि स्याद्वाद को विरोधी समालोचकों के भरपूर आक्षेप सहन करने पड़े हैं परन्तु भगवान् महावीर अनन्तधर्म वाली वस्तु के संबंध में व्यवस्थित और पूर्ण निश्चयवादी थे । उन्होंने न केवल वस्तु का अनेकान्त स्वरूप ही बताया किन्तु उसके जानने-देखने के उपाय नय दृष्टियां और उसके प्रतिपादन का प्रकार - स्याद्वाद भी बताया ।
स्याद्वाद न तो संशयवाद है, न कदाचित्वाद है, न किंचित्वाद है और न संभववाद या अभीष्टवाद ही है । वह तो " अपेक्षा से प्रयुक्त होने वाला निश्चयवाद है ।" इसीलिए स्याद्वाद संपूर्ण जैनेतर दर्शनों का उनकी दृष्टिको यथास्थान रखकर समन्वय करने में समर्थ हो सका है ।
पादटीप
१. स्याद्वाद मंजरी श्लोक २८, पृ. १९५
उपाधिभेदोपहितं विरुद्धं नार्थेष्वसत्वं सदवाच्यते च इत्यप्रबुध्यैव विरोध भीताः...२८ ॥
२. प्रत्यक्षादिना प्रमाणेन अनन्तधर्मात्मकस्यैव सकलस्य प्रतीतेः....
घटः स्वद्रव्यक्षेत्रकालभावैः विद्यते, पर द्रव्यक्षेत्रकालभावैः च न विद्यते ।
३.
४.
५.
ब्रह्मसूत्र, २१२१३३
शांकरभाष्य, २/२/३३
भारतीय दर्शन पृ. १७३
अनेकान्त व्यवस्था की अन्तिम प्रशस्ति ।
- षड्दर्शन समुच्चय, पृ.३२९