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समन्वय, शान्ति और समत्वयोग का आधार अनेकान्तवाद दर्शन सत्य है तो दोनों को ही न्याय मिले इसका क्या उपाय है ? इसी चिन्तन प्रधान तपस्या ने भगवान को अनेकान्त दृष्टि सुझाई, उनका सत्य संशोधन का संकल्प सिद्ध हुआ। उन्होंने उस मिली हुई अनेकान्त दृष्टि की चाबी से वैयक्तिक
और सामाष्टिक जीवन की व्यावहारिक और पारमार्थिक समस्याओं के ताले खोल दिये और समाधान प्राप्त किया । तब उन्होंने जीवनोपयोगी विचार और आचार का निर्माण करते समय उस अनेकान्त-दृष्टि को निम्नलिखित मुख्य शर्तों पर प्रकाशित किया और उसके अनुसरण का अपने जीवन द्वारा उन्हीं शर्तो पर उपदेश दिया । वे शर्ते इस प्रकार है :
राग और द्वेषजन्य संस्कारों के वशीभूत न होना अर्थात् तेजस्वी मध्यस्थ भाव रखना । जब तक मध्यस्थ भाव का पूर्ण विकास न हो तब तक उस लक्ष्य की
ओर ध्यान रखकर केवल सत्य की जिज्ञासा रखना। कैसे भी विरोधी भासमान पक्ष से न घबराना और अपने पक्ष की तरह उस पक्ष पर भी आदरपूर्वक विचार करना तथा अपने पक्ष पर भी विरोधी पक्ष की तरह तीव्र समालोचक दृष्टि रखना।
अपने तथा दूसरों के अनुभवों में से जो-जो अंश ठीक जचे, चाहे वे विरोधी ही प्रतीतं क्यों न हों, उन सबका विवेक -प्रज्ञा से समन्वय करने की उदारता का अभ्यास करना और अनुभव बढने पर पूर्व के समन्वय में जहाँ गलती मालूम हो वहाँ मिथ्याभिमान छोड़ कर सुधार करना और इसी क्रम से आगे बढना ।
पादटीप: १. "अम् गत्यादिषु" भ्वादिगणं । २. रत्नाकरावतारिका पृ. ८९। ३. अष्टसहस्री, पृ.२८६ । आत्ममीमांसा, श्लोक १०३ । पंचास्तिकाय गाथा १५ ।
अमतृचन्द्रसूरि की टीका पृ. ३० । ४. समयसार १०/२४७. आत्मख्याति । ५. दर्शन और चिन्तन : पं. सुखलालजी ।