________________
अनेकान्त का अर्थ, उसका उद्भव तथा मर्यादा
१३
मुख्य है । जैसा वस्तु का स्वरूप है, वैसा ही तो हम अनेकान्त दृष्टि से देख सकते हैं । अनेकान्त को प्रयुक्त करने में हम इतने विवेकहीन न हो जायें कि वस्तु-स्वरूप के विरुद्ध ही कहने लग जायें । यह अनेकान्तवाद का दुरूपयोग है । अतः वस्तु - स्वरूप की स्थिति के अनुसार बहुत जागरुकता के साथ अनेकान्त को लागू किया जाय । महावीर का स्याद्वाद रूपी नयचक्र अत्यन्त पैनी धार वाला है । इसे अत्यन्त सावधानी से चलाना चाहिए। अन्यथा धारण करने वाले का ही मस्तक भंग हो सकता है |२०
अनेकान्त की खोज का उद्देश्य और उसके प्रकाशन की शर्ते
1
वस्तु का पूर्ण रूप में त्रिकालाबाधित - यथार्थ दर्शन होना कठिन है, किसी को वह हो भी जाय तथापि उसकी उसी रूप में शब्दों के द्वारा ठीकठीक कथन करना उस सत्यदृष्टा और सत्यवादी के लिए भी बडा कठिन है कोई उस कठिन काम को किसी अंश में करने वाले निकल भी आएं तो भी देश, काल, परिस्थिति, भाषा और शैली आदि के अनिवार्य भेद के कारण उन सबके कथन में कुछ न कुछ विरोध या भेद का दिखाई देना अनिवार्य है । यह तो हुई उन पूर्णदर्शी और सत्यवादी इने-गिने मनुष्यों की बात, जिन्हें हम सिर्फ कल्पना या अनुमान से समझ या मान सकते हैं ।
हमारा अनुभव तो साधारण मनुष्यों तक परिमित है और वह कहता है कि साधारण मनुष्यों में भी बहुत से यथार्थवादी होकर भी अपूर्णदर्शी होते हैं। ऐसी स्थिति में यथार्थवादिता होने पर भी अपूर्ण दर्शन के कारण और उसे प्रकाशित करने की अपूर्ण सामग्री के कारण सत्यप्रिय मनुष्यों की भी समझ में कभी-कभी भेद आ जाता है । और संस्कार भेद उनमें और भी पारस्परिक टक्कर पैदा कर देता है। इस तरह पूर्णदर्शी और अपूर्णदर्शी सभी सत्यवादियों के द्वारा अन्त में भेद और विरोध की सामग्री आप ही आप प्रस्तुत हो जाती है । या दूसरे लोग उनसे ऐसी सामग्री पैदा कर लेते हैं ।
ऐसी वस्तुस्थिति देखकर भगवान् महावीर ने सोचा कि ऐसा कौनसा रास्ता निकाला जाए जिससे वस्तु का पूर्ण या अपूर्ण सत्यदर्शन करनेवाले के साथ अन्याय न हो | अपूर्ण और अपने से विरोधी होकर भी यदि दूसरे का दर्शन सत्य है, इसी तरह अपूर्ण और दूसरे से विरोधी होकर भी यदि अपना