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समन्वय, शान्ति और समत्वयोग का आधार अनेकान्तवाद
में आनाकानी करते रहें या उसकी उपेक्षा करते रहें तो हम अंशवान् याने वस्तुतत्त्व को उसके सर्वांग - संपूर्ण रूप में नहीं समझ सकेंगे । साधारणतया समाज में जो झगडा या वादविवाद होता है, वह दुराग्रह, हठवादिता और एक पक्ष पर अड़े रहने के कारण होता है। यदि हम सत्य की जिज्ञासा से उसके समस्त पहलुओं को अच्छी तरह देख लें तो कहीं न कहीं सत्य का अंश निकल आएगा। एक ही वस्तु या विचार को एक तरफ से न देखकर उसे चारों ओर से देख लिया जाय, फिर किसी को एतराज भी न रहेगा । इस दृष्टिकोण को ही महावीर ने अनेकान्तवाद या स्याद्वाद कहा। आइन्स्टीन का सापेक्षवाद, और भगवान बुद्ध का विभज्यवाद इसी भूमिका पर खड़ा है ।" अनेकान्तवाद इन दोनों का व्यापक या विकसित रूप है। इस भूमिका पर ही आगे चलकर सगुण और निर्गुण के वाद-विवाद को, ज्ञान और भक्ति के झगड़े को सुलझाया गया। आचार में अहिंसा की और विचार में अनेकान्त की प्रतिष्ठा कर महावीर ने अपनी दृष्टि को व्यापकता प्रदान की । अनेकान्त की मर्यादा
अनेकान्त और स्याद्वाद का प्रयोग करते समय यह जागरूकता रखना. बहुत आवश्यक है कि हम जिन परस्पर विरोधी धर्मों की सत्ता वस्तु में प्रतिपादित करते हैं, उनकी सत्ता वस्तु में संभावित है भी या नहीं । अन्यथा कहीं हम ऐसा न कहने लगें कि कदाचित् जीव चेतन है, और कदाचित् अचेतन भी । अचेतनत्व की जीव में संभावना नहीं है । अतः यहाँ अनेकान्त बताते समय अस्ति और नास्ति के रूप में घटाना चाहिए। जैसे जीवन चेतन ही है, अचेतन नहीं ।
वस्तुतः चेतनत्व और अचेतनत्व तो परस्पर विरोधी धर्म हैं और नित्यत्व-अनित्यत्व परस्पर विरोधी नहीं, विरोधी-से प्रतीत होने वाले धर्म हैं । वे परस्पर विरोधी प्रतीत होते हैं परन्तु है नहीं। उनकी सत्ता द्रव्य में एक साथ पाई जाती है । अनेकान्त परस्पर विरोधी से प्रतीत होने वाले धर्मो का प्रकाशन करता है ।
हम ऊपर के प्रकरण में बता चुके हैं कि वस्तुस्थिति को देखकर अनेकान्त का उद्भव हुआ है । वस्तु का जैसा रूप - स्वरूप है उसको पूर्ण व यथार्थ रूप से देखने के लिए अनेकान्तवाद आया है। अर्थात् वस्तु का स्वरूप