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षष्ठ प्रकरण
अनेकान्तवाद और अन्य दार्शनिक प्रणालियां
१. वैदिक दर्शन और स्याद्वाद
अन्य दर्शनों में स्याद्वाद का क्या स्थान है ? - यह विषय भी अपना एक मौलिक स्थान रखता है । वैदिक - दर्शन के अध्ययन से प्रतीत होता है कि वैदिक ऋषि स्याद्वादिक प्रक्रिया से परिचित थे । अन्यथा वे नासदीय सूक्त में सत् और असत् दोनों का विरोध न करते ।' एक जगह कहा गया है : वह नहीं हिलता है, और हिलता भी है । अन्यत्र एक ऋषि कहता है : सत् एक है किन्तु विप्र उसे अनेक रूप से वर्णन करते हैं ।
दूसरी जगह कहा है : "सृष्टि के आरम्भ में सत् ही था, असत् से सत् की उत्पत्ति कैसे हो गई ? "४ गीता में एक जगह कहा गया है : "न स सत्तन्नासदुच्यते" अर्थात् वह न सत् है और न असत् । इन उल्लेखों से इतना स्पष्ट है कि वैदिक ऋषि सत् और असत् दोनों से परिचित थे कहीं एक का समर्थन है कहीं दोनों की विधि है और कहीं दोनों का निषेध है । यथार्थ में देखा जाए तो प्रतीत होगा कि यही तीनों विकल्प सत् -असत् अवक्तव्य नय के समान हैं। गुण- गुणी आदि का सर्वथा भेद स्याद्वाद से विरुद्ध पड़ता है। दोनों दर्शन पर्यायवादी होने के कारण कुछ समानता रखते हैं । पृथ्वी आदि तत्वों को नित्यानित्य मानकर, स्याद्वाद के कुछ निकट प्रतीत होते हैं । इनका प्रमाणविषयक चिन्तन अपूर्ण है । अकलंक आदि ने इसके चिन्तन से प्रभावित होकर प्रत्यक्ष के मुख्य और सांख्य - व्यवहारिक दो भेद किये हैं ।
(अ) सांख्ययोग और स्याद्वाद
सांख्य अत्यन्त प्राचीन होने के कारण विशेष विचारणीय है । ये दो तत्त्व को मानते हैं: १. पुरुष और २. प्रकृति । पुरुष पुष्कर- पलाश के समान निर्लेप है।" वह भोक्ता है। पुरुष जैन दर्शन के समान अनेक हैं। वह निरपेक्ष द्रष्टा है। बुद्धि से अध्यवसित अर्थ में पुरुष चेतना पैदा करता है। इनका लक्ष्य कैवल्य है । प्रकृति तत्त्व जैन पुद्गन तत्त्व से समानता रखता है किन्तु यह एक