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अनेकान्तवाद और अन्य दार्शनिक प्रणालियां
७५ है, जड़ है,और प्रसवधर्मी है । सत्व, रज, तमस् की समता प्रकृति है । इनके अन्दर क्षोभ होने से सृष्टि का आरम्भ होता है। और प्रकृति से महान्, महान् से अहंकार, उससे षोडश गुण, पांच ज्ञानेन्द्रियां, पांच कर्मेन्द्रिय पांच भूत और उनसे पांच तन्मात्रएँ और मन की उत्पत्ति या विकास होता है।६।।
कर्तृत्व-धर्म इसमें पाया जाता है। यह विकार को भी स्थान देती है। पुरुष न प्रकृति है न विकृति । योग-सिद्धान्त भी प्रायः इसी प्रक्रिया अनेकान्त या स्याद्वाद का मूल है। अनेकान्त स्यावाद और सप्तभंगी के सिद्धांत इनकी ही सुव्यवस्था करते हैं। (ब) न्याय, वैशेषिक और स्याद्वाद
न्याय और वैशेषिक चिन्तन और प्रक्रिया में लगभग समान होने के कारण एक गिने जाते हैं । सप्त पदार्थ या सोलह पदार्थ लगभग समान है। द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष, समवाय, अभाव आदि का वर्णन नित्यानित्यत्व दोनों को लिए हुए हैं। किन्तु ये दर्शन सर्वथा भेद के प्रतिपादक होने के कारण एकान्तवादी कहलाते हैं । इनका चिन्तन नैगम को मानता है । पतंजलि ने ईश्वर को तथा योग (अष्टांग) को इसके साथ मिलाकर नवीन दर्शन का निर्माण किया। जैन योग और पतंजलि योग बहुत कुछ समानता रखते हैं । इन दोनों दर्शनों ने प्रकृति को एक और अनेक मानकर स्याद्वाद की महत्ता का परिचय दिया है। प्रतीत होता है कि ये दर्शन इसके अभाव से सर्वथा वंचित नहीं रहे
(स) पूर्वमीमांसा दर्शन और स्याद्वाद
___ मीमांसा दर्शन की उत्पत्ति वैदिक क्रियाकाण्ड को प्रामाणिक सिद्ध करने के लिए हुई थी। भावना, विधि, नियोग आदि के द्वारा वैदिक सूक्तों के अर्थों का निर्णय किया गया है। जहाँ तक दार्शनिक तत्त्वों का संबंध हैं, ये जैन दर्शन के समान ही उत्पाद, व्यय, ध्रोव्यात्मक तत्त्व को ही मानते थे। इनके दो भेद हैं । १. भाट मत और, २. प्रभाकर मत । दोनों में बहुत थोडा अन्तर है । उत्पादादि त्रय को तत्त्व का स्वरूप मानने से इनकी आस्था स्याद्वाद में प्रतीत होती है। तत्त्व-संग्रहकार इनके स्याद्वाद का पोषक मानता था। इसलिए निर्ग्रन्थों के साथ-साथ ही इनका भी खंडन किया गया है। ये वेदों को अपने