SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 92
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ७६ समन्वय, शान्ति और समत्वयोग का आधार अनेकान्तवाद चिन्तन का आधार मानते हैं । वेद-प्रामाण्य एवं शब्द के नित्यत्व के सिद्धान्तों की आलोचना करके जैन दर्शनकार तीर्थंकर-प्रणीत आगम और शब्द के अनित्यत्व की सिद्धि करते हैं। फिर भी दार्शनिक क्षेत्र में इनका चिन्तन सामान्य विशेषात्मक है। (द) वेदान्त और स्याद्वाद भारतीय दर्शन में वेदान्त का विकास अंतिम और सबसे महत्त्वपूर्ण है। यह ब्रह्मतत्त्व को मानता है। वह सत्-चित्-आनन्दमय है। ब्रह्म सत्य है जगत मिथ्या है । जीव और ब्रह्म में कोई अन्तर नहीं । बाह्य जगत की व्याख्या के लिए इस दर्शन ने माया के सिद्धान्त का निर्माण किया है। माया अनिर्वचनीय है। यह है और नहीं भी है। इसके लिए निश्चय और व्यवहार का आश्रय लिया गया है । जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति-रूप तीन अवस्थाओं का वर्णन किया गया है। जब ब्रह्म माया से अविच्छिन्न होता है, तब ईश्वर का रूप निर्माण कर जगत् के सर्जन में प्रवृत्ति होता है । जगत् ब्रह्म का विवर्त है । जैसे समुद्र में लहरें उठती हैं, उसी तरह जगत् ब्रह्म का बाह्य रूप है। संसार से निवृत्ति के लिए माया से ब्रह्म का पार्थक्य आवश्यक है। आचार्य बादरायण ने 'ब्रह्मसूत्र' में इसका अच्छा वर्णन किया है। शंकर ने भाष्य लिखकर इस सिद्धान्त की अच्छी तरह परिपुष्टि कर अद्वैत तत्त्व की स्थापना की । रामानुज ने इसी पर भाष्य लिखकर विशिष्टाद्वैत की स्थापना की है। माध्वाचार्य, निम्बार्क, आदि आचार्यों ने भेदाभेद आदि सिद्धान्तों को प्रतिपादित कर, अद्वैत-तत्त्व ही सर्वप्रधान है, यह स्थापित किया है। माया के क्षेत्र में स्याद्वाद का आश्रय लिया गया है। (२) चार्वाक दर्शन और स्याद्वाद चार्वाक दर्शन भौतिक दर्शन है। इसका प्रतिपादन सृष्टि-कर्तृत्व तथा सृष्टि अभिव्यक्ति द्वारा हुआ है। कुछ लोग भूत-चतुष्टय को विश्व का कर्ता मानते थे, और कुछ लोग एक तत्त्व से सृष्टि की अभिव्यक्ति मानते थे । वहाँ केवल प्रत्यक्ष ही प्रमाण था । अतः जीवन को सुखमय बनाना या ऐहिक सुखवाद ही उनके जीवन का लक्ष्य था। चार्वाक दर्शन के लोग जड पदार्थ से ही निर्जीव तत्त्व और जीवन-तत्त्वकी व्याख्या करते हैं, जो बिना स्याद्वाद दृष्टि को अपनाए
SR No.002458
Book TitleSamanvay Shanti Aur Samatvayog Ka Adhar Anekantwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherParshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan
Publication Year1999
Total Pages124
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy