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वर्धमान महावीर का अनेकान्तवाद और गौतम बुद्ध...
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आपत्ति का भय था । किन्तु भगवान् का मार्ग तो शाश्वतवाद और उच्छेदवाद के समन्वय का मार्ग है अत एव उन प्रश्नों का समाधान विधिरूप से करने में उनको कोई भय नहीं था । उनको प्रश्न किया गया कि क्या कर्मका कर्ता स्वयं है, अन्य है या उभय है ? इसके उत्तर में भ० महावीर ने कहा कि कर्म का कर्ता आत्मा स्वयं हैं; पर नहीं है और न स्वपरोभय ।२१ जिसने कर्म किया है वही उसका भोक्ता है ऐसा माननेमें ऐकान्तिक शाश्वतवाद की आपत्ति भ० महावीरके मतमें नहीं आती; क्योंकि जिस अवस्थामें किया था उससे दूसरी ही अवस्था में कर्मका फल भोगा जाता है । तथा भोक्तृत्व अवस्थासें कर्मकर्तृत्व अवस्थाका भेद होनेपर भी ऐकान्तिक उच्छेदवादकी आपत्ति इसलिये नहीं आती की भेद होते हुये भी जीव द्रव्य दोनों अवस्थामें एक ही मोजूद है ।
पाटीप
१. " भिक्खू विभज्जवायं च वियागरेज्जा" । सूत्रकृतांग १.१४.२२ । २. देखो - दीघनिकाय - ३३ संगितिपरियाय सुत्तमें चार प्रश्नव्याकरण | ४. न्यायवार्तिक (पं. दलसुख मालवणिया ), प्रस्तावना पृ. १३-१४
३. वही ।
६. दीघनिकाय - सामञ्ञफलसुत्त ।
५. न्या. प्रस्तावना, पृ. १४
७. मज्झिमनिकाय चूलमालुंक्यपुत्त ६३ ।
८. इस प्रश्नको ईश्वरके स्वतंत्र अस्तित्व या नास्तित्व का प्रश्न भी कहा जा सकता है । १०. शतक २ उद्देशक १ |
९. न्या. प्रस्तावना, पृ. १५ ११. शतक ९ उद्देशक ६ । सूत्रकृतांग १.१.४.६ - " अन्तवं निइए लोए इइ धीरो तिपासई । " १२. लोक का मतलब है पंचास्तिकाय । पंचास्तिकाय संपूर्ण आकाशक्षेत्र में नहीं किन्तु असंख्यात कोटाकोटी योजन की परिधि में है ।
न्या. (पं. दलसुख मालवणिया) प्रस्तावना, पृ. ३ १३. न्या. (पं. दलसुख मालवणिया) प्रस्तावना, १९ १४. संयुत्तनिका XVI 12; XXII 86; मज्झिमनिकाय १५. मज्झिमनिकाय - सव्वासंवसुत्त २ ।
१७. संयुत्तनिकाय XXXIII 1.
१९. वही
२०. विनयपिटक महावग्गं VI. ८१. और अंगुतर निकाय, Part IV. p 791. २१. भगवती १.६.५२ ।
चूलमालुंक्यसुत्त ६३
१६. मज्झिमनिकाय - सव्वासंवसुत्त २. । संयुक्तनिका XLIV. 8.
१८.