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________________ अनेकान्तवाद और अन्य दार्शनिक प्रणालियां ७९ पिता अपने पुत्रों को देखता है। क्योंकि अनेकान्तवादी की न्यूनाधिक बुद्धि नहीं हो सकती । वास्तव में सच्चा शास्त्रज्ञ कहे जाने का अधिकारी वही है, जो स्याद्वाद का अवलंबन लेकर सम्पूर्ण दर्शनों मे समान भाव रखता है। वास्तव में माध्यस्थ भाव ही शास्त्रों का गूढ रहस्य है. यही धर्मवाद है। माध्यस्थ भाव रहने पर शास्त्रों के एक पद का ज्ञान भी सफल है, अन्यथा करोडों शास्त्रों के पढ जाने से भी कोई लाभ नहीं ।२४ निस्सन्देह सच्चा स्याद्वादी सहिष्णु होता है, वह राग-द्वेष रूप आत्मा के विकारों पर विजय प्राप्त करने का सतत प्रयत्न करता रहता है । वह दूसरों के सिद्धान्तों को आदर की दृष्टि से देखता है, और मध्यस्थ भाव से सम्पूर्ण विरोधों का समन्वय करता है। सिद्धसेन दिवाकर ने वेद, सांख्य, न्यायवैशेषिक, बौद्ध आदि दर्शनों पर द्वात्रिंशिकाओं की रचना करके, और हरिभद्रसूरि ने षडदर्शनसमुच्चय में छह दर्शनों की निष्पक्ष समालोचना करके इसी उदार वृत्ति का परिचय दिया है । इतना ही नहीं, बल्कि मल्लवादी, हरिभद्रसूरि, राजशेखर पं. आशाधर, उ. यशोविजय आदि अनेक जैन विद्वानों ने वैदिक और बौद्ध ग्रंथों पर टीका-टिप्पणियां लिखकर अपनी गुणग्राहिता, समन्वयवृत्ति और हृदय की विशालता को स्पष्टरूप से प्रमाणित किया है। ___ वास्तव में देखा जाय तो सत्य एक है तथा वैदिक, जैन और बौद्ध दर्शनों में कोई परस्पर विरोध नहीं । प्रत्येक दार्शनिक भिन्न भिन्न देश और काल की परिस्थिति के अनुसार सत्य के केवल अंश मात्र को ग्रहण करता है। वैदिक धर्म व्यवहार प्रधान है, बौद्ध धर्म को श्रवण प्रधान, और जैनधर्म को कर्तव्य प्रधान कहा जा सकता है ।२५ एक दर्शन कर्म, उपासना और ज्ञान को मोक्ष का प्रधान कारण कहता है; दूसरा शील, समाधि और प्रज्ञा को; तथा तीसरा सम्यगदर्शन, ज्ञान और चारित्र को मोक्ष का प्रधान कारण मानता है, परन्तु सबका ध्येय एक ही है। जिस प्रकार सरल और टेढे मार्ग से जानेवाली भिन्न भिन्न नदियाँ अन्त में जाकर एक ही समुद्र में मिलती हैं, उसी तरह भिन्न भिन्न रुचियों के कारण उद्भव होने वाले समस्त दर्शन एक ही पूर्ण सत्य में समाविष्ट हो जाते हैं।२६ षट्दर्शनों को जिनेन्द्र के अंग कहकर परमयोगी आनंदघनजी ने आनन्दघन चौबीसी में इस भाव को निम्न भाषा में व्यक्त किया है
SR No.002458
Book TitleSamanvay Shanti Aur Samatvayog Ka Adhar Anekantwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherParshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan
Publication Year1999
Total Pages124
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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