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स्याद्वाद, सप्त-भंगी, नयवाद, प्रमाण
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है । सिन्धु का एक बिन्दु न तो सिन्धु है, और न असिन्धु - अपितु वह सिन्धु का एक अंश है । एक सैनिक को सेना नहीं कह सकते, परन्तु उसे असेना भी तो नहीं कह सकते, क्योंकि वह सेना का एक अंश तो है ही । नय के सम्बन्ध में भी यही सत्य है ।"
प्रमाण का विषय अनेकान्तात्मक वस्तु है, और नयका विषय है, उस वस्तु का एक अंश ।
यदि नय अनन्त धर्मात्मक वस्तु के किसी एक ही अंश (धर्म) को ग्रहण करता है, तो वह मिथ्या ज्ञान ही रहेगा । फिर उसके द्वारा वस्तु का यथार्थ बोध कैसे होगा ?
इस प्रश्न का उत्तर भी जैन दार्शनिकों नें अपनी उसी सत्य-मूलकतर्क - शैली पर दिया है ।
"नय अनन्त धर्मात्मक वस्तु के एक अंश को ही ग्रहण करता है, यह सत्य है । परन्तु इतने मात्र से ही वह एक मिथ्या ज्ञान नहीं हो सकता । एक अंश का ज्ञान यदि वस्तु के अन्य अंशों का निषेधक हो जाए, तभी वह मिथ्या होगा । किन्तु जो अंश-ज्ञान, अपने से अतिरिक्त अंशों का निषेधक न होकर, केवल अपने दृष्टिकोण को ही व्यक्त करता है, तो वह मिथ्या ज्ञान नहीं हो सकता । "
जो न अपने स्वीकृत अंश का प्रतिपादन करते हुए यदि अपने से भिन्न दृष्टिकोण का निषेध करते हैं, तो निस्सन्देह वे 'नयाभास' किंवा दुर्नय कहे जाएँगे । परस्पर निरपेक्ष नय दुर्नय है, और सापेक्ष सुनय है 1
नयों की संख्या यद्यपि नय अनन्त है,
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क्योंकि वस्तु के धर्म भी अनन्त है, फिर भी नयों के मूल में दो भेद है- द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक अभेद-गामिनीदृष्टि को द्रव्यार्थिक नय कहते हैं, और भेदगामिनीदृष्टि को पर्यायार्थिक नय कहते हैं । नयों में नैगमादि तीन द्रव्यार्थिक हैं, और ऋजुसूत्र आदि चार पर्यायार्थिक है ।
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प्रमाण
किसी भी वस्तु का परिबोध करना, यह एक मात्र आत्मा के ज्ञान गुण