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समन्वय, शान्ति और समत्वयोग का आधार अनेकान्तवाद
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का कार्य है । इस दृष्टि से ज्ञान ही प्रमाण माना जाता है। जैन दर्शन ज्ञान के अतिरिक्त किसी अन्य इन्द्रिय आदि जड उपकरणों को प्रमाणोत्वेन स्वीकार नहीं
करता ।
जिसके द्वारा वस्तु-तत्त्व का संशयादिव्य वच्छेदेन यथार्थ परिबोध किया जाता है, वह प्रमाण है ।
जो ज्ञान स्वयं अपने आपका और अपने से भिन्न अन्य वस्तुओं का भी सम्यग् रूप से निश्चय करता है, वह ज्ञान प्रमाण कहा जाता है । ७ पादटीप :
१. एकेनाकर्षन्ती श्लथयन्ती वस्तु-त्वमितरेण ।
अन्तेन जयति जैनी नीतिर्मन्थान- नेत्रमिव गोपी ॥ - पुरुषार्थसिद्ध्युपाय २. अष्ट- सहस्त्री ।
३. इन्डियन फिलासफी जि. १, पृ. ३०५ - ६ ।
४. स्याद्वाद से ही लोकव्यवहार चल सकता है, इस बात को सिद्धसेन दिवाकर निम्न गाथा से व्यक्त किया है
५.
जेण विणा लोगस्स ववहारो सव्वथा णिव्वइए ।
तस्स भुवणेक- गुरुणो णमो अणेर्गतवायस्स ।।
समंतभद्र ने आप्तमीमांसा में स्याद्वाद और केवलज्ञान के भेद को स्पष्ट रूप
से व्यक्त किया है । देखिये - अष्टसहस्त्री पृ. २७५-२८८ ।
समन्तभद्र ने आप्तमीमांसा में स्यादवाद और केवलज्ञान के भेद को स्पष्टरूप से निम्न श्लोकों में प्रतिपादन किया है -
तत्त्वज्ञानं प्रमाणं ते युगपत्सर्वभासनं । क्रमभावि च यज्ज्ञानं स्याद्वादनयसंस्कृतं ॥१०१ उपेक्षाफलमाद्यस्य शेषस्यादानहानधीः ।
पूर्वं वाऽज्ञाननाशो वा सर्वस्यास्य गोचरे ॥ १०२ स्याद्वाद केवलज्ञाने सर्वतत्त्वप्रकाशने । भेदः साक्षादसाक्षाच्च ह्यवस्त्वन्यतमं भवेत ॥ १०५
अष्ट सहस्त्री, पृ. २७५ - २८८
६. प्रकर्षेण, संशयादिव्यच्छेदेन भीयते, परिछिद्यते, ज्ञायते वस्तु-तत्त्वं येन तत् प्रमाणम् ।
७. स्व-पर-व्यवसायि ज्ञानं प्रमाणम् ।
- प्रमाणनय-तत्त्वालोक, १-२ |