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अनेकान्तवाद : समन्वय शान्ति एवं समभाव का सूचक . ५१ है। इनमें से किसी भी ऋतु की विपरीतता से अन्य ऋतुएँ भी विकृत हो जाती हैं । जो कुछ अनुभव में आवे उसके साथ समरस होने का प्रयास करना, यही स्याद्वाद की प्रवृत्ति का चिह्न है । स्याद्वादी अपने विरोधियों के कथन का उन्हीं की दृष्टि से आदर कर सकता है, यद्यपि वह उससे सर्वथा सम्मत न भी हो । दधि (दूधवाली) ढुलमुल नीति की निन्दा की जाती है, किन्तु वह सदैव के लिए अवगुण ही है ऐसा नहीं कहा जा सकता । दधि और दूध दोनों के गुण जाननेवाला यदि प्रकृति-भेद के कारण दधि नहीं खा सकता तो भी वह उसके गुण की उपेक्षा नहीं कर सकता । वह यह समझता है कि प्रत्येक वस्तु या कार्य अपने ही समुचित स्थल-काल-संयोग में सुशोभित होता है । यदि अनुचित कालादि संयोगों में रखा जाये तो निन्दापात्र, कुरूप या जुगुप्सित हो जाता है । इसीलिए “मैले" शब्द की व्याख्या की गई है - अस्थान में रखा हुआ पदार्थ (Matter misplaced is dirt) अतएव कोई भी वस्तु या कार्य स्वतंत्र रूप से असुन्दर या निरूपयोगी नहीं होता । त्याज्य मल भी जब जमीन में गाड़ा जाता है तब वह बहुमूल्य खाद के रूप में कृषि के लिए पुष्टिकारक पदार्थ बन जाता है।
... अतएव ढुलमुल नीति जैसे छिछोरे आक्षेपों का जोखिम उठाकर भी स्याद्वाद सापेक्षवाद अर्थात् रिलेटिविटी का रिद्धान्त परस्पर विरुद्ध दिखनेवाली वस्तुओं का एकत्र-समर्थन करता है और परस्पर विरोधी वस्तुओं के संमिश्रण का प्रयत्न करता है। वह कहता है कि मनुष्य में और समाज में प्रेम आवश्यक है और वैराग्य भी आवश्यक है । कोमलता चाहिए और कठोरता भी चाहिए; छूट चाहिए और मर्यादा भी चाहिए । प्रणालिका-रक्षण और प्रणालिका-भंग दोनों आवश्यक है। यदि वस्तुतः देखा जाय तो यही सलाह सच्ची है। उदाहरण के तौर परं प्रेम और वैराग्य परस्पर विरोधी नहीं है , अपितु एक ही सिक्के के दो बाजू हैं । प्रेम में जब वैराग्य की मात्रा हो तभी वह सच्चा प्रेम हो सकता है, अन्यथा वह केवल मोह या आसक्ति रूप बन जायेगा । "तेन त्यक्तेन भुञ्जीथाः"१९ - त्याग करके भोग करो । उपनिषद के इस वाक्य में यही बात कही गई है । दूसरी और वैराग्य भी प्रेम से अनुरंजित होने पर ही सुशोभित होता है, और सुफलदायक बनता है । अन्यथा वह मनुष्य के हृदय को शुष्क, वीरान बना देता है। स्त्री-पुत्रादि के साथ कलह करके यदि संसार-त्याग किया