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________________ समन्वय, शान्ति और समत्वयोग का आधार अनेकान्तवाद के एक द्वार के रूप में गृहीत हुआ । जैन दर्शन में स्याद्वाद का इतना अधिक महत्त्व है कि आज स्याद्वाद जैन दर्शन का पर्याय बन गया है। जैन दर्शन का अर्थ स्याद्वाद के रूप में लिया जाता है। वास्तव में स्याद्वाद जैन दर्शन का प्राण है। जैन आचार्यों के सारे दार्शनिक चिन्तन का आधार स्याद्वाद है। जैन तीर्थंकरों ने मानव की अहंकारमूलक प्रवृत्ति और उसके स्वार्थी वासनामय मानस का स्पष्ट दर्शन कर उन तत्वों की ओर प्रारम्भ से ही ध्यान आकृष्ट किया जिससे मानव की दृष्टि का एकांगीपन दूर हो और उसमें अनेकांगिता का समावेश हो तथा वह अपनी दृष्टि की तरह सामने वाले की दृष्टि का भी सम्मान सीखे और उसके प्रति सहिष्णु बने । दृष्टि में इस प्रकार के भावों का समावेश हो जाने से उसकी भाषा मृदुल होती है। उसमें स्वगत की हठाग्रता दूर होकर समन्वय की प्रवृत्ति आ जाती है । उसकी भाषा में तिरस्कार भाव न होकर दूसरों के अभिप्राय, विवक्षा और अपेक्षा दृष्टि को समझने की क्षमता आ जाती है। यही स्थिति उसकी मानसिक शुद्धि अर्थात् स्याद्वादमय वाणी के स्वीकरण की है, और वैसी स्थिति में मानव का आचारव्यवहार पूर्णतः 'मनस्येकं वचस्येकं कर्मण्येकम्' के अनुरूप हो जाता है । स्याद्वाद सिद्धान्त जैन तीर्थकरों की मौलिक देन है क्योंकि यह ज्ञान का एक अंग है,जो तीर्थकरों के केवल-ज्ञान में स्वतः ही प्रतिबिंबित होता है। स्याद्वाद सिद्धान्त के द्वारा मानसिक मतभेद समाप्त हो जाते हैं, और वस्तु का यथार्थ स्वरूप स्पष्ट हो जाता है । इसको पाकर मानव अन्तर्दृष्टा बनता है । स्याद्वाद का प्रयोग जीवन-व्यवहार में समन्वयपरक है। वह समता और शान्ति को सर्जता है, बुद्धि के वैषम्य को मिटाता है। भारतीय संस्कृति के विशेषज्ञ मनीषी डॉ. रामधारीसिंह दिनकर का स्पष्ट अभिभत है कि "स्यावाद का अनुसंधान भारत की अहिंसा-साधना का चरम उत्कर्ष है और सारा संसार इसे जितना शीघ्र अपनावेगा विश्व में शान्ति उतनी ही शीघ्र स्थापित होगी।" जैन दर्शन युक्तिपूर्ण तथ्यों को ग्रहण करने का सदेव सन्देश प्रस्तुत करता है उसका व्यक्तिविशेष में कोई आग्रह नहीं बल्कि वह तो सिद्धांत की
SR No.002458
Book TitleSamanvay Shanti Aur Samatvayog Ka Adhar Anekantwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherParshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan
Publication Year1999
Total Pages124
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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