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________________ १० समन्वय, शान्ति और समत्वयोग का आधार अनेकान्तवाद द्वारा बोया बीज है, उसी से विकसित यह अनेकान्त का वटवृक्ष है । त्रिपदी ही वह नींव है, जिस पर बाद के आचार्यों ने जैन दर्शन का भव्य प्रासाद निर्मित किया जिसके आधारभूत विशाल स्तम्भ है - उत्पादादि त्रिलक्षण परिणामवाद, अनेकान्त दृष्टि, स्याद्वाद भाषा और आत्म द्रव्य की स्वतंत्र सत्ता । अनेकान्त के उद्भव के दो आधार हैं, इतिहास और परम्परा | परम्परा की दृष्टि से इस युग में अनेकान्त के उद्भावक प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव हैं 1 सर्व प्रथम यह उपदेश ऋषभदेव ने दिया ।११ अतः अनेकान्त का उद्भव इस युग के प्रारम्भकाल में हुआ । ऐतिहासिक दृष्टि से अनेकान्त का उद्भव तैंतीसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ के द्वारा हुआ ।१२ उनके २५० वर्ष के बाद महावीर अनेकान्त के प्रवर्तक हुए । इस युग के अंतिम तीर्थंकर महावीर हैं। महावीर का भी प्रथम उपदेश त्रिपदी रूप से ही हुआ है 1 किसी परम्परागत मान्यता के सम्मुख नतमस्तक न होकर स्वतंत्र दृष्टिसे वस्तु को देखने की तथा उसके संबंध में अन्यान्य मतवादों के मर्म को निष्पक्ष भाव से समझने और उन्हें उचित मान्यता प्रदान करने की प्रवृत्ति ही अनेकान्त की जन्मस्थली है । विभिन्न दर्शनों से दृष्ट सत्यों में एक रूपता लाने, उनमें समन्वय एवं सामंजस्य स्थापित करने तथा दुराग्रह एवं अभिनिविष्ट वृत्ति को छोड़कर निर्मल और तटस्थ भाव से सत्य की खोज करने के प्रयत्न ही अनेकान्त उद्भव के हेतु हैं । यहाँ आचार्य हरिभद्र का श्लोक ध्यान देने योग्य है : I के " आग्रही बत निनीषति युक्ति तत्र यत्र मतिरस्य निविष्टा । पक्षपातरहितस्य तु युक्तिर्यत्र तत्र मतिरेति निवेशम् ॥१३ अनाग्रही एवं समभाव वाला व्यक्ति नितान्त निष्पक्ष दृष्टिसे वस्तु को देखने का प्रयत्न करता है । वह वस्तु के कतिपय अंशों को ही देखकर अपने को कृतकृत्य नहीं मानता, किन्तु वह वस्तु के समग्र स्वरूप का आकलन करने का प्रयास करता है । उसकी दृष्टि वस्तु के किसी आंशिक सौन्दर्य से चकित हो पथभ्रष्ट नहीं होती, किन्तु उसके सम्पूर्ण स्वरूप को देखने के लिए आकुल रहती है । इस वृत्ति का प्रतिफल ही अनेकान्त का उद्भव है ।
SR No.002458
Book TitleSamanvay Shanti Aur Samatvayog Ka Adhar Anekantwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherParshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan
Publication Year1999
Total Pages124
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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