________________
८८ समन्वय, शान्ति और समत्वयोग का आधार अनेकान्तवाद है तो विरोध हो सकता था, पर अपेक्षाभेद से तो पंचास्तिकाय पांच है, चार आदि नहीं । दूसरी बात यह है कि सामान्य से पाँचो अस्तिकाय अस्तिकायत्वेन एक होकर भी विशेष की अपेक्षा तत्तद् व्यक्तियों की दृष्टि से पांच भी हैं, इसमें विरोध कैसा और विरोध करने का कारण क्या है ?
स्वर्ग और मोक्ष अपने स्वरूप की दृष्टि से है, नरकादि की दृष्टि से नहीं, इसमें क्या आपत्ति है । स्वर्ग, स्वर्ग है, नरक तो है नहीं, मोक्ष, मोक्ष ही तो होगा, संसार तो नहीं होगा। इस बात को तो आपको भी मानना पड़ेगा और आप मानते ही होंगे।
उपनिषदों में सत्, असत्, सदसत्, और अवक्तव्य - ये चारों पक्ष मिलते हैं । बौद्ध त्रिपिटक में भी चार पक्ष मिलते हैं । सान्तता और अनन्तता, नित्यता और अनित्यता आदि प्रश्नों को बुद्ध ने अव्याकृत कहा है। उसी प्रकार इन चारों पक्षों को भी अव्याकृत कहा गया है। उदाहरण के लिए निम्न प्रश्न अव्याकृत हैं -
१. होति तथागतो परं मरणाति ?
न होति तथागतो परं मरणाति ? . . होति च न होति च तथागतो परं मरणाति नेव होति न न होति तथागतो परं मरणाति ? सयं कतं दुक्खंति ? परं कतं दुक्खंति ? . सयं कतं परं कतं च दुक्खंति
असयकारं अपरकारं दुक्खंति ? संजयवेलट्ठिपुत्त भी इस प्रकार के प्रश्नों का न 'हां' में उत्तर देता था न "ना" में।
उसका किसी भी विषय में कुछ भी निश्चय न था । वह न हां कहता था न "ना" कहता, न अव्याकृत कहता, न व्याकृत कहता । किसी भी प्रकार का विशेषण देने में वह भय खाता था । दूसरे शब्दों में वह संशयवादी था। किसी भी विषय में अपना निश्चित मत प्रकट नहीं करता था।
स्याद्वाद और संजयके संशयवाद में यह अन्तर है कि स्याद्वाद निश्चयात्मक है, जबकि संजय का संशयवाद अनिश्चयात्मक है। महावीर प्रत्येक