________________
अनेकान्तवाद का आधुनिक दार्शनिकों पर प्रभाव
समुद्र मिलकर उसकी समानता नहीं कर सकतें हैं । १११
उपर्युक्त कथन में ईश्वर को एक एवं अनेक, छोटा एवं बड़ा बतलाया गया है। परस्पर विरुद्ध भासित होने वाले धर्मों को अपेक्षाभेद से एक ही ईश्वर में निरूपित किया गया है । यह स्पष्ट अनेकान्त का चिन्तन है ।
९५
श्री दिनकर गाँधीजी के विचारों के विषय में लिखते हैं "अनेकान्त जैन दर्शनों में सोया हुआ था। भारतवासी जैसे अपने दर्शन की अन्य बातें भूल चुके थे, वैसे ही अनेकान्तवाद का यह दुर्लभ सिद्धान्त भी उनकी आँखो से ओझल हो गया था । किन्तु नवोत्थान के क्रम में जैसे हमारे अनेक प्राचीन सत्यों ने दुबार जन्म लिया, वैसे ही गाँधीजी में आकर अनेकान्तवाद ने भी नवजीवन प्राप्त किया । संपूर्ण सत्य क्या है - इसे जानना बड़ा ही कठिन है । तात्त्विक दृष्टि से यही कहा जा सकता है कि प्रत्येक सत्यान्वेषी सत्य के जिस पक्ष के दर्शन करता है, वह उसी की बातें बोलता है, इसीलिए सत्य के मार्ग पर आये हुए व्यक्ति की सबसे बडी प्रधानता यह होती है कि वह दुराग्रही नहीं होता, न वह यही कहता है कि मैं जो कुछ कह रहा हूँ वही सत्य है । अपने ऊपर एक प्रकार की श्रद्धा तथा यह भाव कि कदाचित् प्रतिपक्षी का मत ठीक हो, ये अनेकान्तवादी मनुष्य के प्रमुख लक्षण हैं ।"
अब हम श्री रामधारी सिंह दिनकर के विचारों को देखें । वे लिखते हैं - "जैन दर्शन केवल शारीरिक अहिंसा तक ही सीमित नहीं है, प्रत्युत वह बौद्धिक अहिंसा को भी अनवार्य बताता है। यह बौद्धिक अहिंसा ही जैन दर्शन का अनेकान्तवाद है ।१२
1
अनेकान्तवाद का दार्शनिक आधार यह है कि प्रत्येक वस्तु अनन्त गुण- पर्याय और धर्मो का अरूप पिंड है। वस्तु को हम जिस कोण से देख रहे हैं, वस्तु उतनी ही नहीं है । उसमें अनन्त दृष्टिकोणों से देखे जाने की क्षमता । उसका विराट स्वरूप अनन्त धर्मात्मक है । हमें जो दृष्टिकोण विरोधी मालूम होता है उस पर ईमानदारी से विचार करें तो उसका विषयभूत धर्म भी वस्तु में विद्यमान है । चित्त से पक्षपात की दुरभिसंधि निकालें और दूसरे के दृष्टिकोण के विषय को भी सहिष्णुतापूर्वक खोजें, वह भी वहीं लहरा रहा है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि अनेकान्त का अनुसंधान भारत की अहिंसा साधना का चरम उत्कर्ष है और सारा संसार इसे जितना ही शीघ्र अपनायेगा विश्व में शान्ति भी