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________________ विषय प्रवेश दृष्टि विरोधी नहीं है, सब दृष्टियाँ सहयोगी है और सब दृष्टियां किसी बडे सत्य में समाहित हो जाती है । और जो बडे सत्य को जानता है, जो विराट सत्य को जानता है-न वह किसीके पक्ष में होगा न वह किसीके विपक्ष में होगा । ऐसा व्यक्ति ही निष्पक्ष हो सकता है । यह बड़े मजे की बात है कि सिर्फ अनेकान्त की जिसकी दृष्टि हो, वही निष्पक्ष हो सकता है- समत्व प्राप्त कर सकता है । 'समता से तात्पर्य है मन की स्थिरता, रागद्वेष का उपशमन, समभाव अर्थात् सुख-दुःख में निश्चल रहना । राग-द्वेष के भावों से अपने आपको हटाकर स्व-स्वभाव में रमण करना वस्तुतः समत्व है । समता वस्तुतः परमात्मा का साक्षात् स्वरूप है । इसकी प्राप्ति भारतीय नैतिक साधना अथवा योग का मुख्य लक्ष्य है। राग-द्वेष आदि समस्त मानसिक विकारों तथा अन्तर्द्वन्द्वो से मुक्त होने पर ही मनुष्य को समत्व की प्राप्ति होती है। उसे अपने वास्तविक स्वरूप का ज्ञान होता है । 'समत्व का आधार है शान्तरस । आध्यात्मिक शान्ति मानव हृदय के लिये सारभूत है । जीवन का कोई भी क्षण चाहे व सुख का हो अथवा दुःख का, आध्यात्मिक शान्ति की इच्छा किये बगैर नहीं गुजरता । शान्तरस की उत्पत्ति आत्मा की स्वतन्त्रता से होती है । इसका सम्बन्ध इच्छाओं के विनाश से होता है। ज्यों-ज्यों राग-द्वेष की आकुलता कम होती जाती है और ज्ञान का आलोक फैलता जाता है, त्यों त्यों अन्तः करण में शान्ति का विकास होता है । इस संसार में अनेक प्रकार के पुरुष हैं, जो वस्तु तत्त्व की यथार्थता को जानना चाहते हैं, वे सत् क्या है, असत् क्या है, धर्म क्या है, शील क्या है और शान्ति- अशान्ति क्या है ? इन विविध धर्मों का बोध करना चाहते हैं । अनेकान्त में यही तो है - शान्ति के साथ अशान्ति पर विचार करता है, सत् के साथ असत् पर विचार करता है और फिर संदेश देता है कि ज्ञान में शंकित न हो शान्ति या अशान्ति में धैर्य का परित्याग न करें । वे " अहानुइयाइ सुसिक्खज्जा" यथोक शिक्षण प्राप्त करें। फिर पालन करें ज्ञान का, ज्ञान के अर्थ का । क्योंकि " नाणं सया समणुवासिज्जासि" ( आचा. ६- १) ज्ञान पराक्रमी बनाता है, इसलिए उसकी आराधना करना चाहिए 1
SR No.002458
Book TitleSamanvay Shanti Aur Samatvayog Ka Adhar Anekantwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherParshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan
Publication Year1999
Total Pages124
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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