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अनेकान्तवाद : समन्वय शान्ति एवं समभाव का सूचक
बार्डे या दीवारें तो तर्क ने खड़ी की हैं ।
किसी समय मनुष्य एक शिखर पर खड़ा रहकर बोलता है और कभी दूसरे पर । किन्तु वह एक-एक वाक्य के पीछे यह नहीं कह सकता कि इस समय मैं अमुक शिखर से बोल रहा हूँ । व्यवहार चलाने के लिए इसी प्रकार की गति आवश्यक है | अनुभव कहता है कि जो वस्तु ठंडी है वह गरम भी है। तर्क कहता है कि वस्तु या तो ठंडी ही है या गरम ही है ।ठंडी और गरम एकसाथ नहीं होसकती । इसीलिए अनुभव और तर्क का विरोध अपरिहार्य है। मनुष्य भिन्न-भिन्न समय में भिन्न-भिन्न शिखर पर खड़ा रह कर बोलता है । अतः उसके कथन में परस्परविरोध होना स्वाभाविक है। ऐसी अवस्था में किसी व्यक्ति के वचनों में परस्पर असंगति बताकर उसका खंडन करने का आनंद लिया जा सकता है । किन्तु खंडन करनेवाले के अपितु व्यक्तिमात्र के कथन में भी परस्पर विरोध होता ही है । इसलिए हमें इस प्रकार के आक्षेप से नहीं घबराना चाहिए ।
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इस निरूपण से दो बातें फलित होती है - एक तो यह कि संसार में कुछ भी असंकीर्ण नहीं है सब संकीण है- मिश्र है। किसी भी प्रश्न का एक निदान नहीं है और न एक उपचार ही है। जीवन का कोई भी क्षेत्र या अंग लिया जाय उसमें इन्द्रधनुष के समान विविध रंगो का मिश्रण होता है यह जानकर हम विविधता और मिश्रण से व्याकुल नहीं होते । विविधता प्रकृति को प्रिय है । यही उसकी लीला है तब हम विविधता के अवलोकन से रस प्राप्त करने के बजाय व्याकुल क्यों हो ? लेकि ने कहा है कि जीवन कविता नहीं है, इतिहास है "Life is history and not poetry” इसका अर्थ यह नहीं की जीवन में कविता की आवश्यकता नहीं है अपितु इसका आशय यही है कि संसार में कुछ भी सीधा और सरल नहीं होता । सर्वत्र उतार चढ़ाव दृष्टिगोचर होता है । उसमें अनेक विरोधी बल एक ही साथ कार्य करते हैं उसमें एक ही काल में ऊर्ध्व गति और अधो गति दोनों है । ऐसी पेचीदा स्थिति में क्या कर्तव्य है और क्या अकर्तव्य है, इसका निर्णय करना बहुत कठिन है । इसीलिए गीता में कहा है कि क्या कर्म है और क्या अकर्म है, इसका निर्णय करने में ज्ञानी भी भ्रान्त हो जाते हैं (कि कर्म किमकर्मेति कवयोऽव्यत्र मोहिताः) । गाँधीजी ने कहा है कि जीवन का मार्ग सीधा नहीं
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