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वर्धमान महावीर का अनेकान्तवाद और गौतम बुद्ध...
६७ स्पष्टीकरण है वह भगवतीमें स्कन्दक परिव्राजकके अधिकारमें उपलब्ध है। उस अधिकारसे और अन्य अधिकारोंसे यह सुविदित है कि भगवान्ने अपने अनुयायिओंको लोकके संबंधमें होनेवाले उन प्रश्नोंके विषयमें अपना स्पष्ट मन्तव्य बता दिया था, जो अपूर्व था। अतएव उनके अनुयायी अन्य तीर्थिकोंसे इसी विषयमें प्रश्न करके उन्हें चूप किया करते थे । इस विषयमें भगवान् महावीरके शब्द देखिये भग० १.१.९० ।
इसका सार यह है कि लोक द्रव्यको अपेक्षासे सान्त है क्योंकि यह संख्यामें एक है। किन्तु भाव अर्थात् पर्यायोंको अपेक्षासे लोक अनन्त हैं क्योंकि लोकद्रव्यके पर्याय अनन्त हैं । कालकी दृष्टिसे लोक अनन्त है अर्थात् शाश्वत है क्योंकि ऐसा कोई काल नहीं जिसमें लोक का अस्तित्व न हो । किन्तु क्षेत्रकी दृष्टिसे लोक सान्त है क्योंकि सकलक्षेत्रमें से कुछ ही में लोंका है अन्यत्र नहीं।
___ इस उद्धरणमें मुख्यतः सान्त और अनन्त शब्दोंको लेकर अनेकान्तवादकी स्थापना की गई है । भगवान् बुद्धने लोककी-सान्तता और अनन्तता दोनोंको अव्याकृत कोटिमें रखा है। तब भगवान् महावीरने लोकको सान्त और अनन्त अपेक्षाभेदसे बताया है।
अब लोककी शाश्वतता-अशाश्वतताके विषयमें जहाँ भ. बुद्धने अव्याकृत कहा वहाँ भ० महावीरका अनेकान्तवादी मन्तव्य क्या है उसे उन्हींके शब्दोंमें देखिये भग० ९.६.३८७
जमाली अपने आपको अर्हत् समझतः था किन्तु जब लोककी शाश्वतताअशाश्वतताके विषयमें गौतम गणधरने उससे प्रश्न पूछा तब वह उत्तर न दे सका, तिसपर भ. महावीरने उपर्युक्त समाधान यह कह करके किया कि यह तो एक सामान्य प्रश्न है । इसका उत्तर तो मेरे छद्मस्थ शिष्य भी दे सकता है ।
___ जमाली ! लोक शाश्वत है और अशाश्वत भी । त्रिकालमें ऐसा एक भी समय नहीं जब लोक किसी न किसी रूपमें न हो अतएव वह शाश्वत है। किन्तु वह अंशाश्वत भी है क्योंकि लोक हमेशा एकरूप तो रहता नहीं । उसमें अवसर्पिणी और उत्सर्पिणीके कारण अवनति और उन्नति भी देखी जाती है । एकरूपमें - सर्वथा शाश्वत में परिवर्तन नहीं होता अत एव उसे अशाश्वत भी मानना चाहिए।