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________________ विषय प्रवेश सत्य, और दूसरों के मत, दर्शन या पक्षको मिथ्या मानने का जो कदाग्रह था, उसका निरास करके उन मतों को एक नयारूप दिया है । प्रत्येक मतवादी कदाग्रही हो कर. दूसरे के मतको मिथ्या बताते थे, वे समन्वय न कर सकने के कारण एकान्तवाद में ही फसते थे। भ. महावीरने उन्हींके मतों को स्वीकार करके उनमें से कदाग्रह का विष निकालकर सभी का समन्वय करके अनेकान्तवादरूपी संजीवनी महौषधिका निर्माण किया है। दार्शनिक दृष्टिकोण संकुचित न होकर विशाल होना चाहिए । जितने भी धर्म वस्तु में प्रतिभासित होते हो, उन सबका समावेश उस दृष्टि में होना चाहिए । यह ठीक है कि हमारा दृष्टिकोण किसी समय किसी एक धर्म पर विशेष भार देता है, किसी समय किसी दूसरे धर्म पर । इतना होते हुए भी यह नहीं कहा जा सकता है कि वस्तु में अमुक धर्म है और कोई धर्म नहीं। वस्तु का पूर्ण विश्लेषण करने पर प्रतीत होगा कि वास्तव में हम जिन धर्मों का निषेध करना चाहते हैं वे सब धर्म वस्तु में विद्यमान है। इसी दृष्टिको सामने रखते हुए वस्तु अनन्तधर्मात्मक कही जाती है। वस्तु स्वभाव से ही ऐसी है कि उसका अनेक दृष्टियों से विचार किया जा सकता है और अनेक दृष्टियों से विचार करने पर ही वस्तु के यथार्थ ज्ञान या पूर्णज्ञान की ओर अग्रसर हुआ जा सकता है। इस दृष्टि का नाम ही अनेकान्तवाद है। सत्रहवीं सदी में पाश्चात्य राष्ट्रों में लीबनट्स नामक विचारक ने भी अनेकांतवाद से ही मिलता-जुलता अभिमत प्रस्तुत किया तो सब चकित रह गये । उसका कथन यों था- "इस दुनिया में जो जड़ है वह कदापि सत्य नहीं हो सकता विश्व तो चेतनामय है । यहाँ अनेक चेतनायुक्त प्राणी है । चेतनायुक्त जीवों से जो कुछ भी किया जाता है वही सत्य है। परंतु संपूर्ण चेतनामय स्थिति में जो आत्मा है वही परमात्मा है । और उसी परमात्मा से इस विश्व में सामरस्य की स्थापना हुई है ।' उनीसवीं शताब्दी में यूरोप में मैक्सगर्ट नामक चिंतक ने भी गहन चिंतन के बाद अनेकांतवाद की प्रतिपादना की। उसने अपने इस अभिप्राय का समर्थन करते हुए कहा- "इस विश्व में जितनी भी वस्तुएँ हैं वे सब इस विश्व के ही अंग है । इस विश्व का सत्य भावनाप्रधान तथा चेतनामय है।" ___ 'मैक्सगर्ट" तो एक वैज्ञानिक (साइंटिस्ट) था। अतः उसने जो कुछ
SR No.002458
Book TitleSamanvay Shanti Aur Samatvayog Ka Adhar Anekantwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherParshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan
Publication Year1999
Total Pages124
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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