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स्याद्वाद, सप्त- भंगी, नयवाद, प्रमाण
नय-वाद
मानव का स्वस्थ एवं व्यापक दृष्टिकोण ही उसे सत्य की ओर ले जाता है । सत्य - विशाल, व्यापक, अनन्त और अखण्ड होता है । परन्तु सामान्यतः मानव का परिमित ज्ञान उसे सम्पूर्ण रूप में जान नहीं पाता । खण्ड रूप में अथवा अनेक अंशों में ही वह वस्तु का परिबोध कर पाता है । सत्य के परिज्ञान के लिए, किंवा ज्ञात सत्य को जीवन के समतल पर उतारने के लिए, व्यापक दृष्टिकोण की आवश्यकता ही नहीं, अनिवार्यता भी है
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व्यष्टि, समष्टि और परमेष्ठी - जीवन विकास की यह क्रम - पद्धति है । जैन- दर्शन की सत्योन्मुखी अनेकान्त दृष्टि, जैन-धर्म का सर्व-सहिष्णु अहिंसासिद्धान्त, और जैन - परम्परा का चिरागत समन्वयवाद - ये तीनों मिलकर एक ही कार्य करते हैं । और वह कार्य यह है कि - व्यष्टि अपनी क्षुद्र सीमा में कैद न हो जाए, समष्टि व्यक्ति के विकास मार्ग में चट्टान बनकर उसके विकास को अवरुद्ध न करें, अपितु एक-दूसरे से समझोता करके दोनों परमेष्ठी के रूप में परिणीत हो जाएँ, परम ज्योति बन जाएँ ।
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वस्तु तत्त्व इस शुभंकर एवं सर्व हितंकर विशाल दृष्टिकोण को जीवन में ढ़ालने से पूर्व वस्तु तत्त्व के स्वरूप को समझ लेना भी आवश्यक है। चेतन-अचेतनमय इस जगत की प्रत्येक वस्तु सत् है, शाश्वत है और अनन्त है । प्रत्येक वस्तु अनन्त गुण-धर्मों का अखण्ड पिण्ड है । वह कभी नहीं रहीयह नहीं कहा जा सकता । वह कभी नहीं रहेगी- यह नहीं कहा जा सकता । वह नहीं है - वह भी नहीं कहा जा सकता । कहा यह जाएगा कि - "वह 3 थी, वह है और वह रहेगी ।" वृत्त, वर्तमान और वर्तिष्यमाण - इन तीनों कालों में कभी उसका अभाव नहीं होता ।
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तो वस्तु सत् है, शाश्वत है और नित्य है परन्तु कूटस्थ नित्य नहीं, मी नित्य है। क्योंकि प्रत्येक वस्तु में प्रतिक्षण पूर्व पर्याय का विगम और उत्तर - पर्याय का उत्पाद होता रहता है ।
अस्तु, द्रव्य-दृष्टि से नित्य है, विगम और उत्पाद की दृष्टि से, अर्थात्पर्याय- दृष्टि से परिणामी प्रतिक्षण बदलने वाली भी है। कनक के कंगन को