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चार आधार, पाँच कारण इत्यादि का ध्यान रखना चाहिये, इसमें भी अपने विवेक व बुद्धि का उपयोग अवश्य करना चाहिये।
चौथा आधार - 'भाव' । भाव शब्द का अर्थ वस्तु के गुण धर्म से है। उदाहरण के तौर पर रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, आदि सभी भाव में आ जाते हैं । संक्षिप्त में वस्तु के गुण शक्ति और परिणाम को भाव कहने में आता है। अंग्रेजी में इसे quality and Functions of the Substance कहते हैं । यह सभी गुण धर्म समय समय पर परिवर्तित होते रहते हैं।
भाव प्रत्येक का अपना स्व-भाव है जो भिन्न-भिन्न होता है। एक वस्तु के स्वभाव की दूसरी वस्तु के स्वभाव से समानता हो सकती है किन्तु सम्पूर्ण रूप से एकता नहीं हो सकती है। प्रत्येक वस्तु का अपना भाव-स्वभाव होता है जो निरन्तर परिवर्तनशील है। हमें जब भाव की अपेक्षा से किसी वस्तु का निर्णय करना हो तो जिस वस्तु का निर्णय करना हो उसी वस्तु के गुणधर्मों को लक्ष्य में रखना चाहिये । उदाहरण के तौर पर काला अथवा लाल ये घडे का भाव है अथवा उष्णता अग्नि का और शीतलता पानी का भाव हैं ।
जैन तत्त्वज्ञानिओंने घडे का उदाहरण दिया है । उसमें मिट्टी उसका 'द्रव्य' है, जहां पर बनाया गया हो या. रखा गया हो वह उसका 'क्षेत्र', है जब बना हो अथवा जिस समय उसे रखा गया हो वह उसका 'काल' है तथा काला तथा लाल रंग यह उसका 'भाव' है।
दूसरी महत्त्वपूर्ण वस्तु यह है इन चारों अपेक्षाओं के 'स्व' और 'पर' ये दो विभाग है सप्तभंगी के पहले दो पदों में 'है' और 'नहीं हैं ऐसे दो विधान किये हुए है। ये विधान 'स्व' और 'पर' की अपेक्षाओं से किये गए हैं। 'स्व' अर्थात अपना और 'पर ' अर्थात् ' अपना नहीं' । इसलिये जब अपेक्षा की बात की जाती है तब वह दो प्रकार से होती हैं-एक तो 'स्व-द्रव्य, स्व-क्षेत्र, स्व-काल, और स्व-भाव' और दूसरा 'पर-द्रव्य, पर-क्षेत्र, पर-काल और परभाव'। इस प्रकार प्रत्येक वस्तु का निर्णय करने में कुल आठ अपेक्षाएं होती
है।