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________________ ३६ समन्वय, शान्ति और समत्वयोग का आधार अनेकान्तवाद 1 के पीछे कारण के रूप में 'भवितव्यता' का प्रमुख भाग होता है । यहाँ पर यह ध्यान रखने योग्य है कि किसी भी कार्य के पीछे भवितव्यता को अकेला तथा स्वतन्त्रत कारण के रूप में जैन दार्शनिकों ने स्वीकार नहीं किया है। 1 एक बात और जो ध्यान देने योग्य है वह यह कि जहाँ चार कारण साथ मिलकर किसी एक कार्य को नहीं कर सकते वहाँ पर ही 'नियति' आती है, ऐसा नहीं है । प्रत्येक कार्य में पाँचों कारण सम्मिलित होकर सामान्यतया कार्य करते हैं । किन्तु प्रत्येक कार्य में भिन्न-भिन्न अपेक्षा से कोई कारण मुख्य रूप से कार्य करता है जबकि दूसरे उसमें गोण रूप से उपस्थित रहते हैं। यदि नियति को ही एक मात्र कारण माना जाय तो कर्म और पुरुषार्थ की बात पूर्ण रूप से समाप्त हो जाती है । इसीलिये जैन तत्त्वज्ञानी भवितव्यता को पाँच में से एक कारण ही मानते हैं । ( ४ ) कर्म जैन और हिन्दी परिभाषा में 'कर्म' शब्द विभिन्न अर्थों में प्रयुक्त हुआ हैं। जैन परिभाषा 'मन-वचन-काया' कहती है, जब कि हिन्दु परिभाषा में 'मन-वाणी और कर्म' का कथन है। काया से होने वाली क्रिया है- स्थूल कर्म । मन और वाणी से होनी वाली स्थूल सूक्ष्म क्रिया भी कर्म है। जैन धर्म में 'कर्म' शब्द पारिभाषिक दृष्टि से 'बन्धन' के अर्थ में प्रयुक्त है, क्रिया या कार्य शब्द से कर्म के अर्थकी अभिव्यक्ति की जाती है। कर्म के सर्वथा बिना क्षय किये बंधन में से मुक्ति नही है ऐसा जैन दर्शन का कथन है । वहाँ कर्म का अर्थ कार्य या कर्त्तव्य न करते हुए पारिभाषिक लिया गया है । मन, वचन और काया के शुभाशुभ उपयोग द्वारा कर्मणा के पुद्गल परमाणुओं को आत्मा अपनी ओर खींचती है और वे परमाणु आत्मप्रदेशों में चिपक जाते हैं इस प्रक्रिया को जैन दर्शन 'कर्म बंधन' कहता है, बिना राग और द्वेष किये मन, वचन और काया के द्वारा यदि कार्य या क्रिया की जाय तो अध्यवसाय के अनुसार कर्मबंध होगा । इस दृष्टि से कर्म शब्द जैन दर्शन में विशिष्ट पारिभाषिक अर्थ में प्रयुक्त हुआ है I - नमस्कार महामन्त्र में अष्ट कर्म रहित सिद्धदेव से पहले, कर्मचतुष्टयपरहित अरिहन्त देव को 'नमो अरिहंताणं' पद से प्रणाम किया गया है, क्योंकि
SR No.002458
Book TitleSamanvay Shanti Aur Samatvayog Ka Adhar Anekantwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherParshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan
Publication Year1999
Total Pages124
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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