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चार आधार, पाँच कारण
३७ अरिहन्तदेव महान कर्मयोगी होते हैं । उनके बाद 'नमो सिद्धाणं' पद से सिद्ध देव को प्रणाम किया गया है। क्योंकि सिद्धावस्था में यद्यपि आत्मा शुद्धतम हो जाती है, फिर भी 'कर्मयोग' नही होता है इससे सिद्ध होता है कि कर्मयोग व्यक्ति को सिद्धदेव से भी प्रथम वन्दनीय बनाता है । इससे बढकर कर्मयोग की महत्ता के लिये कौन सा प्रमाण हो सकता है। जैन दर्शन में कर्म सम्बन्धी विचार सूक्ष्म, व्यवस्थित और अतिविस्तृत है। कर्म शास्त्र को जैन साहित्य का हृदय कहना चाहिये।
धन, शरीर आदि बाह्य विभूतियों में आत्म-बुद्धि करना, अर्थात् जड में अहंत्व करना, बाह्य दृष्टि है । इस अभेद-भ्रम को बहिरात्मभाव सिद्ध करके उसे छोड़ने की शिक्षा, कर्म-शास्त्र देता है। जिनके संस्कार केवल बहिरात्मभावमय हो गए हैं उन्हें कर्म-शास्त्र के उपदेश भले ही रूचिकर न हो, परन्तु इससे उसकी सच्चाई में कुछ भी अन्तर नहीं पड सकता । .. शरीर और आत्मा के अभेद भ्रम को दूर करा कर, उस के भेद-ज्ञान को (विवेक-ख्याति को) कर्म-शास्त्र प्रकटाता है । इसी समय से अन्तर्दृष्टि खुलती है। अन्तर्दृष्टि के द्वारा अपने में वर्तमान परमात्म-भाव देखा जाता है। परमात्मभाव को देखकर उसे पूर्णतया अनुभव में लाना, यह जीव शिव (ब्रह्म) होना है । इसी ब्रह्म-भाव को व्यक्त, कराने का काम कुछ और ढंग से ही कर्मशास्त्र ने अपने पर ले रखा है। क्योंकि वह अभेद-भ्रम से भेद ज्ञान की तरफ झुकाकर, फिर स्वाभाविक अभेदध्यान की उच्च भूमिका की ओर आत्मा को खींचता है। बस उसका कर्तव्य-क्षेत्र उतना ही है। साथ ही योग-शास्त्र के मुख्य प्रतिपाद्य अंश का वर्णन भी उसमें मिल जाता है। इसलिए यह स्पष्ट है कि कर्मशास्त्र, अनेक प्रकार के आध्यात्मिक शास्त्रीय विचारों की खान है। वही उसका महत्व है ।
नीचे के श्लोक में यही चीज कही गई है । क्ष्माभृककयोर्मनीषिजडयोः सद्रूपनीरूपयोः । श्रीमदुर्गतयो बलाबलवतोर्नीरोगातयोः । सौभाग्यासुभगत्वसंगमजुषो तुल्येऽपि नृत्वेऽन्तरं,