Book Title: Jain Hiteshi 1916 Ank 09 10
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay
Catalog link: https://jainqq.org/explore/522828/1

JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLY
Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाग नहिते मो सितंबर अक्टूबर १९१६ सं०- नाथूराम प्रेमी । 綠 २२-२०१ 3 जैन समाज । तीर्थक्षेत्रोंके झगड़े, स्त्रियोंकी अज्ञानमय- दुःखमय दशा, शास्त्रोंकी रक्षा और प्रचारके काममें लापरवाही और अगु ओंकी 'भेड़ियाधसान' बुद्धिके अन्धेर; ये सब बातें देखकर शासनदेवी धनवानों, पण्डितों और बाबुओंको सम्मिलित शक्तिसे उद्योग करनेके लिए समझा रही है। Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-सूची। नियमावली। १. वार्षिक मूल्य उपहारसहित ३) तीन रुपया पेशगी है। वी.पी. तीन रुपया एक आनेका भेजा जाता है। २. उपहारके बिना भी तीन रुपया मूल्य है। १ भद्रबाहु-संहिता ( ग्रन्थपरीक्षा )- ३. ग्राहक वर्षके आरंभसे किये जाते हैं और वीचसे लेखक, श्रीयुत वाबू जुगलकिशोरजी अर्थात् ७ वें अंकसे । बीचसे ग्राहक होनेवालोंको मुख्तार। ... ... . ४२१ उपहार नहीं दिया जाता। आधे वर्षका मल्य २ पुस्तक-परिचय ... ४४२ ११) रु. है। ५. प्रत्येक अंकका मूल्य पाँच आने है। ३शारदागम ( कविता )-ले०, श्रायुत ५. सब तरहका पत्रव्यवहार इस पतसे करना चाहिए। पं० रामचरित उपाध्याय। ... 1. ४४५ जना मैनेजर-जैनग्रन्थरत्नाकर कार्यालय. ४ राजनीतिके मैदान में आओ-ले०, श्रीयुत व्र० भगवानदीन । ... ४४६ हीराबाग, पो० गिरगांव-बंबई। ५ जैनधर्मके पालनेवाले वैश्य ही प्रार्थनाय । क्यों? १. जैनहितैषी किसी स्वार्थबुद्धिसे प्रेरित होकर निजी ६ प्रार्थना ( कविता )-ले०, श्रीयुत पं० लाभके लिए नहीं निकाला जाता है। इसमें जो समय गिरिधर शर्मा। ... १५४ और शक्तिका व्यय किया जाता है वह केवल अच्छे ७ जैनधर्म और जैनदर्शन ... ४५५ विचारों के प्रचारके लिए । अतः इसकी उन्नतिमे ८ काश्मीरका इतिहास-ले०, श्रीयुत हमारे प्रत्येक पाठकको सहायता देनी चाहिए। बाबू सुपार्शदास जैन बी. ए.। ... ४६४ २. जिन महाशयों को इसका कोई लेख अच्छा मालूम ९पतितोद्धार ( कविता)-ले०, श्रीयुत हो उन्हें चाहिए कि उस लेखको जितने मित्रोंको वे पढ़कर सुना सकें अवश्य सुना दिया करें। ब्र० विश्वंभरदास गार्गीय ... ४६८ ३. यदि कोई लेख अच्छा न मालूम हो अथवा विरुद्ध १० सूक्तमुक्तावली और सोमप्रभा मालम हो तो केवल उसीके कारण लेखक या चार्य-ले०, श्रीयत मुनि जिनविजयजी ४६९ सम्पादकसे द्वेष भाव न धारण करने के लिए सवि११ माताका पुत्रको जगाना ( कविता) नय निवेदन है। ___ ले, श्रीयुत पं० रामचस्ति उपाध्याय ४७७ ४. लेख भेजनेके लिए सभी सम्प्रदायके लेखकोंकों १२ सार्वजनिक धनकी जिम्मेवारी ४७९ आमंत्रण है। -सम्पादक। १३ बालविवाह-ले, श्रीयुत ठाकुर शिव दूसरे उपहारकी सूचना । नन्दनसिंह बी. ए. ... ४८६ दसरा उपहार अभीतक नहीं दिया गया, इसका १४ युवकोंके प्रति ( कविता ) ... ४९५ कारण यह है कि जिन लेखक महाशयने उसे लिख १५ सम्मानित (गल्प)-ले. श्रीयुत पं० देना कहा है वे अवकाशाभावके कारण अब तक ___ ज्वालादत्त शर्मा ... ... ४९६ लिख नहीं सके हैं। तकाजा किया जा रहा है। ज्यों १६ विविध प्रसङ्ग ... ... ५०४ ही वे लिख देंगे, त्यांही उसके छानेका प्रबन्ध कर १७ तीर्थों के झगड़े मिटानेकाआन्दोलन५०९ दिया जायगा । कागज खरीदा हुआ रक्खा है । एक १८ भारतमें जैनसमाजकी अवस्था ५१९ धर्मात्मा सजनने इस पुस्तक छपानेका पूरा खर्च देनेकी स्वीकारता दे दी है। माला न मालूम हो अथवा विरुद्ध चाय-ले०, श्रीयुत मुनि जिनकि For Personal & Private Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवाँ भाग । अंक ९-१० हितं मनोहारि च दुर्लभ वचः । जैनहितैषी । RARARARARARARARARA सारे ही संघ सनेहके सूतसौं, संयुत हों, न रहै कोउ द्वेषी । प्रेमसौंपा स्वधर्म सभी, रहें सत्य के साँचे स्वरूप गवेषी ॥ बैर विरोध न हो मतभेदतैं, हों सबके सब बन्धु शुभैषी । भारत के हित को समझें सब, चाहत है यह जैनहितैषी ॥ ENBUCNBNOVYUOND भद्रबाहु -संहिता । ( ग्रन्थ- परीक्षा-लेखमालाका चतुर्थ लेख । ) [ ले०-श्रीयुत बाबू जुगलकिशोरजी मुख्तार ] जैन समाजमें, भद्रबाहुस्वामी एक बहुत प्रसिद्ध आचार्य हो गये हैं । आप पाँचवें श्रुतकेवली थे । श्रुतकेवली उन्हें कहते हैं जो संपूर्ण द्वादशांग श्रुतके पारगामी हों - उसके अक्षर अक्षरका जिन्हें यथार्थ ज्ञान हो । दूसरे शब्दों में यों कहना चाहिए कि तीर्थंकर भगवानकी दिव्य ध्वनि द्वारा जिस' ज्ञान-विज्ञानका उदय होता है उसके अविकल ज्ञाताओंको श्रुतकेवली कहते हैं । आगम में संपूर्ण पदार्थों के जाननेमें केवली और श्रुतकेवली दोनों ही समान रूपसे निर्दिष्ट हैं । भेद है १-२ भाद्र, आश्विन २४४२ सितम्बर, अक्टू०१९१६. सिर्फ प्रत्यक्ष-परोक्षका या साक्षात् - असाक्षात्का । केवली अपने केवलज्ञान द्वारा संपूर्ण पदार्थों को प्रत्यक्ष रूपसे जानते हैं और श्रुतकेवली अपने स्याद्वादालंकृत श्रुतज्ञान द्वारा उन्हें परोक्ष रूप से अनुभव करते हैं। जैसा कि स्वामि समन्तभद्रके इस वाक्यसे प्रगट है: स्याद्वादकेवलज्ञाने सर्वतत्त्वप्रकाश | भेदः साक्षादसाक्षाच्च ह्यवस्त्वन्यतमं भवेत् ॥ १० ॥ -आप्तमीमांसा । जैनियोंको, भद्रबाहुकी योग्यता, महत्ता, और For Personal & Private Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२२ जैनहितैषी - सर्वमान्यता आदिके विषय में इससे अधिक परिचय देनेकी जरूरत नहीं है । वे भद्रबाहुके द्वारा संपूर्ण तत्त्वोंकी प्ररूपणाका उसी प्रकार अविकल रूपसे होते रहना मानते हैं जिस प्रकार कि वह वीर भगवानकी दिव्यध्वनि द्वारा होती रही थी और इस दृष्टिसे भद्रबाहु वीर भगवान के तुल्य ही माने और पूजे जाते हैं । इससे पाठक समझ सकते हैं कि जैनसमाजमें भद्रबाहुका आसन कितना अधिक ऊँचा है । ऐसे महान् विद्वान् और प्रतिभाशाली आचार्यका बनाया हुआ यदि कोई ग्रंथ उपलब्ध हो जाय तो वह निःसन्देह बड़े ही आदर और सत्कारकी दृष्टिसे देखे जाने योग्य है और उसे जैनियों का बहुत बड़ा सौभाग्य समझना चाहिए । अस्तु; आज इस लेख द्वारा जिस ग्रंथकी परीक्षाका प्रारंभ किया जाता है उनके नामके साथ ' भद्रबाहु ' का पवित्र नाम लगा हुआ है। कहा जाता है कि यह ग्रंथ भद्रबहुश्रुतवलीका बनाया हुआ है । ग्रन्थ-प्राप्ति । जिस समय सबसे पहले मुझे इस ग्रंथ के शुभ नामका परिचय मिला और जिस समय ( सन् १९०५ में ) पंडित गोपालदासजीने इसके 'दाय - भाग' प्रकरणको अपने 'जैनमित्र' पत्रमें प्रकाशित किया उस समय मुझे इस ग्रंथके देखनेकी बहुत उत्कंठा हुई । परन्तु ग्रंथ न मिलने के कारण मेरी वह इच्छा उस समय पूरी न हो सकी। साथ ही, उस वक्त मुझे यह भी मालूम हुआ कि अभीतक यह ग्रंथ किसी भंडारसे पूरा नहीं मिला । महासभा के सर - स्वतीभंडारमें भी इसकी अधूरी ही प्रति है । इसके बाद चार पाँच वर्ष हुए जब ऐलक पन्नालालजीके द्वारा झालरापाटनके भंडारसे इस ग्रंथकी यह प्रति निकाली गई और ब्रह्मचारी शीतलप्रसादजी के द्वारा, जैनमित्रमें, इस पूरे ग्रंथके मिल जानकी घोषणा की गई और इसके अध्यायोंकी विषय-सूचीका विवरण देते हुए सर्व साधारण पर ग्रंथका महत्त्व किया गया, तब मेरी वह ग्रंथावलोकनकी इच्छा और भी बलवती हो उठी और मैंने निश्चय किया कि किसी न किसी प्रकार इस ग्रंथको एकबार परीक्षा- दृष्टिसे जरूर देखना चाहिए। झालरा - पाटनकी उक्त प्रतिको, उसपर से कई प्रतियाँ करा कर ग्रंथका प्रचार करने के लिए, ऐलक पन्नालालजी अपने साथ ले गये थे । इस लिए उक्त ग्रंथका सहसा मिलना दुर्लभ हो गया । कुछ समके बाद जब उन प्रतियोंमेंसे एक प्रति मोरेनामें पं० गोपालदासजीके पास पहुँच गई तब, समाचार मिलते ही, मैंने पंडितजीसे उसके भेजनेके लिए निवेदन किया । उत्तर मिला कि आधा ग्रंथ पं० धन्नालालजी बम्बई ले गये है और आधा यहाँपर देखा जा रहा है । अन्तको, बम्बई, और मोरेना दोनों ही स्थानोंसे ग्रंथकी प्राप्ति नहीं हो सकी । मेरी उस प्रबल इच्छाकी पूर्ति में इस प्रकारकी बाधा पड़ती देखकर बाबा भागीरथजी वर्णीके हृदयपर बहुत चोट लगी और उन्होंने अजमेर जाकर सेठ नेमिचंदजी सोनीके लेखक द्वारा, जो उससमय भद्रबाहुसंहिता की प्रतियाँ उतारनेका ही काम कर रहा था, एक प्रति अपने लिए करानेका प्रबंध कर दिया। बहुत दिनोंके इन्तजार और लिखा पढ़ीके बाद वह प्रति देहलीमें बाबाजीके नाम वी. पी. द्वारा आई, जिसको लाला जग्गीमलजीने छुड़ाकर पहाड़ी के मंदिरमें विराजमान कर दिया और आखिर वहाँसे वह प्रति मुझको मिल गई। देखनेसे मालूम हुआ कि यह प्रति कुछ अधूरी है। तब उसके कमती भागकी पूर्ति तथा मिलानके लिए दूसरी पूरी प्रतिके मँगानेकी जरूरत पैदा हुई, जिसके लिए अनेक स्थानोंसे पत्रव्यवहार किया गया । इस For Personal & Private Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर सेठ हीराचंद नेमिचंदजी शोलापुरने, पत्र पाते ही, अपने यहाँकी प्रति भेज दी, जो कि इस ग्रंथका पूर्वखंड मात्र है और जिससे मिलानका काम लिया गया । परन्तु इससे कमती भागकी पूर्ति नहीं हो सकी । अतः झालरापानसे इस ग्रंथ की पूरी प्रति प्राप्त करनेका फिरसे प्रयत्न किया गया । अबकी बारका प्रयत्न सफल हुआ । गत जुलाई मासके अन्तमें श्रीमान् सेठ विनोदीराम बालचंदजीके फर्म के मालिक श्रीयुत सेठ लालचन्दजी सेठीने इस ग्रंथकी वह मूल प्रति ही मेरे पास भेज देने की कृपा की जिस परसे अनेक प्रतियाँ होकर हालमें इस संहिताका प्रचार होना प्रारंभ हुआ है और इस लिए सेठ साहबकी इस कृपा और उदारता के लिए उन्हें जितना धन्यवाद दिया जाय वह थोड़ा है जिन जिन महानुभावोंने मेरी इस ग्रंथावलोकनकी इच्छाको पूरा करनेके लिए ग्रंथ भेजने - भिजवाने आदि द्वारा मेरी सहायता की है उन सबका मैं हृदय से आभार मानता हूँ । इस विषयमें श्रीयुत पं० नाथूरामजी प्रेमीका नाम खास तौरसे उल्लेख योग्य है और वे मेरे विशेष धन्यवादके पात्र हैं; जिनके खास उद्योगसे झालरा - पाटनकी मूल प्रति उपलब्ध हुई, जिन्होंने ग्रंथपरीक्षाकी सहायतार्थ अनेक ग्रंथों को खरीदकर भेजने तककी उदारता दिखलाई और जिनकी कोशिश से एक अलब्ध ग्रंथकी दक्कन कालिज यूनाकी लायब्रेरीसे भी प्राप्ति हुई । इस प्रकार ग्रंथ-प्राप्तिका यह संक्षिप्त इतिहास देकर अब मैं प्रकृत विषयकी ओर झुकता हूँ: । परीक्षाकी जरूरत । cars-संहिता । भद्रबाहु श्रुतवलीका अस्तित्व समय वीर निर्वाण संवत् १३३ से प्रारंभ होकर संवत् १६२ पर्यंत माना जाता है । अर्थात् विक्रम संवतसे ३०८ वर्ष पहले और ईसवी सन से ४२३ ३६५ वर्ष पहले तक भद्रबाहु मौजूद थे और इसलिए भद्रबाहुको समाधिस्थ हुए आज २२८१ वर्ष हो चुके हैं। इस समय से २९ वर्ष पहले के किसी समय में ( जो कि भद्रबाहु के श्रुतकेवली रहनेका समय कहा जाता है ) भद्रबाहु श्रुतकेवली द्वारा इस ग्रंथकी रचना हुई है, ऐसा कुछ विद्वानोंका अनुमान और कथन है । ग्रंथमें, ग्रंथके बनने का कोई सन् संवत् नहीं दिया और न ग्रंथकर्ता की कोई प्रशस्ति ही लगी हुई है । परंतु ग्रंथकी प्रत्येक सन्धिमें, ' भद्रबाहु ' ऐसा नाम जरूर लगा हुआ है; मंगलाचरणमें ' गोवर्धनं गुरुं नत्वा' इस पद के द्वारा गोवर्धन गुरुका, जो कि भद्रबाहु श्रुतकेवली के गुरु थे, नमस्कारपूर्वक स्मरण किया गया है; कई स्थानों पर मैं भद्रबाहु सुनि ऐसा कहता हूँ या कहूँगा ' इस प्रकारका उल्लेख पाया जाता है; और एक स्थानपर “ भद्रबाहुरुवाचेदं पंचमः श्रुतकेवली + ' यह वाक्य भी दिया है । इसके सिवाय ग्रंथमें कहीं कहींपर किसी कथन के सम्बंध में इस प्रका रकी सूचना भी की गई है कि वह कथन भद्रबाहु श्रुतकेवलीका या द्वादशांगके जाननेवाले भद्रबाहुका है । इन्हीं सब बातोंके कारण जैन समा जके वर्तमान विद्वानोंका उपर्युक्त अनुमान और कथन जान पड़ता है। परन्तु सिर्फ इतने परसे ही इतना बड़ा भारी अनुमान कर लेना बहुत बड़े साहस और जोखमका काम है । खासकर ऐसी हालत और परस्थितिमें जब कि इस प्रकारके अनेक ग्रंथ जाली सिद्ध किये जा चुके हों । जाली ग्रंथ बनानेवालोंके लिए इस प्रकारका खेल कुछ भी मुश्किल हाँ होता और इसका " । + खंड ३ अध्याय लोक १० का पूर्वार्ध । For Personal & Private Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२४ ammmmmmmm जैनहितैषीCARTOOTEmitTTERRDESH दिग्दर्शन पहले तीन ग्रंथोंपर लिखे गये परीक्षा- की जाय और ग्रंथके साहित्यकी जाँच द्वारा लेखोंद्वारा भले प्रकार कराया जा चुका है+। भ- यह मालूम किया जाय कि यह ग्रंथ वास्तवमें कब द्रबाहुको हुए आज २३ सौ वर्षका लम्बा चौड़ा बना है और इसे किसने बनाया है । इसी लिए समय बीत गया। इस अर्सेमें बहुतसे अच्छे अच्छे आज पाठकोंका ध्यान इस ओर आकर्षित किया विद्वान् और माननीय आचार्य होगये; परन्तु जाता है । उनमेंसे किसीकी भी कृतिमें इस ग्रंथका नामोल्लेख ग्रन्थकी विलक्षणता। तक नहीं मिलता और न किसी प्राचीन शिलालेखमें ही इस ग्रंथका उल्लेख पाया जाता है। जिस समय इस ग्रन्थको परीक्षा-दृष्टिसे श्रुतकेवली जैसे आदर्श पुरुष द्वारा रचे हुए एक अवलोकन करते हैं उस समय यह ग्रन्थ ऐसे ग्रंथका, जिसका अस्तित्व आजतक चला बड़ा ही विलक्षण मालूम होता है । इस ग्रंथमें आता हो, बादको होनेवाले किसी भी माननीय तीन खंड हैं-१ पूर्व, २ मध्यम, ३ उत्तर प्राचीन आचार्यकी कृतिमें नामोल्लेख तक न और श्लोकोंकी संख्या लगभग सात हजार है। होना संदेहसे खाली नहीं है। साथ ही, श्रवण- परंतु ग्रंथके अन्तमें जो १८ श्लोकोंका ' अन्तिम बेल्गोलके श्रीयुत पंडित दौर्बलि जिनदास शास्त्री- वक्तव्य ' दिया है उसमें ग्रन्थके पाँच खंड बतजीसे मालूम हुआ कि उधर दक्षिणदेशके भंडा- लाये हैं और श्लोकोंकी संख्या १२ हजार सूचित रोंमें भद्रबाहुसंहिताकी कोई प्रति नहीं है और की है । यथाःन उधर पहलसे इस ग्रंथका नाम ही सुना जाता प्रथमा व्यवहाराख्यो ज्योतिराख्यो द्वितीयकः । है। जिस देशमें भद्रबाहुका अन्तिम जीवन तृतीयोपि निमित्ताख्यश्चतुर्थोपि शरीरजः ॥ १॥ व्यतीत हुआ हो, जिस देशमें उनके शिष्यों पंचमोपि स्वराख्यश्च पंचखंडैरियं मता । और प्रशिष्योंका बहुत बड़ा संघ लगभग १२ द्वादशसहस्रप्रमितासंहितेयं जिनोदिता ॥२॥ वर्षतक रहा हो, जहाँ उनके शिष्यसम्प्रदायमें अन्तिम वक्तव्य अन्तिम खंडके अन्तमें होना अनेक दिग्गजविद्वानों की शाखा प्रशाखायें फैली चाहिए था; परन्तु यहाँपर तीसरे खंडके अन्तमें हों और जहाँपर धवल, महाधवल आदि ग्रन्थाको दिया है। चौथे पाँचवें खंडोंका कछ पता नहीं, सुरक्षित रखनेवाले मौजूद हों, वहाँपर उनकी, और न उनके सम्बंधमें इस विषयका कोई अद्यावधिपर्यंत जीवित रहनेवाली, एक मात्रसंहि- शब्द ही लिखा है । किसी ग्रंथमें तीन खंडाके ताका नामतक सुनाई न पड़े, यह कुछ कम आश्च- हानेपरही उनका पूर्व, मध्यम और उत्तर इस प्रकापनी बात नहीं है। ऐसा होना कुछ अर्थ रखता है रका विभाग ठीक हो सकता है, पाँच खंडोंकी और वह उपेक्षा किये जानेके योग्य नहीं है । इन हालतमें नहीं । पाँच खंडोंके होनेपर दूसरे खंडको सब कारणोंसे यह बात बहुत आवश्यक जान पड़ती मध्यम ' और तीसरेको 'उत्तरखंड' कहना है कि इस ग्रंथ ( भद्रबाहुसंहिता) की परीक्षा ठीक नहीं बैठता । पहले और अन्तके खंडाके बीचमें रहनेसे दूसरे खंडको यदि 'मध्यमखंड' + इससे पहले उमास्वामि-श्रावकाचार, कुन्द-कुन्दश्रावकाचार और जिनसेन-त्रिवर्णाचार ऐसे तनि कहा जाय तो इस दृष्टिसे तीसरे खंडको ग्रंथोंकी परीक्षा की जा चुकी है, जिनके पाँच परीक्षा- भी 'मध्यमखंड ' कहना होगा, 'उत्तरखंड ' लेख जैनहितैषीके १० वें भागमें प्रकाशित हुए हैं। नहीं । परन्तु यहाँपर पद्यमें भी तीसरे खंडको, For Personal & Private Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ComHOLESHOBHARA भद्रबाहु-संहिता । ४२५ उसके दस अध्यायोंकी सूची देते हुए, · उत्तर- खंडमें सिर्फ 'ऋषिपुत्रिका ' और 'दीप' खंड'ही लिखा है। यथाः नामके दो अध्याय ही ऐसे हैं जिनमें 'निमित्त' ग्रहस्तुतिः प्रतिष्टां च मूलमंत्रर्षिपुत्रिके। का कथन है। बाकीके आठ अध्यायोंमें दूसरी शास्तिचक्रे क्रियादीपे फलशान्ती दशोत्तरे ॥८॥ ही बातोंका वर्णन है । इससे पाठक सोच इसलिए खंडोंका यह विभाग समुचित प्रतीत सकते हैं कि इस खंडका नाम कहाँतक 'निमित्तनहीं होता। खंडोंके इस विभाग-सम्बंधमें एक खंड ' हो सकता है । रही दूसरे खंडकी बात । बात और भी नोट किये जाने योग्य है और वह इसमें १ केवलकाल, २ वास्तुलक्षण, ३ दिव्येन्दुयह है कि इस ग्रंथमें पूर्व खंडकी संधि देनेके संपदा, ४ चिह्न और ५ दिव्योषधि नामके पाँच पश्चात्, दूसरे खंडका प्रारंभ करते हुए, “अथ अध्याय तो ऐसे हैं जिनका ज्योतिषसे प्रायः कुछ भद्रबाह-संहितायां उत्तरखंडः प्रारभ्यते, सम्बंध नहीं और 'उल्का' आदि २६ अध्याय ग्रह वाक्य दिया है और इसके द्वारा दूसरे खंडको तथा शकुन ( स्वरादि द्वारा शुभाशुभज्ञान ), 'उत्तरखंड' सचित किया है; परन्त खंडके अन्तमें लक्षण और व्यंजन नामके कई अध्याय ऐसे हैं उसे वही 'मध्यमखंड ' लिखा है। हो सकता जो निमित्तसे सम्बंध रखते हैं और उस अष्टांग है कि ग्रंथकर्ताका ग्रंथमें पहले दो ही खंडोंके निमित्तमें दाखिल हैं जिसके नाम 'राजवार्तिक' रखनेका विचार हो और इसी लिए दूसरा खंड में इस प्रकार दिये हैं:शुरू करते हुए उसे 'उत्तरखंड' लिखा हो. परन्त अंतरिक्ष-भौमांग-स्वर-स्वप्न-लक्षण-व्यंजन-छिन्नानि बादको दूसरा खंड लिखते हुए किसी समय वह । अष्टौमहानिमित्तानि । विचार बदलकर तीसरे खंडकी जरूरत पैदा हुई इस खंडके शुरूके २६ अध्यायोंको उनकी हो और इस लिए अन्तमें खंडको 'मध्यमखंड , संधियोंमें दिये हुए ‘भद्रबाहुके निमित्त ' इन करार दिया हो और पहले जो उसके लिए शब्दों द्वारा निमित्ताध्याय सूचित भी किया है। * उत्तरखंड ' पद लिखा गया था उसका सुधार शेषके अध्यायोंमें एक अध्याय (नं. ३०) करना स्मृतिपथसे निकल गया हो । कुछ भी का नाम ही 'निमित्त ' अध्याय है और उसके हो, पर इससे ग्रंथका अव्यवस्थितपना प्रगट होता र प्रतिज्ञा-वाक्यमें भी निमित्त कथनकी प्रतिज्ञा है। यह तो हुई खंडोंके साधारण विभागकी की गई है । यथाः- बात; अब उनके विषय-विभागकी अपेक्षा विशेष अथ वक्ष्यामि केषांचिनिमित्तानां प्ररूपणं । नामकरणको लीजिए । ऊपर उद्धृत किये हुए कालज्ञानादिभेदेन यदुक्तं पूर्वसूरिभिः ॥ १॥ श्लोक नं. १ में दूसरे खंडका नाम 'ज्योतिष ___ इस तरह पर इस खंडमें निमित्ताध्यायोंकी रखंड ' और तीसरेका नाम 'निमित्तखंड, दिया बहुलता है । यदि दो निमित्ताध्यायोंके होनेसे है जिससे यह सूचित होता है कि ये दोनों ही तीसरे खंडका नाम 'निमित्त ' खंड रक्खा विषय एक दूसरेसे भिन्न अलग अलग खंडोंमें गया है तो इस खंडका नाम सबसे पहले 'निमित्त रक्खे गये हैं। परंतु दोनों खंडोंके अध्यााँका किया गया। इस लिए खंडोंका यह नामकरण भी खंड ' रखना चाहिए था; परन्तु ऐसा नहीं पाठ करनेसे ऐसा मालूम नहीं होता। तीसरे समचित प्रतीत नहीं होता । यहाँ पर पाठकोंको १ तीसरे खंडके अन्तमें भी उसका नाम 'नि- यह जानकर और भी आश्चर्य होगा कि इस मित्तखंड ' लिखा है। खंडके शुरूमें निमित्तग्रंथके कथनके लिए ही For Personal & Private Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२६ AIITTEmmunicim प्रश्न किया गया है और उसीके कथनकी करता है कि ग्रंथमें पहलेसे कोई कथन चल प्रतिज्ञा भी की गई है । यथाः रहा है जिसके बादका यह प्रकरण है; परन्तु सुखग्राह्यं लंघुग्रंथं स्पष्टं शिष्यहितावहम् । ग्रंथमें इससे पहले कोई कथन नहीं है। सिर्फ सर्वज्ञभाषितं तथ्यं निमित्तं तु अवीहि नः ॥२-१-१४॥ मंगलाचरणके दो श्लोक और दिये हैं जो भवद्भिर्यदहं पृष्ये निमित्तं जिनभाषितम् । 'नत्वा ' और 'प्रणम्य ' शब्दोंसे शुरू होते समासव्यासतः सर्वे तन्निबोध यथाविधि ॥ -२-२॥ हैं और जिनमें कोई अलग प्रतिज्ञावाक्य नहीं ऐसी हालतमें इस खंडका नाम 'ज्योतिष- है। इस लिए इन दोनों श्लोकोंसे सम्बंध रखनेखंड कहना पूर्वापर विरोधको सूचित करता है। वाला यह 'अधुना' शब्द नहीं हो सकता। खंडोंके इस नामकरणके समान बहुतसे अध्या- परन्तु इसे रहने दीजिए और खास प्रतिज्ञा पर योंका नामकरण भी ठीक नहीं हुआ। उदाहर- ध्यान दीजिए । प्रतिज्ञामें संहिताका अभिधेयणके तौरपर तीसरे खंडके — फल ' नामके संहिताका उद्देश-वणे और आश्रमोंकी स्थितिको अध्यायको लीजिए। इसमें सिर्फ कुछ स्वमों बतलाना प्रगट किया है । इस अभिधेयसे दूसरे और ग्रहोंके फलका वर्णन है । यदि इतने परसे तीसरे खंडोंका कोई सम्बंध नहीं; खासकर ही इसका नाम 'फलाध्याय' रक्खा गया दसरा 'ज्योतिषखंड ' बिलकुल ही अलग हो तो इससे पहलेके स्वप्नाध्यायको और ग्रहाचार जाता है और वह कदापि इस वर्णाश्रमवती प्रकरणके अनेक अध्यायोंको फलाध्याय कहना संहिताका अंग नहीं हो सकता। दूसरे खंडके चाहिए था। क्योंकि उनमें भी इसी प्रकारका " शुरूमें, ' अथ भद्रबाहुसंहितायां उत्तरखंडः विषय है। बल्कि उक्त फलाध्यायमें जो ग्रहा- प्रारभ्यते' के बाद 'ॐनमः सिद्धेभ्यः, श्रीभचारका वर्णन है उसके सब श्लोक पिछले ग्रहा- दबाहवे नमः ये दो मंत्र देकर, ' अथ भद्रबाहुचारसंबंधी अध्यायोंसे ही उठाकर रक्खे गये हैं, र रक्ख गय है, कृत निमित्तग्रंथः लिख्यते । यह एक वाक्य तो भी उन पिछले अध्यायोंको फलाध्याय नाम, दिया है । इससे भी इस दूसरे खंडका अलग ग्रंथ नहीं दिया गया। इसलिए कहना पड़ता है कि होना पाया जाता है। इतना ही नहीं, इस खंडके यह नामकरण भी ठीक नहीं हुआ । इसके पहले अध्यायमें ग्रंथके बननेका सम्बंध (शिष्योंसिवाय ग्रंथके आदिमें मंगलाचरणपूर्वक जो का भद्रबाहुसे प्रश्न आदि ) और ग्रंथके ( दूसरे प्रतिज्ञा-वाक्य दिया है और जिसे संपूर्ण ग्रंथके ?' थक खंडके ) अध्यायों अथवा विषयोंकी सूची लिए व्यापक समझना चाहिए वह इस प्रकार है:- भी दी है जिससे इस खंडके भिन्न ग्रंथ गोवर्धनं गुरुं नत्वा दृष्ट्वा गौतमसंहिताम् । होनेकी और भी अधिकताके साथ पुष्टि वर्णाश्रमस्थितियुता संहिता वण्येतेऽधुना ॥ ३॥ होती है । अन्यथा, ग्रंथके बननेकी यह __ अर्थात्-' गोवर्धन ' गुरुको नमस्कार करके सब सम्बंध-कथा और संहिताके पूरे अध्यायों और 'गौतमसंहिता' को देखकर अब वर्णो वा विषयोंकी सूची पहले खंडके शुरूमें दी जानी तथा आश्रमोंकी स्थितिवाली सहिताका वर्णन चाहिए, जहाँ वह नहीं दी गई। यहाँपर खसूकिया जाता है। सियतके साथ एक खंडके सम्बंधमें वह असम्बद्धइस प्रतिज्ञा-वाक्यमें ' अधुना ' ( अब ) मालूम होती है। दूसरे खंडमें भी इतनी विशेषता शब्द बहुत खटकता है और इस बातको सूचित और है कि वह संपूर्ण खंड किसी एक व्यक्ति For Personal & Private Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ammmmmmmmHINDI भद्रबाहु-संहिता। ४२७ का बनाया हुआ मालूम नहीं होता । उसके * गन्धर्वनगरं गर्भान् यात्रोत्पातांस्तथैव च । आदिके २४ या ज्यादहसे ज्यादह २५ अध्या- . ग्रहचारं पृथक्त्वेन ग्रहयुद्धं च कृत्स्नशः ॥ १६ ॥ योंका टाइप और साँचा, दूसरे अध्यायोंसे भिन्न वातिकं चाथ स्वप्नांश्च मुहूर्ताश्च तिथींस्तथा । करणानि निमित्तं च शकुनं पाकमेव च ॥१७॥ एक प्रकारका है । वे किसी एक व्यक्तिके बनाये। हुए जान पड़ते हैं और शेष अध्याय किसी परन्तु कथन करते हुए ' ग्रहयुद्ध ' के बाद 'ग्रहसंयोग अर्घकांड ' नामका एक अध्याय दूसरे तथा तीसरे व्यक्तिके । यही वजह है कि इस खंडमें शुरूसे २५ वें अध्यायतक तो कहीं ( नं० २५) दिया है और फिर उसके बाद कोई मंगलाचरण नहीं है; परन्तु २६ वें । 'स्वमाध्याय ' का कथन किया है । यद्यपि 'ग्रहसंयोग अर्थकांड' नामका विषय ग्रहअध्यायसे उसका प्रारंभ पाया जाता है, जो एक नई और विलक्षण बात है + । आम तौर पर जो युद्धका ही एक विशेष है और इस लिए श्लोक ग्रंथकर्ता ग्रंथों में मंगलाचरण करते हैं वे ग्रंथकी नं० १६ में लिये हुए ‘कृत्स्नशः' पदसे उसका आदिमें उसे जरूर रखते हैं । एक ग्रंथकर्ता ग्रहण किया जा सकता है; परन्तु इस अध्या यके बाद 'वातिक ' नामके अध्यायका कोई होनेकी हालतमें यह कभी संभव नहीं कि ग्रंथकी आदिमें मंगलाचरण न दिया जाकर ग्रंथके मध्य वर्णन नहीं है। स्वप्नाध्यायसे पहले ही नहीं, भागसे भी पीछे उसका प्रारंभ किया जाय । बल्कि पीछे भी उसका कहीं कथन नहीं है । इस इसके सिवाय इन अध्यायोंकी संधियोंमें प्रायः । लिए कथनसे इस विषयका साफ छूट जाना 'इति ' शब्दके बाद " ग्रंथे भद्रबाहुके निमित्ते" . पाया जाता है । इसके आगे, विषय-सूचीमें, ऐसे विशेष पदोंका प्रयोग पाया जाता है, जो दिये हैं: श्लोक नं० १७ के बाद ये दो श्लोक और २६ वें अध्यायको छोड़कर संहिता भरमें और ज्योतिष केवलं कालं वास्तु दिव्येन्द्रसंपदा । किसी भी अध्यायके साथ देखनेमें नहीं आता। लक्षणं व्यंजनं चिह्न तथा दिव्यौषधानि च ॥१५॥ और इसलिए यह भेद-भाव भी बहुत खटकता बलाबलं च सर्वेषा विरोधं च पराजयं । है। संपूर्ण ग्रंथका एक कर्ता होनेकी हालतमें इस तत्सर्वमानुपूर्वेण प्रब्रवीहि महामते ॥ १६ ॥ प्रकारका भेद भाव नहीं बन सकता। अस्तु। इन श्लोकोंमें 'बलाबलं च सर्वेषां' इस पदके अब एक बात और प्रगट की जाती है जो इस द्वारा पूर्वकथित संपूर्ण विषयोंके बलाबल कथनकी दूसरे खंडकी अध्याय-सूची अथवा विषय-सूचीसे सूचना की गई है; परन्तु कथन करते हुए, अध्याय सम्बंध रखती है और वह यह है कि इस खंडके नं०४१ और ४२ में सिर्फ ग्रहोंका ही बलाबल .पहले अध्यायमें, क्रमशः कथन करनेके लिए, जो दिखलाया गया है। शेष किसी भी विषयके अध्यायों अथवा विषयोंकी सूची दी है उसमें बलाबलका इन दोनों अध्यायोंमें कहीं कोई ग्रहयुद्धके बाद 'वातिक ' और वातिकके बाद वर्णन नहीं है और न आगे ही इस विषयका 'स्वप्म' का विषय कथन करना लिखा है। यथाः- कोई अध्याय पाया जाता है । इसलिए यह कथन अधूरा है और प्रतिज्ञाका एक अंश पालन ४ २६ वें अध्यायका वह मंगलाचरण इस प्रकार है:- * इससे पहले विषय-सूचीका निम्नश्लोक और है:नमस्कृत्य महावीरं सुरासुरनमस्कृतम् । उल्का समासतो व्यासात्परिवेषांस्तथैव च । . स्वमान्यहं प्रवक्ष्यामि शुभाशुभसमीरितम् ॥१॥ विद्युतोऽभ्राणि संध्याश्च मेघान्वातान्प्रवर्षणम् ॥१५॥" For Personal & Private Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२८ SAMRIDAIMIMIMARATHAMAT जैनहितैषी किया गया मालूम होता है। यदि श्लोक नं०१९को करूँगा कि यह ग्रंथ भद्रबाहु श्रुतकेवलीका ब१६ के बाद रक्खा जाय तो “ बलाबलं च नाया हुआ नहीं है। सर्वेषां ' इस पदके द्वारा ग्रहोंके बलाबलकथ- श्वेताम्बरोंकी मान्यता। नका बोध हो सकता है। और श्लोक नं० ___ परन्तु इस सिद्ध करनेकी चेष्टासे पहले मैं १४ में दिये हुए ‘सुखग्राह्यं लघुग्रथं ' इस , - अपने पाठकोंको यह बतला देना जरूरी समपदका भी कुछ अर्थ सध सकता है ( यद्यपि झता हूँ कि यह ग्रंथ (भद्रबाहुसंहिता ) श्वेताश्रुतकेवलीके सम्बन्धमें लघुग्रंथ होनेकी बात ! म्बर सम्प्रदायमें भी भद्रबाहु श्रुतकेवलीका बनाकुछ अधिक महत्त्वकी नहीं समझी जा सकती)। ' या हुआ माना जाता है। श्वेताम्बर साधु मुनि परन्तु ऐसा करनेपर श्लोक नं० १७-१८ १७-१८ आत्मारामजीने अपने ' तत्त्वादर्श' के अन्तिम और उनके कथन-विषयक समस्त अध्या- परिलेटमें भद्रबाह श्रुतकेवलीके साथ उसका योंको अस्वीकार करके-ग्रन्थका अंग न मान । भी नामोल्लेख किया है और उसे एक ज्योतिष कर-ग्रंथसे अलग करना होगा जो कभी इष्ट शास्त्र बतलाया है, जिससे इस संहिताके उस नहीं हो सकता । इस लिए कथन अधूरा है और - दूसरे खंडका अभिप्राय जान पड़ता है जो ऊपर उसके द्वारा प्रतिज्ञाका सिर्फ एक अंश पालन एक अलग ग्रंथ सूचित किया गया है । बम्बईके किया गया है, यही मानना पड़ेगा। इस प्रकारकी श्वेताम्बर बुकसेलर शा भीमसिंह माणिकजीने और भी अनेक विलक्षण बातें हैं जिनको इस इसी भद्रबाहुसंहिता नामके ज्योतिःशास्त्रका समय यहाँपर छोड़ा जाता है । इन सब विलक्षणोंसे ग्रंथमें किसी विशेष गोल गुजराती अनुवाद संवत् १९५९ में छपाकर प्रसिद्ध किया था, जिसकी प्रस्तावनामें उक्त मालकी सूचना होती है जिसका अनुभव । प्रसिद्धकर्ता महाशयने लिखा है किःपाठकोंको आगे चलकर स्वतः हो जायगा। “आ भद्रबाहुसंहिता ग्रंथ जैनना ज्योतिष विषयहाँ पर मैं इतना जरूर कहूँगा और इस कह , इस कह यमा आद्य ग्रंथ छे. तेमना रचनार श्रीभद्रबाहुस्वामि, नेमें मुझे जरा भी संकोच नहीं है कि ऐसा चौद पूर्वधर श्रुतकेवली हता. तेमनां वचनो जैनमां असम्बद्ध,अधूरा, अव्यवस्थित और विल- आप्त वचनो गणाय छे । ... श्रीभद्रबाहुसंहिता क्षणोंसे पूर्ण ग्रंथ भद्रबाहु श्रुतकेवली जैसे नामना ग्रंथनी महत्वता अति छतां आ प्रसिद्ध थयेला विद्वानोंका बनाया हुआ नहीं हो सकता। भाषांतररूप ग्रंथनी महत्वता जो जनसमुदायने क्यों नहीं हो सकता ? यद्यपि विद्वानोंको इस अल्प लागे तो तेनो दोष पंचमकालने शिर छ ।” बातके बतलानेकी जरूरत नहीं है; वे इस ऊप- प्रसिद्धकीके इन वाक्योंसे श्वेताम्बरसम्परके कथन. परसे ही सब कुछ अनुभव कर दायमें ग्रंथकी मान्यताका अच्छा पता चलता सकते हैं; परन्तु फिर भी चूँकि समाजमें घोर है; परन्तु इतना जरूर है कि इस सम्प्रदायमें अज्ञानान्धकार फैला हुआ है, अन्धी श्रद्धा- भी दिगम्बर सम्प्रदायके समान, यह ग्रंथ कुछ का प्रबल राज्य है, गतानुगतिकता चल रही अधिक प्रचलित नहीं है। इसी लिए श्रीयुत है, स्वतंत्र विचारोंका वातावरण बंद है और कछ मुनि जिनविजयजी अपने पत्रमें लिखते हैं किविद्वान् भी उसमें दिशा भूल रहे हैं, इस लिए मैं १ यह पत्र श्रीयुत पं० नाथूरामजी प्रेमीके नाम सविशेष रूपसे इस बातको सिद्ध करनेकी चेष्टा लिखा गया है। For Personal & Private Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MATHARIRAMINATIONALAMMAAMIRRITATED भद्रबाहु-संहिता। ४२९ WhitiTITERNHRITER “ पाटनके किसी नये या पुराने भंडारमें भद्र- द्वारा कल्पित मालूम होता है । संहिताके पहले बाहु-संहिताकी प्रति नहीं है । गुजरातके या अध्यायमें ग्रंथ भरमें क्रमशः वर्णनीय विषयोंकी मारवाडके अन्य किसी प्रसिद्ध भंडारमें भी जो उपर्युल्लिखित सूची लगी हुई है और जिसका इसकी प्रति नहीं है। श्वेताम्बरोंके भद्रबाहुचरि- अनुवाद अनुवादकने भी दिया है उससे इस तोंमें उनके संहिता बनानेका उल्लेख मिलता है; स्तबकका प्रायः कुछ भी सम्बंध नहीं मिलता। परन्तु पुस्तक अभीतक नहीं देखी गई।" उसके अनुसार इस स्तबकमें मुहूर्त, तिथि, करण, गुजराती अनुवाद ।। निमित्त, शकुन, पाक, ज्योतिष, काल, वास्तु, - इंद्रसंपदा, लक्षण, व्यंजन, चिह्न, ओषधि, सर्व संहिताके इस गुजराती अनुवादके साथ । साथ निमित्तोंका बलाबल, विरोध और पराजय, इन मलग्रंथ लगा हुआ नहीं है । प्रस्तावनाम लिखा विषयोंका वर्णन होना चाहिए था, जो नहीं है। है कि “ यह अनुवाद श्रावक हीरालाल हंस उनके स्थानमें यहाँ राशि, नक्षत्र, योग, ग्रहस्वराजजीका किया हुआ है, जिन्होंने माँगने पर भी रूप, केतुको छोड़कर शेष ग्रहोंकी महादशा, मूलग्रंथ नहीं दिया और न प्रयत्न करने पर राजयोग, दीक्षायोग, और ग्रहोंके द्वादश भावोंका किसी दूसरे स्थानसे ही मूलग्रंथकी प्राप्ति हो । फल, इन बातोंका वर्णन दिया है । चूँकि यह सकी । इससे समूल छापनेकी इच्छा रहते भी अनुवाद मूलके अनुकूल नहीं था शायद इसी लिए यह अनुवाद निर्मूल ही छापा गया है।” यद्यपि अनुवादकको मूल ग्रंथकी कापी देनेमें संकोच हुआ इस अनुवादके सम्बंधमें मुझे कुछ कहनेका हो । अन्यथा दसरी कोई वजह समझमें नहीं अवसर नहीं है; परन्तु सर्व साधारणकी विज्ञप्ति आती । प्रकाशकको भी अनुवाद पर कुछ संदेह हा और हितके लिए संक्षेपसे, इतना जरूर कहूँगा गया है और इसीलिए उन्होंने अपनी प्रस्तावनाम कि यह अनुवाद सिरसे पैरतक प्रायः गलत लिखा है किमालूम होता है । इस अनुवादमें ग्रंथके दो “आ भाषांतर ' खरी भद्रबाहुसंहिता' नामना स्तबक (गुच्छक ) किये हैं, जिनमें पहले स्तब- , ग्रंथर्नु छ एम विद्वानोनी नजरमां आवे तो ते बाबतनो कमें २१ अध्यायोंका और दूसरेमें २२ अध्या व्या. मने अति संतोष थशे, परंतु तेथी विरुद्ध जो विद्वायोंका अनुवाद दिया है । पहले स्तबकका नोनी नजरमां आवे तो हुँ तो लेशमात्र ते दोषने पात्र मिलान करनेसे जान पड़ता है कि अनुवादक नथी. में तो सरल अंतःकरणथी आ ग्रंथ खरा ग्रंथजगह जगहपर बहुतसे श्लोकोंका अनुवाद - भाषांतर छ एम मानी छपाव्यो छे तेम छतां विद्वानोछोड़ता, कुछ कथन अपनी तरफसे मिलाता नी नजरमां मारी भूल लागे तो हुं क्षमा मागं छु ।” और कुछ आगे पीछे करता हुआ चला गया इस प्रस्तावनामें प्रकाशकजीके उन विचाहै। शुक्रचारके कथनमें उसने २३४ श्लोकोंके रोंका भी उल्लेख है जो मूलग्रंथके सम्बंध स्थानमें सिर्फ पाँच सात श्लोकोंका ही अनुवाद इस अनुवाद परसे उनके हृदयमें उत्पन्न हुए हैं दिया है। मंगलचार, राहुचार सूर्यचार, चंद्र- और जो इस प्रकार हैं:चार और ग्रहसंयोग अर्घकाण्ड नामके पाँच “ श्रीबराहमिहिरे करेली वाराहीसंहिता अति अध्यायोंका अनुवाद कतई छोड़ दिया है। उनका विस्तारयुक्त ग्रंथ छे, तेनां प्रमाणमां आ उपलब्ध ग्रंथमें नाम भी नहीं है । रही दूसरे स्तबककी थयेलो भद्रबाहुसंहिता ग्रंथ अति स्वल्प छे. श्रीभद्रबात, सो वह बिलकुल ही विलक्षण तथा अनुवादक बाहुस्वामि जेवा श्रुतकेवली पुरुषे ज्योतिष विषयनो For Personal & Private Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३० mummmmmmm जैनहितैषी स्पेलो ग्रंथ आटलो स्वल्प होय एम अंतःकरण कबुल सर्वानेतान्यथोद्दिष्टान् भगवन्वक्तुमर्हसि । करतुं नथी, ते ग्रंथ वाराहीसंहिता करतां पण अति प्रश्नं शुश्रूषवः सर्वे वयमन्ये च साधवः ॥ २० ॥ विस्तारवालो होवो जोइए।" अर्थात्-'हे भगवन क्या आप कृपाकर इन ___ समझमें नहीं आता कि क्यों हीरालालजीने समस्त यथोद्दिष्ट विषयोंका वर्णन करेंगे ! हम ऐसा अधूरा, गलत और कल्पित अनुवाद प्रका- सब शिष्यगण तथा अन्य साधुजन उनके सुनशित करनेके लिए दिया और क्यों उसे भी- नेकी इच्छा रखते हैं।' इसके बाद ग्रंथमें दूसरे. मसी माणिकजीने ऐसी संदिग्धावस्थामें प्रका- अध्यायका प्रारंभ करते हुए, जो वाक्य दिये हैं शित किया । यदि सचमुच ही श्वेताम्बरसम्प्र- वे इस प्रकार हैं:दायमें ऐसी कोई भद्रबाहुसंहिता मौजूद है ततः प्रोवाच भगवान् दिग्वासा श्रमणोत्तमः । जिसका उपर्युक्त गुजराती अनुवाद सत्य समझा यथावस्थासुविन्यासद्वादशांगविशारदः ॥१॥ जाय तो मुझे इस कहनेमें भी कोई संकोच नहीं भवद्भिर्यदहं पृष्टो निमित्तं जिनभाषितं । समासव्यासतः सर्व तन्निबोध यथाविधि ॥२॥ है कि वह संहिता और भी आधिक आपत्तिके योग्य है। अर्थात् यह सुनकर यथावत् द्वादशांगके ग्रन्थ कब बना? और किसने . ज्ञाता उत्कृष्ट दिगम्बर साधु भगवान् भद्रबाहु बोले कि 'आप लोगोंने संक्षेप-विस्तारसे जो कुछ बनाया? जिनभाषित निमित्त मुझसे पूछा है उस संपूर्ण अब यहाँपर, विशेष रूपसे परीक्षाका प्रारंभ निमित्तको सुनिए ।' करते हुए, कुछ ऐसे प्रमाण पाठकोंके सम्मुख एक स्थानपर, इसी खंडके ३६ वें अध्यायमें उपस्थित किये जाते हैं जिनसे यह भले प्रकार प्रकार पुरुषलक्षणोंके बाद स्त्री-लक्षणोंका वर्णन करते स्पष्ट हो जाय कि यह ग्रंथ भद्रबाहु श्रुतकेवली वला- हुए यह भी लिखा है:का बनाया हुआ नहीं है और जब उनका बनाया कन्या च कीदृशी ग्राह्या कीदृशी च विवर्जिता । हुआ नहा है तो यह कब बना है आर इस कीदृशी कलजा चैव भगवन्वक्तुमर्हसि ॥ १३६ ॥ किसने बनाया है: भद्रबाहुरुवाचेति भो भव्याः संनिबोधत । १ इस ग्रंथके दूसरे खंडके पहले अध्या- कन्याया लक्षणं दिव्यं दोषकोशविवर्जितम् ॥१३०॥ यमें ग्रंथके बननेका जो सम्बंध प्रगट किया है अर्थात्-हे भगवन् , क्या आप कृपया यह उसमें लिखा है कि, एक समय राजगृह नगरके बतलाएँगे कि ग्राह्य कन्या कैसी होती है, विवर्जिता पांडुगिरि पर्वत पर अनेक शिष्य-प्रशिष्योंसे घिरे कैसी और कुलजा किस प्रकारकी होती है ? हुए द्वादशांगके वत्ता भद्रबाहु मुनि बैठे हुए थे। इस पर भद्रबाहु बोले कि हे भव्यपुरुषो तुम उन्हें प्रीतिपूर्वक नमस्कार करके शिष्योंने, दिव्य- कन्याका दोषजालसे रहित दिव्य लक्षण सुनो । ज्ञानके कथनकी आवश्यकता प्रगट करते हुए, इसके सिवाय इस खंडके बहुतसे श्लोकोंमें 'भद्रउनसे उस दिव्यज्ञान नामके निमित्त ज्ञानको बाहुवचो यथा-' भद्रबाहुने ऐसा कहा है-इन बतलानेकी प्रार्थना की और साथ ही,उन विषयोंकी शब्दोंके प्रयोगद्वारा, यह सूचित किया है कि नामावली देकर जिनको क्रमशःकथन करनेकी अमुक अमुक कथन भद्रबाहुके वचनानुसार लिखा प्रार्थना की गई, उन्होंने नम्रताके साथ अन्तमें गया है। उन श्लोकोंमेंसे दो श्लोक नमुनके तौर यह निवेदन किया: पर इस प्रकार हैं: For Personal & Private Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AROMAHARLALBHAILOBARAHATARA भद्रबाहु-संहिता। ITTEmmmmtimimi ४३१ पापासूल्कासु यद्यस्तु यदा देवः प्रवर्षति । ___ भगवान होते हैं। उनके लिए कोई भी विषय ऐसा प्रशांतं तद्भयं विद्याद्भद्रबाहुवचो यथा ॥ ३-६५॥ बाक़ी नहीं रहता जिसका ज्ञान उन्हें द्वादशांगको द्योतयंती दिशः सर्वा यदा संध्या प्रदृश्यते। छोड़कर किसी दूसरे ग्रंथ द्वारा सम्पादन महामेघस्तदा विद्याद्भद्रबाहुवचो यथा ॥ ७-१६॥ करना पड़े । इसलिए उन्हें संपूर्ण विषयोंके पूर्ण इस संपूर्ण कथन और कथन-शैलीसे मालूम ज्ञाता समझना चाहिए। वे, जाननेके मार्ग होता है कि यह ग्रंथ-अथवा कमसे कम प्रत्यक्ष परोक्ष-भेदको छोड़कर समस्त पदार्थोंको इसका दूसरा खंड भले ही भद्रबाहुश्रुत- केवल ज्ञानियों के समान ही जानते और अनुभव केवलीके वचनानुसार लिखा गया हो; परन्तु वह करते हैं । ऐसी हालत होते हुए, श्रुतकेवलीके द्वारा खास भद्रबाहु श्रुतकेवलीका बनाया हुआ यदि कोई ग्रंथ रचा जाय तो उसमें केवलनहीं है और चूँकि ऊपर भद्रबाहुके कथनके ज्ञानीके समान, उन्हें किसी आधार या प्रमाणके साथ 'प्रोवाच-उवाच' ऐसी परोक्षभूतकी उल्लेख करनेकी जरूरत नहीं है और न द्वादशांगको क्रियाका प्रयोग किया गया है, जिसका यह छोड़कर दूसरे किसी ग्रंथसे सहायता लेनेहीकी अर्थ होता है कि वह प्रश्नोत्तररूपकी संपूर्ण जरूरत है। उनका वह ग्रंथ एक स्वतंत्र ग्रंथ घटना ग्रंथकर्ताकी साक्षात् अपनी आँखोंसे देखी होना चाहिए । उसमें, खंडनमंडनको छोड़कर, हुई नहीं है-वह उस समय मौजूद ही न था- यदि आधार प्रमाणका कोई उल्लेख किया भी उससे बहुत पहलेकी बीती हुई वह घटना है। जाय-अपने प्रतिपाद्य विषयकी पुष्टिमें किसी इसलिए यह ग्रंथ भद्रबाहु श्रुतकेवलीके वाक्यके उद्धत करनेकी जरूरत भी पैदा हो, तो किसी साक्षात् शिष्य या प्रशिष्यका भी वह केवली और द्वादशांगश्रुतको छोड़कर दूसरे बनाया हुआ नहीं है । इसका सम्पादन बहुत किसी व्यक्ति या ग्रंथसे सम्बंध रखनेवाला न होना काल पीछे किसी तीसरे ही व्यक्तिद्वारा हुआ है, चाहिए। ऐसा न करके दूसरे ग्रंथों और ग्रंथजिसके समयादिकका निर्णय आगे चलकर कर्ताओंका उल्लेख करना, उनके आधार किया जायगा । यहाँ पर सिर्फ इतना ही सम पर अपने कथनकी रचना करना, उनके झना चाहिए कि यह ग्रंथ भद्रबाहुका बनाया वाक्योंको उद्धत करके अपने ग्रंथका अंग हुआ या भद्रबाहुके समयका बना हुआ नहा हा बनाना और किसी खास विषयको, उत्त २ द्वादशांग वाणी अथवा द्वादशांग श्रुतके मताकी दृष्टिसे, उन दूसरे ग्रंथोमें देखनेकी विषयमें जो कुछ कहा जाता है और जैन- प्रेरणा करना, यह सब काम श्रुतकेवली शास्त्रोंमें उसका जैसा कुछ स्वरूप वर्णित है पदके विरुद्ध ही नहीं किन्तु उसको उससे मालूम होता है कि संसारमें कोई भी विद्या बट्टा लगानेवाला है। ऐसा करना, श्रुत या विषय ऐसा नहीं होता जिसका उसमें पूरा पूरा केवलीके लिए, केवली भगवान्, और द्वाद वर्णन न हो और न दूसरा कोई पदार्थ ही शांग श्रुतका अपमान करनेके बराबर होगा, ऐसा शेष रहता है जिसका ज्ञान उसकी परि- जिसकी श्रुतकेवली जैसे महर्षियों द्वारा कभी आशा घिसे बाहर हो । इसलिए संपूर्ण ज्ञान-विज्ञानका नहीं की जा सकती। चूँकि इस ग्रंथमें स्थानस्थान उसे एक अनुपम भंडार समझना चाहिए । उसी पर भद्रबाहुका ऐसा ही अयुक्ताचरण प्रगट द्वादशांग श्रुतके असाधारण विद्वान् श्रुतकेवली हुआ है इससे मालूम होता है कि यह ग्रंथ For Personal & Private Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३२ जैनहितैषीmultitutitutituitinnitutifumi भद्रबाहु श्रुतकेवलीका बनाया हुआ नहीं है। राज ) द्वादशांग श्रुतका कोई अंग न होनेसे नमूनेके तौरपर यहाँ उसका कुछ थोड़ासा परि- दूसरे ही विद्वानोंके बनाये हुए ग्रंथ मालूम होते चय दिया जाता है । विशेष विचार यथावसर हैं, जिनका यहाँ आदरके साथ उल्लेख किया आगे होगाः गया है और जिनका यह उल्लेख, ग्रंथकर्ताकी (क) दूसरे खंडके ३७ वें अध्यायमें, दृष्टिसे, उनमें द्वादशांगसे किसी विशिष्टताका घोड़ोंका लक्षण वर्णन करते हुए, घोड़ोंके अरबी होना सूचित करता है । आदि १८ भेद बतलाकर लिखा है कि, उनके (ग) पहले खंडके पहले अध्यायमें ‘गौतलक्षण नीतिके जाननेवाले ' चंद्रवाहन ने कहे मसंहिता'को देखकर इस संहिताके कथन करनेकी हैं। यथाः -- ऐरावताश्च काश्मीरा या अष्टादशस्मृताः । प्रतिज्ञा की गई है । साथ ही दो स्थानोंपर ये तेषां च लक्षणान्यूचे नीतिविच्चंद्रवाहनः ॥ १२६॥ वाक्य और दिये हैं:- . इस कथनसे पाया जाता है कि ग्रंथकर्ता १-आचमनस्वरूपभेदा गौतमसंहितातो ज्ञातव्याः । (भद्रबाहु )ने चंदवाहनके कथनको द्वादशांग- २-पात्रभेदा गौतमसंहितायां द्रष्टव्याः । भूम्यादिके कथनसे उत्तम समझा है और इसी लिए उसके दानभेदाश्च ग्रंथान्तरात् उत्सेयाः । देखनेकी प्रेरणा की है। इनमें लिखा है कि (१) आचमनक (ख ) तीसरे खंडमें 'शांतिविधान' नामका स्वरूप और उसके भेद गौतमसंहितासे जानने १० वाँ अध्याय है, जिसमें दो श्लोक इस प्रका- चाहिए। (२) पात्रोंके भेद गौतमसंहितामें रसे पाये जाते हैं: देखने चाहिए और भूमि आदि दानके भेद दूसरे परिभाषासमुद्देशे समुद्दिष्टेन लक्षणात् । ग्रंथोंसे मालूम करने चाहिए । इस संपूर्ण कथनसे तन्मध्ये कारयेत्कुंडं शांतिहोमक्रियोचितं ॥ १५॥ गौतमसंहिता' नामके किसी ग्रंथका स्पष्टोल्लेख हुताशनस्य मंत्रज्ञः क्रियां संधुक्षणादिकां ।। पाया जाता है । गौतमका नाम आते ही विदध्यात्परिभाषायां प्रोक्तन विधिना क्रमात् ॥१६॥ __ इन दोनों श्लोकोंमें परिभाषासमुद्देश' नामके पाठकोंके हृदयमें भगवान महावीरके प्रधान गणकिसी ग्रंथका उल्लेख है। पहले श्लोकमें परिभा- , र धर गौतमस्वामीका खयाल आजाना स्वाभाविक षासमुद्देशमें कहे हुए लक्षणके अनुसार होम- है; परन्तु यह सर्वत्र प्रसिद्ध है कि गौतमस्वामीने कुंड बनानेकी और दूसरेमें उक्त ग्रंथमें कही द्वादशांग सूत्रोंकी रचना की थी। इसके सिवाय हुई विधिके अनुसार संधुक्षणादिक (आग जलाना उन्होंने संहिता जैसे किसी अनावश्यक पृथक आदि) क्रिया करनेकी आज्ञा है। इसी खंडके ग्रंथकी रचना की हो, इस बातको न तो बुद्धि छठे अध्यायमें, यंत्रोंकी नामावली देते हुए, एक- ही स्वीकार करती है और न किसी माननीय 'यंत्रराज' नामके शास्त्रका भी उल्लेख किया प्राचीन आचार्यकी क्रतिमें ही उसका उल्लेख है और उसके सम्बंधमें लिखा है कि, इस शास्त्र- पाया जाता है। इस लिए यह 'गौतमसंहिता' के जानने मात्रसे बहुधा निमित्तोंका कथन गौतमगणधरका बनाया हुआ कोई ग्रंथ नहीं करना आजाता है । यथाः है। यदि ऐसा कहा जाय कि संपूर्ण द्वादशांगयंत्रराजागमे तेषां विस्तारः प्रतिपादितः। सूत्रों या द्वादशांग श्रुतका नाम ही 'गौतमसंहिता' येन विज्ञानमात्रेण निमित्तं बहुधा वदेत् ॥ २६ ॥ है तो यह बात भी नहीं बन सकती। क्योंकि ये दोनों ग्रंथ (परिभाषासमुद्देश और यंत्र- ऊपर उद्धृत किये हुए दूसरे वाक्यमें भूमि आदि For Personal & Private Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SGAMCGLAMILLIOHIBILEmLL SE भदबाह-संहिता। ४३३ दानके भेदोंको ग्रंथान्तरसे जाननेकी प्रेरणा की प्रेरणा की गई है। साथ ही, यह भी मालूम गई है; जिससे साफ मालूम होता है कि गौतम- होता है कि कुमारविन्दुने भी कोई संहिता संहितामें उनका कथन नहीं था तभी ऐसा कह- जैसा ग्रंथ बनाया है जिसमें पाँच खंड जरूर नेकी जरूरत पैदा हुई और इसलिए द्वादशांग- हैं । जैनहितैषीके छठे भागमें ‘दिगम्बर जैनके लक्षणानुसार ऐसे अधूरे ग्रंथका नाम, जिसमें ग्रंथकर्ता और उनके ग्रंथ ' नामकी जो बृहत् दानके भेदोंका भी वर्णन न हो, 'द्वादशांगश्रुत' सूची प्रकाशित हुई है उसमें भी कुमारनहीं हो सकता । बहुत संभव है कि इस संहिता- विन्दुके नामके साथ 'जिनसंहिता' का उल्लेख का अवतार भी भद्रबाहुसंहिताके समान ही हुआ किया है। यह संहिता अभीतक मेरे देखनेमें नहीं हो, अथवा यहाँ पर यह नाम दिये जानेका कोई आई; परंतु जहाँतक मैं समझता हूँ 'कुमारविन्दु' दूसरा ही कारण हो। नामके कोई ग्रंथकर्ता जैनविद्वान् भद्रबाहु श्रुत(घ) एक स्थानपर, इस ग्रंथमें, 'जटिल- केवलीसे पहले नहीं हुए । अस्तु । द्वादशांग श्रुत केश' नामके किसी विद्वान्का उल्लेख मिलता और श्रुतकवलोक स्वरूपका विचार करते हुए, है, जो इस प्रकार है:-. इन सब कथनोंपरसे यह ग्रंथ भद्रबाहुश्रुतकेवलीरविवाराद्या क्रमतो वाराः स्युः कथितजटिलकेशादेः। का बनाया हुआ प्रतीत नहीं होता। वारा मंदस्य पुनर्दद्यादाशी विषस्यापि ॥३-१०-१७३॥ ३ भद्रबाहु श्रुतकेवली राजा श्रेणिकसे इन्द्रानिलयमयक्षत्रितयनदहनाब्धिरक्षसां हरितः। लगभग १२५ वर्ष पीछे हुए हैं । इसलिए राजा इह कथित जटिलकेशप्रभृतीनां स्युः क्रमेण दिशः-॥१७४॥ श्रेणिकसे उनका कभी साक्षात्कार नहीं हो स- इन उल्लेख वाक्योंमें लिखा है कि रविवारा- कताः परन्त इस ग्रंथके दूसरे खंडमें, एक स्थानदिकके क्रमसे वारोंका और इन्द्रादिकके क्रमसे पर, दरिद्रयोगका वर्णन करते हुए, उन्हें साक्षात् दिशाओंका कथन जटिलकेशादिकका कहा राजा श्रेणिकसे मिला दिया है और लिख दिया हुआ है, जिसको यहाँ नागपूजाविधि, प्रमाण है कि यह कथन भद्रबाह मुनिने राजा श्रेणिकके माना है। इससे या तो द्वादशांगश्रुतका इस प्रश्नके उत्तरमें किया है । यथाःविषयमें मौन पाया जाता है अथवा यह नतीजा अथातः संप्रवक्ष्यामि दारिद्रं दुःखकारण । निकलता है कि ग्रंथकर्ताने उसके कथनकी लग्नाधिपे रिष्कगते रिष्केशे लग्नमागते॥अ०४१श्लो०६५ अवहेलना की है। मारकेशयुते दृष्टे जातः स्यानिर्धनो नरः। (ङ ) तीसरे खंडके आठवें अध्यायमें भद्रबाहुमुनिप्रोक्तः नृपश्रेणिकप्रश्नतः ॥-६६ ॥ उत्पातोंके भेदोंका वर्णन करते हुए लिखा है:- पाठक समझ सकते हैं कि ऐसा मोटा झूठ और एतेषां वेदपंचाशद्भेदानां वर्णनं पृथक् । ऐसा असत्य उल्लेख क्या कभी भद्रबाहुश्रुतकेवली कथितं पंचमे खंडे कुमारेण सुविन्दुना ॥ १४ ॥ जैसे मुनियोंका हो सकता है ? कभी नहीं । मुनि अर्थात्-इन उत्पातोंके ५४ भेदोंका अलग तो मुनि साधारण धर्मात्मा गृहस्थका भी यह अलग वर्णन कुमारविन्दुने पाँचवें खंडमें किया कार्य नहीं हो सकता । इससे ग्रंथकर्ताका, है। इससे साफ जाहिर है कि ग्रंथकर्ताने कुमार- असत्यवक्तृत्व और छल पाया जाता है। विन्दुके कथनको द्वादशांगसे श्रेष्ठ और विशिष्ट साथ ही, यह भी मालूम होता है कि वे समझा है तभी उसको देखनेकी इस प्रकारसे कोई ऐसे ही योग्य व्यक्ति थे जिनको For Personal & Private Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३४ भद्रबाहु और राजा श्रेणिकके समयतककी (प्रवर्त्यति )। ४७० वर्षसे ( ? ) प्रभु विक्रम भी खबर नहीं थी । हिन्दुओंके यहाँ ‘बृह- राजा उज्जयिनीमें अपना संवत् चलावेगा ( वर्तत्पाराशरी होरा' नामका एक बहुत बड़ा ज्योति- यिष्यति )। शक राजाके बाद ३९४ वर्ष और षका ग्रंथ है । इस ग्रंथके ३१ वें अध्यायमें, सात महीने बीतनेपर सद्धर्मका द्वेषी और ७० दरिद्रयोगका वर्णन करते हुए, सबसे पहले जो वर्षकी आयुका धारक 'चतुर्मुख' नामका श्लोक दिया है वह इस प्रकार है:- पहला कल्की हुआ (आसीत् )। उसने एक " लग्नेशे वै रिष्फगते रिष्फेशे लग्नमागते। दिन अजितभूम नामके मंत्रीको यह आज्ञा की मारकेशयुते दृष्टे जातः स्यान्निर्धनो नरः ॥ १॥ (आदिशत् ) कि 'पृथ्वी पर निग्रंथमुनि ऊपर उद्धृत किये हुए संहिताके दोनों हमारे अधीन नहीं हैं।' उनके पाणिपात्रमें सबसे पद्योंमेंसे पहले पयका पूर्वार्ध और दूसरे पद्यका पहले जो ग्रास रक्खा जाय उसे तुम करके तौर उत्तरार्ध अलग कर देनेसे यही श्लोक शेष रह पर ग्रहण करो । इस नरककी कारणभूत. आज्ञाजाता है । सिर्फ 'लग्नेशे वै' के स्थानमें 'लग्ना- को सुनकर मूढ़बुद्धि मंत्रीने वैसा ही किया धिपे ' का परिवर्तन है । इस श्लोकके आगे पीछे (अकरोत् )। इस उपद्रवके कारण मुनिजन लगे हुए उपर्युक्त दोनों आधे आधे पद्य बहुत राजासे व्याकुल हुए (आसन् ), उस उपसर्गको ही खटकते है और असम्बद्ध मालूम होते हैं। जानकर जिनशासनके रक्षक असुरेन्द्र चतुदूसरे पद्यका उत्तरार्ध तो बहुत ही असम्बद्ध र्मुखको मार डालेंगे ( हनिष्यन्तिं )। तब वह जान पड़ता है । उसके आगे इस प्रकरणके ९ पापात्मा कल्की मरकर अपने पापकी वजहसे पद्य और दिये हैं, जो उक्त होराके प्रकरणमें भी समस्त दुःखोंकी खान पहले नरकमें गया श्लोक नं. १ के बाद पाये जाते हैं। इससे (गतः)। उसी समय कल्कीका जयध्वजनामका मालूम होता है कि संहिताका यह सब प्रकरण पुत्र सुरेन्द्र के भयसे सुरेन्द्रके किये हुए जिनउक्त होरा ग्रंथसे उठाकर रक्खा गया है और शासनके माहात्म्यको प्रत्यक्ष देखकर और उसे भद्रबाहुका बनानेकी चेष्टा की गई है । इस काललब्धिके द्वारा सम्यक्त्वको पाकर अपनी सेना प्रकारकी चेष्टा अन्यत्र भी पाई जाती है और और बन्धुजनादि सहित सुरेन्द्रकी शरण गया इस 'पाराशरी होरा'से और भी बहुतसे श्लोकों- (जगाम ) ॥ ४७-५७ ॥" का संग्रह किया गया है जिसका परिचय पाठ- ऊपरके इस वर्णनको पढ़कर निःसन्देह कोंको अगले लेखमें कराया जायगा। पाठकोंको कौतुक होगा! उन्हें इसमें भूत ४ इस ग्रंथके दूसरे ज्योतिषखंडमें- काल और भविष्यत् कालकी क्रियाओंका केवलकाल नामके ३४ वें अध्यायमें-पंचम बड़ा ही विलक्षण योग देखनेमें आयगा । कालका वर्णन करते हुए, शक, विक्रम और साथ ही, ग्रंथकर्ताकी योग्यताका भी अच्छा परिचप्रथम कल्कीका भी कछ थोडासा वर्णन दिया य मिल जायगा। परन्त यहाँ ग्रंथकर्ताकी योग्यहै जिसका हिन्दी आशय इस प्रकार है:- ताका परिचय कराना इष्ट नहीं है-इसका विशेष "वर्धमानस्वामीको मुक्ति प्राप्त होनेपर ६०५ परिचय दूसरे लेख द्वाग का या जायगा, यहाँपर वर्ष और पाँच महीने छोड़कर प्रसिद्ध शकराजा सिर्फ यह दखनकी जरूरत है कि इस वर्णनसे हुआ (अभवत् )। उससे शक संवत् प्रवर्तगा ग्रंथके सम्बंध किस 3 का पता चलता है। For Personal & Private Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु -संहिता । 1 पता इस बातका चलता है कि यह ग्रंथ भद्रबाहु श्रुतकेवलीका बनाया हुआ न होकर शक संवत् ३९५ अथवा विक्रम सं० ५३० से भी पीछेका बना हुआ है। यही वजह है कि इसमें उक्त समयसे पहले की घटनाओं ( प्रथमकल्कीका होना आदि) का उल्लेख भूतकालकी क्रियाओं द्वारा पाया जाता है। ऊपरका सारा वर्णन भूतकालकी क्रियाओंसे भरा हुआ है उसका प्रारंभ भी भूतकालकी क्रिया से हुआ है और अन्त भी भूतकालकी क्रियासे सिर्फ मध्यमें तीन जगह भविष्यत्कालकी क्रियाओंका प्रयोग है जो बिलकुल असम्बद्ध मालूम होता है । इस असम्बद्धताका विशेष अनुभव प्राप्त करनेके लिए मूल श्लोकोंको देखना चाहिए जो इस प्रकार हैं:त्यक्त्वा संवत्सरान्पंचाधिकषट्संमितान् । पंचमासयुतान्मुक्ति वर्द्धमाने गते सति ॥ ४७ ॥ शकराजोऽभवत् ख्यातः तेन शाकः प्रवर्त्स्यति । चतुर्वर्षशतैः सप्तत्यधिकैर्विक्रमो नृपः । उज्जयिन्यां प्रभुः स्वस्य वत्सरं वर्तयिष्यति ॥ ४८ ॥ उपसर्ग विदित्वा तं मुनीनामसुराधिपः । चतुर्मुखं हनिष्यन्ति जिनशासनरक्षकः ॥ ५४ ॥ इनमेंसे दूसरा श्लोक ( नं० ४८ ) वास्तवमें डेढ़ . श्लोक है। उसके पूर्वार्धका सम्बंध पहले श्लोक ( नं. ४७ ) से मिलता है; परन्तु शेष दोनों अर्ध भागों का कोई सम्बंध ठीक नहीं बैठता । 'त्यक्त्वा' शब्द के साथ 'चतुर्वर्षशतैः सप्तत्यधिकैः ' इन पदोंका कुछ भी मेल नहीं है इसी प्रकार 'अभवत्' के साथ 'प्रवर्त्स्यति' क्रियाका भी कोई मेल नहीं है। प्रवर्तते क्रियाका संबंध ठीक बैठ सकता है। तीसरे श्लोक ( नं० ५४ ) में 'हनिष्यन्ति' यह क्रिया बहुचनात्मक है और इसका कती 'असुराधिपः' एक वचनात्मक दिया है । इससे क्रियाका यह प्रयोग गलत है । यदि इस क्रियाको एक वच नकी क्रिया 'हनिष्यति' समझ लिया जाय तो भी काम नहीं चलता उससे छंदभंग होता है । इस लिए यह क्रिया किसी तरह भी ठीक नहीं बैठती । इसके स्थान में परोक्षभूतकी क्रियाको लिये हुए ' जघानेति ' पदका प्रयोग बहुत ठीक हो सकता है और उससे आगे पीछेका सारा सम्बन्ध मिल जाता है । परंतु यहाँ ऐसा नहीं है । अस्तु । इन्हीं सब बातों से यह कथन एक विलक्षण कथन होगया है । अन्यथा, ग्रंथमें, इसके आगे 'जलमंथन ' नाम के कल्कीका, जिसका अवतार अभीतक भी नहीं हुआ - पाँचवें कालके अन्तमें होना कहा जाता है - जो वर्णन दिया है उसमें इस प्रकारकी विलक्षणता नहीं है । उसका सारा वर्णन भविष्यत् कालकी क्रियाओंको लिये हुए है । तब यह प्रश्न सहज ही उठ सकता है कि इसी वर्णनके साथ यह विलक्षणता क्यों है ? इसका कोई कारण जरूर होना चाहिए । मेरे खयाल में कारण यह है कि यह सारा प्रकरण ही नहीं बल्कि संभवतः सारा अध्याय किसी ऐसे पुराणादिक ग्रंथसे उठाकर यहाँ रक्खा गया है जो विक्रम संवत् ५३० से बहुत पीछेका बना हुआ था । ग्रंथकर्ताने ऊपर के वर्णनका भद्रबाहुके साथ सम्बंध मिलाने और उसे भद्रबाहुकी भविष्यवाणी प्रगट करनेके लिए उसमें भविव्यत्कालकी क्रियाओंका परिवर्तन किया है । परंतु मालूम होता है कि वह सब क्रियाओंको यथेष्ट रीतिसे बदल नहीं सका । इसीसे इस वर्णनमें इस प्रकारकी विलक्षणता और असम्बद्धताका प्रादुर्भाव हुआ है । मेरा यह उपर्युक्त खयाल और भी दृढ़ताको प्राप्त होता है । जब कि इस अध्यायके अन्तमें यह श्लोक देखनको मिलता है: । For Personal & Private Use Only ४३५ - Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३६ . जैनहितेषी nniniliffiti HOT i इत्येतत्कालचक्रं च केवलं भ्रमणान्वितं । हुई । खोज लगानेसे मालूम हुआ कि भद्रबाहु षड्भेदं संपरिज्ञायशिवं साधयतं नृप ॥ १२४ ॥ श्रुतकेवलीसे पहले इस नामके कोई भी उल्लेख इस श्लोकमें लिखा है कि-हे राजन इस प्रकारसे योग्य आचार्य नहीं हुए । एक एलाचार्य भगकेवल भ्रमणको लिये हुए इस छह भेदोंवाले वत्कुन्दकुन्दाचार्यका दूसरा नाम है । दूसरे कालचक्रको भले प्रकार जानकर तुम अपना एलाचार्य चित्रकूटपुरनिवासी कहे जाते हैं कल्याण साधन करो। यहाँ पर पाठकोंको यह जिनसे वीरसेनाचार्यने सिद्धान्तशास्त्र पढ़ा था बतला देना जरूरी है कि इस ग्रंथमें इससे पहले और जिनका उल्लेख इन्द्रनन्दिने अपने 'श्रुताकिसी राजाका कोई संबंध नहीं है और न किसी वतार' ग्रंथमें किया है। तीसरे एलाचार्य भट्टारक राजाके प्रश्नपर इस ग्रंथकी रचना की गई है, हैं, जिनका नाम 'दि० जैनग्रंथकती और उनके जिसको सम्बोधन करके यहाँपर यह वाक्य कहा ग्रन्थ ' नामकी सूचीमें दर्ज है, और जिनके जाता । इसलिए यह वाक्य यहाँ पर बिलकुल नामके साथ उनके बनाये हुए ग्रंथों में सिर्फ असम्बद्ध है और इस बातको सूचित करता है 'ज्वालामालिनी कल्प' नामके किसी ग्रंथका कि यह प्रकरण किसी ऐसे पुराणादिक ग्रंथसे उल्लेख है। ये तीनों एलाचार्य भद्रबाहु श्रुतकेवलीसे उठाकर रक्खा गया है जो वि० सं० ५३० के उत्तरोत्तर कई कई शताब्दी बाद हुए माने बादका बना हुआ है और जिसमें किसी राजाको जाते हैं । इनमेंसे किसी भी आचार्यका बनाया लक्ष्य करके अथवा उसके प्रश्नपर इस सारे कथ- हुआ रिष्ट-विषयका कोई ग्रंथ उपलब्ध नहीं नकी रचना की गई है और इसलिए यह उस हआ। दुर्ग' नामके आचार्यकी खोज लगाते ग्रंथसे भी बादका बना हुआ है। ___हुए जैनग्रंथावली ' से मालूम हुआ कि 'दुर्ग५ एक स्थानपर, दूसरे खंडमें, निमित्ता- देव ' नामके किसी जैनाचार्यने 'रिष्टसमुच्चय , ध्यायका वर्णन करते हुए, ग्रंथकतोने यह नामका कोई ग्रंथ बनाया है और वह ग्रंथ जैनिप्रतिज्ञा-वाक्य दिया है: योंके किसी भी प्रसिद्ध भंडारमें न होकर 'दक्कन पूर्वाचार्यथा प्रोक्तं दुर्गाद्येलादिभिर्यथा। कालिज पूना' की लायब्रेरीमें मौजूद है । चूंकि गृहीत्वा तदभिप्रायं तथा रिष्टं वदाम्यहम् ॥३०-१०॥ यह ग्रंथ उसी विषयसे सम्बंध रखता था जिसके ' अर्थात्-'दुर्गादि और एलादिक नामके कथनकी प्रतिज्ञाका ऊपर उल्लेख है इस लिए पूर्वाचार्योंने रिष्टसंबंधों जैसा कुछ वर्णन किया इसको मँगानेकी कोशिश की गई। अन्तको, है उसके आभिप्रायको लेकर मैं वैसे ही यह श्रीयुत पं० नाथूरामजी प्रेमीने अपने मित्र रिष्टका कथन करता हूँ' । इस प्रतिज्ञावाक्यसे श्रीयुत मोहनलाल दलीचंदजी देसाई, वकील स्पष्ट है कि ग्रंथकर्ताने दुर्गादिक और एलादिक बम्बई हाईकोर्टकी मार्फत पूनाकी लायब्रेरीसे नामके आचार्योंको ‘पूर्वाचार्य' माना है। उक्त ग्रंथको मँगाकर उसे मेरे पास भेज देनेकी वे ग्रंथकर्तासे पहले होगये हैं और उन्होंने कृपा की । देखनेसे मालूम हुआ कि ग्रंथ प्राकृत रिष्ट या अरिष्टके सम्बंधमें कोई ग्रंथ लिखे हैं भाषामें है, उसमें २६० (२५८+२) गाथायें जिनके आधार ग्रंथकर्ताने यहाँ कथनकी प्रतिज्ञा हैं और उसकी वह प्रति एक पुरानी और जीर्णकी है । ऐसी हालतमें उक्त आचार्यों और शीर्ण है । बड़ी सावधानीसे संहिताके साथ उनके ग्रंथोंकी खोज लगानेकी जरूरत पैदा उसका मिलान किया गया और मिलानसे. For Personal & Private Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + भदबाहु-संहिता । भद्रबाह-संहिता। ४३७ निश्चय हुआ कि, ऊपरके प्रतिज्ञावाक्यमें जिन दुर्गदेवका यह 'रिष्टसमुच्चय ' शास्त्र विक्रम 'दुर्ग' नामके आचार्यका उल्लेख है वे निःस- संवत् १०८९ का बना हुआ है। जैसा कि न्देह ये ही 'दुर्गदेव' हैं और इनके इसी इसकी प्रशस्तिमें दिये हुए निम्न पद्यसे प्रगट है:'रिष्टसमुच्चय ' शास्त्रके आधार पर संहिताके संवत्थर इगसहसे बोलीणे नवयसीइ संजुत्ते इस प्रकरणकी प्रधानतासे रचना हुई है। सावणसुक्के यारसि दियहम्मि मूल रिक्खम्मि २५७ वास्तवमें इस शास्त्रकी १०० से भी अधिक दुर्गदेवका समय मालूम हो जानेसे, ग्रंथमुखसे गाथाओंका आशय और अनुवाद इस संहितामें ही, यह विषय बिलकुल साफ हो जाता है और पाया जाता है । अनुवादमें बहुधा मूलके इसमें कोई संदेह बाकी नहीं रहता कि यह शब्दोंका अनुकरण है और इस लिए अनेक भद्रबाहुसंहिता ग्रंथ भद्रबाहु श्रुतकेवस्थानों पर, जहाँ छंद भी एक है, वह मूलका वलीका बनाया हुआ नहीं है, न उनके छायामात्र हो गया है। नमनेके तौर पर यहाँ किसी शिष्य-अशिष्यका बनाया हुआ है दोनों ग्रंथोंसे कुछ पद्य उद्धृत किये जाते हैं और न वि० सं०१०८९ से पहलेहीका जिससे इस विषयका पाठकोंको अच्छा अनुभव बना हुआ है। बल्कि उक्त संवत्से बादकाहो जायः विक्रमकी ११ वीं शताब्दीसे पीछेका बना हुआ है और किसी ऐसे व्यक्तिद्वारा १-करचरणेमु अ तोयं, दिन्नं परिसुसइ जस्स निभंतं । बनाया गया है जो विशेष बुद्धिमान न हो कर सो जीवइ दियह तयं, इह कहि पुव्वसूरीहिं॥३३॥ (रिष्टस०) साधारण मोटी अकलका आदमी था । यही पाणिपादोपरि क्षिप्तं तोयं शीघ्र विशष्यति । वजह है कि उसे ग्रंथमें उक्त प्रतिज्ञावाक्यको दिनत्रयं च तस्यायुः कथितं पूर्वसूरिभिः ॥ १८॥ . रखते हुए यह खयाल नहीं आया कि मैं इस (भद्र० संहिता) ग्रंथको भद्रबाहु श्रुतकेवलीके नामसे बना रहा २-बीआए ससिबिंबं, नियइ तिसिंगं च सिंगपरिहाणं। हूँ-उसमें १२ सौ वर्ष पीछे होनेवाले विद्वानका उवरम्मि धूमछायं, अह खंडं सो न जीवेइ ॥ ६५॥ नाम और उसके ग्रंथका प्रमाण न आना (रि०सं) चाहिए । मालूम होता है कि ग्रंथकर्ताने जिस द्वितीयायाः शशिबिंब, पश्येत्रिशृंगं च शृंगपरिहीनं। प्रकार अन्य अनेक प्रकरणोंको दूसरे ग्रंथोंसे उपरि सधूमच्छायं, खंडं वा तस्य गतमायुः॥ ४३॥ उठाकर रक्खा है उसी प्रकार यह रिष्टकथन (संहिता) या कालज्ञानका प्रकरण भी उसने किसी दूसरे ३-अहव मयंकविहीणं, मलिणं चंदं च पुरिससारित्थं। ग्रंथसे उठाकर रक्खा है और उसे इसके उक्त सो जीयइ मासमेगं, इय दिदं पुव्वसूरीहिं ॥ ६६ ॥ प्रतिज्ञावाक्यको बदलने या निकाल देनेका (रि० सं) स्मरण नहीं रहा । सच है 'झूठ छिपायेसे अथवा मृगांकहीनं, मलिनं चंद्रं च पुरुषसादृश्यं । नहीं छिपता। फारसीकी यह कहावत यहाँ प्राणी पश्यति नूनं, मासादूर्ध्व भवान्तरं याति ॥४४॥ ॥ बिलकुल सत्य मालूम होती है कि 'दरोग गोरा (संहि.) ४-इय मंतियसव्वंगो, मंती जोएउ तत्थ वर छायं। हाफ़जा न बाशद'-अर्थात् असत्यवक्तामें सुहदियहे पुव्वण्हे, जलहरपवणेण परिहीणे ७१ (रि०) धारणा और स्मरणशक्तिकी त्रुटि होती है। वह इति मंत्रितसागो, मंत्री पश्यनरस्य वरछायां। प्रायः पूर्वापरका यथेष्ट संबंध सोचे बिना मुंहसे शुभीदवसे पूर्वाण्डे, जलधरपवनेन परिहीनं ४९ (संहिता) जो आता है निकाल देता है । उसे अपना For Personal & Private Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ aummnIOmmmmmmmmARAILORD ४३० + जैनहितेषी असत्य छिपानेके लिए आगे पीछेके कथनका जन्मनिष्क्रमणस्थानज्ञाननिर्वाणभूमिषु । ठीक सम्बन्ध उपस्थित नहीं रहता-इस बातका अन्येषु पुण्यदेशेषु नदीकूलनगेषु च ॥ ३५-४॥ पूरा खयाल नहीं रहता कि मैंने अभी क्या इनमेंसे पहला श्लोक उक्त प्रतिष्ठापाठके दूसरे कहा था और अब क्या कह रहा हूँ। मेरा यह परिच्छेदमें नं. ५ पर और दूसरा श्लोक तीसरे कथन पहले कथनके अनुकूल है या प्रतिकूल- परिच्छेदमें नं० ३ पर दर्ज है। इससे प्रगट है इस लिए वह पकड़में आ जाता है और उसका कि यह ग्रंथ 'प्रतिष्ठासारसंग्रह' से पीछेका बना सारा झूठ खुल जाता है । ठीक यही हालत हुआ है । इस प्रतिष्ठापाठके कर्ता वसुनन्दिका कूट लेखकों और जाली ग्रंथ बनानेवालोंकी समय विक्रमकी १२ वी १३ वीं शताब्दी पाया होती है । वे भी असत्यवक्ता हैं। उन्हें भी इस जाता है । इसलिए यह ग्रंथ, जिसमें वसुनन्दिके प्रकारकी बातोंका पूरा ध्यान नहीं रहता और वचनोंका उल्लेख है, वसुनन्दिसे पहलेका न होकर इस लिए एक न एक दिन उन्हींकी कृतिसे विक्रमकी१२वीं शताब्दीके बादका बना हुआ है। उनका वह सब कूट और जाल पकड़ा जाता ७ पंडित आशाधर और उनके बनाये है और सर्व साधारण पर खुल जाता है। यही हुए 'सागारधर्मामृत' से पाठक जरूर परिचित सब यहाँ पर भी हुआ है । इसमें पाठकोंको कुछ होंगे। सागारधर्मामृत अपने टाइपका एक अलग आश्चर्य करनेकी जरूरत नहीं है । आश्चर्य ही ग्रंथ है। इस ग्रंथके बहुतसे पद्य संहिताके उन विद्वानोंकी बुद्धि पर होना चाहिए पहले खंडमें पाये जाते हैं, जिनमेंसे दो पद्य जो ऐसे ग्रंथको भी भद्रबाहु श्रुतकेवलीका इस प्रकार हैं:बनाया हुआ मान बैठे हैं । अस्तु । अब इस धर्म यशः शर्म च सेवमानाः लेखमें आगे यह दिखलाया जायगा कि यह केप्येकशः जन्म विदुः कृतार्थम् । ग्रंथ विक्रमकी ११ वीं शताब्दीसे कितने पीछेका अन्ये द्विशो विद्म वयं त्वमोघाबना हुआ है। न्यहानि यान्ति त्रयसेवयैव ॥ ३-३६३॥ ६ वसुनन्दि आचार्यका बनाया हुआ निर्व्याजया मनोवृत्या सानुवृत्या गुरोमनः ॥ ' प्रतिष्ठासारसंग्रह ' नामका एक प्रसिद्ध प्रविश्य राजवच्छश्वद्विनयेनानुरंजयेत् ॥ १०-७२ प्रतिष्ठापाठ है । इस प्रतिष्ठापाठके दूसरे परि इनमेंसे पहला पद्य सागारधर्मामृतके पहले अध्याच्छेदमें ६२ श्लोक हैं, जिनमें 'लग्नशुद्धि ' का यका १४ वाँ और दूसरा पद्य दूसरे अध्यायका वर्णन है और तीसरे परिच्छेदमें ८८ श्लोक ४६ वाँ पद्य है । इससे साफ जाहिर है कि यह हैं, जिनमें 'वास्तुशास्त्र' का निरूपण है । संहिता सागारधर्मामृतके बादकी बनी हुई है। दूसरे परिच्छेदके श्लोकोंमेंसे लगभग ५० श्लोक सागारधर्मामृतको पं० आशाधरजीने टीकासहित और तीसरे परिच्छेदके श्लोकोंमेंसे लगभग ६० बनाकर विक्रमसंवत् १२९६ में समाप्त किया श्लोक इस ग्रंथके दूसरे खंडमें क्रमशः 'मुहूर्त' , है। इसलिए यह संहिता भी उक्तं संवत्के और 'वास्तु ' नामके अध्यायोंमें उठाकर रक्खे बादकी-विक्रमकी १३ वीं शताब्दीसे पीछेकीगये हैं। उनमेंसे दो श्लोक नमनेके तौर पर बनी हुई है। इस प्रकार हैं: ८ इस ग्रंथके तीसरे खंडमें,' 'फल' नामक पुनर्वसूत्तरापुष्पहस्तश्रवणरेवती। नौवें अध्यायका वर्णन करते हुए, सबसे पहले रोहिण्यश्विमृगद्धेषु प्रतिष्ठां कारयेत्सदा ॥२७-११॥ जो श्लोक दिया है वह इस प्रकार है:-- For Personal & Private Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ amIIIIIIIII भद्रबाहु-संहिता। ४३९ प्रणम्य वर्धमानं च जगदानंददायकम् । 'बाहुजाः' के स्थानमें उसका पयायवाचक पद प्रणिधाय मनो राजन् सर्वेषां शृणु तत्फलम् ॥ १॥ 'क्षत्रियाः ' बनाया गया है । भद्रबाहुचरित्रमें, ___ यह श्लोक बड़ा ही विलक्षण है। इसमें लिखा इस फलवर्णनसे पहले, राजा चंद्रगुप्त और उसके है कि-'जगत्को आनंद देनेवाले वर्धमानको नम- स्वप्नादिकोंका सब संबंध देकर उसके बाद नीचे स्कार करके (क्या कहता हूँ, ऐसी प्रतिज्ञा, लिखा वाक्य दिया है, जिससे वहाँ पर 'राजन' आगे कुछ नहीं ) हे राजन् तुम उन सबका फल और 'तत् ' शब्दोंका सम्बंध ठीक बैठता है चित्त लगाकर सुनो।' परन्तु इससे यह मालूम और उस वाक्यमें भी कोई असम्बद्धता मालूम न हुआ कि राजा कौन, जिसको सम्बोधन करके नहीं होती:कहा गया और वे सब कौन, जिनका फल प्रणिधाय मनो राजन् समाकर्णय तत्फलम् ॥३१॥ सुनाया जाता है। ग्रंथमें इससे पहले कोई भी यह वही वाक्य है जो जरासे गैरज़रूरी ऐसा प्रकरण या प्रसंग नहीं है जिसका इस परिवर्तनके साथ ऊपर उद्धृत किये हुए श्लोक श्लोकके 'राजन्' और 'तत्' शब्दोंसे सम्बन्ध हो नं. १ का उत्तरार्ध बनाया गया है। इन सब सके। इस लिए यह श्लोक यहाँपर बिलकुल भद्दा बातोंसे जाहिर है कि यह सब प्रकरण रत्ननन्दिके और निरा असम्बद्ध मालूम होता है । इसके आगे भद्रबाहुचरित्रसे उठाकर यहाँ रक्खा गया है और ग्रंथमें, श्लोक नं० १८ तक उन १६ स्वमोंके इसलिए यह ग्रंथ उक्त भद्रबाहुचरित्रसे पीछेका फलका वर्णन है जिनका सम्बन्ध राजा चंद्रगुप्तसे बना हुआ है । रत्ननन्दिका भद्रबाहुचरित्र विक्रकहा जाता है और जिनका उल्लेख रत्ननन्दिने मकी १६ वीं शताब्दीके अन्तका या १७ वीं अपने 'भद्रबाहुचरित्र' में किया है । स्वप्नोंका शताब्दीके शुरूका बना हुआ माना जाता है । यह सब फल-वर्णन प्रायः उन्हीं शब्दोंमें दिया परन्तु इसमें तो किसीको कोई सन्देह नहीं है कि है जिनमें कि वह उक्त भद्रबाहुचरित्रके दूसरे वह वि० सं० १५२७ के बाद का बना हुआ जरूर परिच्छेदमें श्लोक नं० ३२ से ४८ तक पाया है। क्योंकि उसके चौथे अधिकारमें इस संवत्का जाता है। सिर्फ किसी किसी श्लोकमें दो एक लुंकामत (दूँढ़ियामत ) की उत्पत्तिकथनके शब्दोंका अनावश्यक परिवर्तन किया गया है। साथ उल्लेख किया है * । ऐसी हालतमें यह ग्रंथ जैसा कि नीचे लिखे दो नमूनोंसे प्रगट है:- भी वि० सं० १५२७ से पीछेका बना हुआ है, १-रवेरस्तमनालोकात्कालेऽत्र पंचमेऽशुभे। इसमें कुछ संदेह नहीं हो सकता। एकादशागपूर्वादिश्रुतं हीनत्वमेष्यति ॥ ३२॥ ९ हिन्दुओंके ज्योतिष ग्रंथोंमें 'ताजिक -भद्रबाहुचरित्र। नीलकंठी ' नामका एक प्रसिद्ध ग्रंथ है। यह भद्रबाहुसंहिताके उक्त 'फल' नामके अध्यायमें अनन्तदैवज्ञके पुत्र 'नीलकंठ ' नामके प्रसिद्ध यही श्लोक नं. ३ पर दिया है। सिर्फ 'रवे- विद्वानका बनाया हुआ है । इसके बहुतसे पद्य रस्तमनालाकात् 'के स्थानमें ' स्वप्ने सूर्या- संहिताके दूसरे खंडमें-' विरोध ' नामके ४३ स्तावलोकात बदला हुआ है। वें अध्यायमें-कुछ परिवर्तनके साथ पाये जाते २-तुंगमातंगमासीनशाखामृगनिरीक्षणात् । * यथाः- मृते विक्रमभूपाले सप्तविंशतिसंयुते राज्यहीना विधास्यन्ति कुकुला न च बाहुजाः॥४३॥ दशपंचशतेऽब्दानामतीते शणुता परम् ॥ १५ ॥ भद्रबाहुसंहिताके उक्त अध्यायमें यह भद्रबाहु- लुंकामतमभूदेकं लोपकं धर्मकर्मणः । देशेऽत्रगौ रे चरित्रका श्लोक नं० १३ पर दिया है। सिर्फ ख्याते विद्वत्ताजितनि मेरे ॥ १५८ ॥ For Personal & Private Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४० जैनहितैषी MITRA हैं । यहाँ पर उनमें से कुछ पद्य, उदाहरणके तौर परिवर्तित रूप हैं । ताजिकग्रंथोंकी उत्पत्ति यवनपर, उन पद्योंके साथ प्रकाशित किये जाते हैं ज्योतिष परसे हुई है, जिसको बहुत अधिक समय जिन परसे वे कुछ परिवर्तन करके बनाये गये नहीं बीता, इसलिए इन शब्दोंको यवन-ज्योतिषमें मालूम होते हैं: प्रयुक्त संज्ञाओंके अपभ्रंशरूप समझना चाहिए । १-क्रूरमशरिफोऽब्देशो जन्मेशः क्रूरितः शुभैः। दूसरे पद्योंमें 'इत्थिसाल' (इत्तिसाल) कंबूलेपि विपन्मृत्युरित्थमन्याधिकारतः ॥२-३-४ ॥ आदि और भी इस प्रकारके अनेक शब्दोंका -ताजिक नलिकंठी । प्रयोग पाया जाता है । अस्तु । इन सब बातोंसे अब्देशः क्रूरमूशरिफः शुभैर्जन्मेशः ऋरितः।। कंबूलेपि विपन्मृत्युरित्थं वर्षेशमुन्थहे ॥ ४८ ॥ मालूम होता है कि संहितामें यह सब प्रकरण -भ.संहिता। या तो नीलकंठीसे परिवर्तित करके रक्खा गया २-अस्तगौ मुथहालग्ननाथौ मंदेक्षितौ यदा। है अथवा किसी ऐसे ग्रंथसे उठाकर रक्खा गया सर्वनाशोमृतिः कष्टमाधिव्याधिभयं भवेत् ॥-५॥ है जो नीलकंठी परसे बना है और इस लिए सर्वनाशो मतिः कष्टमाधिभयं भवेत् ॥५॥ यह संहिता 'ताजिक नीलकंठी ' से पीछे बनी -ता. नी० हुई है, इसमें कोई संदेह नहीं रहता। नीलयदा मंदक्षितौ मुथहा-लग्ननाथावधोगतौ । कंठका समय विक्रमकी १७ वीं शताब्दीका सर्वनाशो मृतिः कष्टमाधिव्याधिरुजां भयं ॥४७॥ " पूर्वार्ध है । उनके पुत्र गोविन्द दैवज्ञने, अपनी गुरुः केन्द्रे त्रिकोणे वा पापादृष्टः शुभेक्षितः। ३४ वर्षकी अवस्थामें, 'मुहूर्तचिन्तामणि, लमचन्द्रन्थिहारिष्टं विनश्यार्थसुखं दिशेत् ॥ ४-२॥ पर 'पीयूषधारा' नामकी एक विस्तृत टीका -ता. नी. लिखी है और उसे शक सं० १५२५ अर्थात् पापादृष्टो गुरुः केन्द्र त्रिकोणे वा शुभेक्षितः। वि० से० १६६० में बनाकर समाप्त किया है। लग्नसोमेन्थिहारिष्टं विनश्यार्थसुखं दिशेत् ॥ ५६॥ . इस समयसे लगभग २० वर्ष पहलेका समय -भ० सं० ऊपरके पद्योंसे पाठकोंको दो बातें मालम होंगीं। ताजिक नीलकंठीके बननेका अनुमान किया एक यह कि नीलकंठीके पद्योंसे संहिताके जाता है और इस लिए कहना पड़ता है कि पद्योंमें जो भेद है वह प्रायः नीलकंठीके शब्दोंको यह संहिता विक्रम सं० १६४० के बादकी आगे पीछे कर देने या किसी शब्दके स्थान में बनी हुई हैं। उसका पर्यायवाचक शब्द रख देने मात्रसे उत्पन्न १० इस ग्रन्थके दूसरे खंडमें, २७ वें किया गया है और इससे परिवर्तनका अच्छा - अध्यायका प्रारंभ करते हुए सबसे पहले यह अनुभव हो जाता है । इस परिवर्तनके द्वारा दूसरे वार वाक्य दिया है:पद्यके पहले चरणमें एक अक्षर बढ़ गया है-८ के " तत्रादौ च मुहूर्तानां संग्रहः क्रियते मया ॥" स्थानमें ९ अक्षर हो गये हैं और चौथे चरणमें यद्यपि इस वाक्यमें आये हुए 'तत्रादौ' 'व्याधि के होते हुए 'रु' शब्द व्यर्थ शब्दोंका ग्रंथ भरमें पहलेके किसी भी कथनसे पड़ा है। दूसरी बात यह है कि इन पद्योंमें मूश - कोई सम्बंध नहीं है और इस लिए वे कथनकी रिफ (मुशरिफ़), कंबूल (क़बूल), मुथहा, - असम्बद्धताको प्रगट करते हुए इस बातको मुन्थहा (मुन्तिही ), इन्थिहा (इन्तिहा) सूचित करते हैं कि यह वाक्य किसी दूसरे ये शब्द जो पाये जाते हैं वे संस्कृत भाषाके १इसका अर्थ होता है-वहाँ,आदिमें, उसके आदिमें, शब्द नहीं हैं । अरबी-फारसी भाषाके अथवा उनमें सबसे पहले। For Personal & Private Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ JHANTALIMINIMI LARIHARATALAILI भद्रबाहु-संहिता। ४४१ Jथसे उठाकर रक्खा गया है जहाँ उसे उक्त क्षिप्रध्रुवाहिचरमूलमृदुत्रिपूर्वा, ग्रंथके कर्ताने अपने प्रकरणानुसार दिया होगा। रौद्रेऽर्कविद्गुरुसितेन्दुदिने व्रतं सत् । परन्तु इसे छोड़कर इस वाक्यमें मुहूतौका द्वित्रीषुरुद्ररविदिक् प्रमिते तिथौ च, संग्रह करनेकी प्रतिज्ञा की गई है। लिखा है कि कृष्णादिमत्रिलवकेपि न चापराह्ने ।। १७२ ॥ मेरे द्वारा मुहूर्तोंका संग्रह किया जाता है, अर्थात् यह पद्य मुहूर्तचिन्तामाणके पाँचवें संस्कारमैं इस अध्यायमें मुहूर्तोंका संग्रह करता हूँ। यह प्रकरणका ४० वाँ पद्य है । इससे साफ़ जाहिर है वाक्य श्रुतकेवलीका बतलाया जाता है। ऐसी कि यह संहिता ग्रंथ मुहूर्तचिन्तामाणसे बादका हालतमें पाठक सोचें और समझें कि यह कैसा अर्थात् वि०सं०१६५७से पीछेका बना हुआ है। अनोखा और असमंजस मालूम होता है। श्रत- यहाँतकके इस संपूर्ण कथनसे यह तो सिद्ध केवली और महर्लोका संग्रह करें ? जो स्वयं हो गया कि, यह खंडत्रयात्मक ग्रंथ (भद्रद्वादशांगके पाठी और पूर्ण ज्ञानी हों-जिनका बाहुसंहिता) भद्रबाहु श्रुतकेवलीका बनाया प्रत्येक वाक्य संग्रह किये जानेके योग्य हो-वे हुआ नहीं है, न उनके किसी शिष्यप्रशिखुद ही इधर उधरसे मुहूर्तोंके कथनको इकट्ठा ष्यका बनाया हुआ है और न वि. सं. करते फिरें ! यह कभी नहीं हो सकता । वास्त . १६५७ से पहलेहीका बना हुआ है; वमें यह सारा ही ग्रंथ भद्रबाहु श्रुतकेव बल्कि उक्त संवत्से पीछेका बना हुआ है। लीका बनायाहुआ न होकर इधर उधरके परन्तु कितने पीछेका बना हुआ है और किसने प्रकरणोंका एक बेढंगा संग्रह है-जैसा कि गया है। __ बनाया है, इतना सवाल अभी और बाकी रह ऊपर दिखलाया गया है और अगले लेखोंमें, असम्बद्ध विरुद्धादि कथनोंका उल्लेख करते हुए। . भद्रबाहुसंहिताकी वह प्रति जो झालरापाटऔर भी अच्छी तरहसे दिखलाया जायगा । इस- . नके भंडारसे निकली है और जिसका ग्रंथ-प्राप्तिलिए इस ग्रंथमें उक्त प्रतिज्ञाके अनुसार मुहूर्तोंका " के इतिहासमें ऊपर उल्लेख किया गया है वि. भी अनेक ग्रंथों परसे संग्रह किया गया। सं० १६६५ की लिखी हुई है। इससे स्पष्ट है अर्थात् दूसरे ग्रंथोंके वाक्योंको उठा उठाकर कि, यह ग्रंथ वि० सं० १६६५ से पहले बन चुका रक्खा है । उन ग्रंथों में महर्तचिन्तामणि, था और वि० सं० १६५७ से पीछेका बनना नामका भी एक प्रसिद्ध ग्रंथ है, जिसे नीलकंठके . उसका ऊपर सिद्ध किया जा चुका है। इस लिए छोटे भाई रामदैवज्ञने शक संवत् १५२२ (वि० यह ग्रंथ इन दोनों सम्वतों (१६५७-१६६५) ९ के मध्यवर्ती किसी समयमें सात आठ सं० १६५७ ) में निर्माण किया है। इस ग्रंथसे वर्षके भीतर-बना है, इस कहनेमें कोई संकोच र भी अनेक पद्य उठाकर उक्त अध्यायमें रक्खे । नहीं होता। यही इस ग्रंथके अवतारका समय गये हैं, जिनमेंसे एक पद्य, उदाहरणके तौरपर, है। अब रही यह बात कि, ग्रंथ किसने बनाया, यहाँ उद्धृत किया जाता है: इसके लिए झालरापाटनकी उक्त प्रतिके + यथाः अन्तमें दी हुई लेखककी इस प्रशस्तिको गौरसे तदात्मज उदारधीविबुधनीलकंठानुजो, गणेशपदपंकजं हृदि निधाय रामाभिधः । गिरीशनगरे वरे “संवत्सर १६६५ का मृगसिर सुदि १० लिपीभुजभुजेषुचंद्रमिते ( १५२२ ), शके विनिरमादिमं कृतं ज्ञानभूषणेन गोपाचलपुस्तकभंडार धर्मभूषणमुहूर्तचिन्तामणिम् ॥ १४-३ ॥ जीकी सुं लिषी या पुस्तक दे जीनै जिनधर्मका शपथ ढ़नकी For Personal & Private Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४२ जैनहितैषी । हजार छै। मुनिपरंपरा सूं विमुख छै । तीसूं न देणी । सूरि भी नहीं देवै । एक वार धर्मभूषण स्वामी दो चार स्थल मांगे दिये सो फेरि पुस्तक नहीं आई । तदि वामदेवजी फेर शुद्धकरि लिषी तयार करी । तीसूं नहीं देणी । " पुस्तक- परिचय | १ सूक्तिमुक्तावली । सोमप्रभाचार्यका यह प्रसिद्ध ग्रन्थ कई जगह छप चुका है । इस संस्करणमें एक विशेषता यह है कि साथ ही एक सरल संस्कृत टीका लगा दी गई है जो विद्यार्थियोंके लिए विशेष उपयोगी है । टीकाकारने अपना नाम नहीं दिया है; पर जान पड़ता है कि वे दिगम्बर सम्प्रदाय के अनुयायी अवश्य हैं । संस्कृतटीकाके नीचे मराठी अर्थ दिया है जिसके लेखक माणगांव ( कागल) के कालचन्द्र जिनदत्त उपाध्याय हैं । आपने भूमिकामें लिखा है कि 'अभी तक इसकी संस्कृतटीका कहीं नहीं छपी थी; ' परन्तु हमारे पुस्तकालय में भावनगरकी किसी जैनसभाके द्वारा लगभग ३०-३५ वर्ष पहले छपाई हुई श्रीचन्द्रकीर्तिविनेय हर्षकीर्तिसूरिकृत संस्कृतटीका मौजूद है । इसके ऊपरका एक पृष्ठ हो गया है । आश्चर्य नहीं जो कहीं अन्यत्रसे भी इसकी और और टीका में प्रकाशित हुई हों । पुस्तक की छपाई अच्छी है; पर प्रारंभ में ही ६ पेजका शुद्धिपत्र देखकर दुःख होता है । प्रकाशकोंके द्वारा संशोधनमें इस प्रकारका प्रमाद होना बहुत खटकता है । पुस्तकका मूल्य आठ है । मिलनेका पता - " बी. ए. संकेश्वरे, श्रीवर्द्धमानप्रेस, गुरुवार पेठ, निपाणी (बेलगाँव ) । " ऊपरकी इस प्रशस्तिसे, जो कि ग्रंथ बनने के अधिक समय बादकी नहीं है, साफ ध्वनित होता है कि यह ग्रंथ गोपाचल ( ग्वालियर ) के भट्टारक धर्मभूषणजीकी कृपाका एक मात्र फल है । वही उस समय इस ग्रंथके सर्व सत्वाधिकारी थे। उन्होंने वामदेव सरीखे अपने किसी कृपापात्र या आत्मीयजनके द्वारा इसे तय्यार कराया है, अथवा उसकी सहायता से स्वयं तय्यार किया है । तय्यार हो जानेपर जब इस ग्रंथके दो चार अध्याय किसीको पढ़ने के लिए दिये गये और वे किसी कारणसे वापिस नहीं मिलसके तब वामदेवजीको फिरसे दुबारा उनके लिए परिश्रम करना पड़ा । जिसके लिए प्रशस्तिका यह वाक्य 'तदि वामदेवजी फेर शुद्ध करि लिषी तयार करी—' खास तौरसे ध्यान दिये जाने के योग्य है और इस बातको सूचित करता है कि उक्त अध्यायोंको पहले भी वामदेवने ही तय्यार किया था मालूम होता है कि लेखक ज्ञानभूषणजी धर्मभूषण भट्टारकके परिचित व्यक्तियोंमें थे और आश्चर्य नहीं कि वे उनके शिष्यों में भी हों । उनके द्वारा खास तौरसे यह प्रति लिखाई गई है। उन्होंने प्रशस्तिमें अपने स्वामी धर्म - भूषणकी ग्रंथ न देने संबंधी आज्ञाका - जो संभवतः उक्त अध्यायके वापिस न आने पर दी गई होगी - उल्लेख करते हुए भोलेपनसे उसके कारणका भी उल्लेख कर दिया है, जिसकी वजहसे ग्रंथकर्ताके विषयमें उपर्युक्त विचारोंको स्थिर करनेका अवसर मिला है और इस लिए पाठकोंको उनके इस भोलेपनका आभारी होना चाहिए। ता० २९-९-१६! । I २ वर्णव्यवस्थापर विचार | लेखक पं० शिवकुमार शास्त्री । प्रकाशक, विश्वविद्याप्रचारक मण्डल, चन्दौसी- यू. पी. मूल्य एक आना । इस ४० पृष्ठकी छोटीसी पुस्तकमें यह बतलाया है कि वर्णव्यवस्था न जन्मसे मानना अच्छा है और न आर्यसमाजके समान कर्मसे । इसे सर्वथा ही उड़ा देना For Personal & Private Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुस्तक-परिचय।। mmmmmmmmmmm ४४३ चाहिए । इसके उड़ाये बिना देशकी उन्नति नहीं . ४ गद्यचिन्तामणि। . हो सकती । यह अस्वाभाविक है । जो इसके तंजौर-ट्रेनिंगस्कूलके अध्यापक श्रीयुत टी. भक्त हैं उनके यहाँ भी यह पाली नहीं जाती एस. कुप्पूस्वामी शास्त्री जनसाहित्यके बड़े ही है । प्रकृति भी अब इसे रहने नहीं देना चाहती। प्रेमी है। आपकी आर्थिक अवस्था अच्छी नहीं इत्यादि । यह विषय जितने महत्त्वका है, उतनी है, तो भी आपने कई अलभ्य जैन ग्रन्थोंको गंभीरतासे लेखक महाशयने इस पर विचार नहीं छपाकर प्रकाशित किया है। महाकवि वादीकिया । हमारी समझमें यह इस तरह जोशमें भसिंहका यह अपूर्व काव्य भी आपकी ही कृपासे आकर उड़ा देनेकी चीज नहीं है, इस पर जैनसमाजके दृष्टिगोचर हुआ था। पाठक यह सब ओरोंसे विचार होना चाहिए। जानकर प्रसन्न होंगे कि उक्त काव्यका अब यह ३ समाधितंत्र। दूसरा संस्करण प्रकाशित हुआ है। यह संस्कसमाधितंत्र आचार्य पूज्यपादका बनाया हुआ रण पहले संस्करणकी अपेक्षा अधिक शुद्ध प्रसिद्ध ग्रन्थ है । इसकी एक मराठी और एक और सुन्दर है। कपड़ेकी बढ़िया जिल्द बँधी हिन्दी टीकाकी समालोचना जैनहितैषीमें हो हुई है । मूल्य वही दो रुपया है। आशा है कि चुकी है । अब उसीकी यह एक गुजराती टीका हमारे संस्कृतज्ञ पाठक इस संस्करणकी एक एक भी प्रकाशित हुई है। इसे डाक्टर भूखणदास प्रति मँगाकर शास्त्रीजीके उत्साहको बढ़ायँगे। परभूदासने पर्वत धर्मार्थोकी पुरानी भाषाटीकाके शास्त्रीजी हिन्दी नहीं जानते, इस कारण उन्हें आधारसे लिखा है और शा कस्तूरचन्द धर्मच- आर्डरका पत्र अँगरेजी या संस्कृतमें लिखना न्दजीकी सहायतासे प्रकाशित करके विनामूल्य चाहिए। वितरण किया है । इसके गुजराती अनुवादको ५प्रभंजनचरित। पढ़नेका तो हमें समय नहीं मिला, इससे हम लेखक, पं० घनश्यामदासजैन न्यायतीर्थ उसके विषयमें तो कुछ राय नहीं दे सकते हैं; और प्रकाशक, जैनग्रन्थकार्यालय, ललितपुर परन्तु ग्रन्थके मूल श्लोक इतने अशुद्ध (झांसी)। पृष्ठसंख्या ४२ । मूल्य चार आने । पदच्छेदादिका खयाल रक्खे बिना छपे हैं कि 'यशोधरचरित ' नामक किसी संस्कृतग्रन्थकी जितने आजतक शायद ही किसी जैनग्रन्थमें छपे पीठिकामें प्रभंजनमुनिका चरित वर्णित है। हों । श्लोकोंकी संख्यातक नहीं दी गई है और पण्डितजीने उसीका यह हिन्दी रूपान्तर लिखा और ग्रन्थान्तरोंके तथा मूलके श्लोकोंमें कोई भी है; परन्तु यह बतलानेकी कृपा नहीं की कि भेद नहीं रक्खा गया है। ऐसे महत्त्वके ग्रन्थोंका उक्त 'यशोधरचरित' किसका बनाया हुआ है इस प्रकार असावधानीसे प्रकाशित होना बड़े ही और कहाँ पर है, जिसकी पीठिका या उत्थाखेदका विषय है। हम प्रकाशक महाशयकी, इस ग्रन्थको बिनामूल्य प्रकाशित करनेके कारण " निकामें यह चरित वर्णित है। उपलब्ध यशोजितनी प्रशंसा करेंगे, उससे कहीं अधिक उनकी धरचरितोंमें तो ऐसा कोई नहीं है जिसमें इस कारण निन्दा करेंगे कि उन्होंने ग्रन्थको इस प्रकारकी विस्तृत उत्थानिका हो । यदि सावधानीके साथ प्रकाशित नहीं किया। यह परिश्रम किया जाय तो संभव है कि मूलग्रन्थपरसे १७५ पृष्ठकी पुस्तक प्रकाशकके पास नवापुरा ग्रन्थकर्ताका पता चल जाय । ग्रन्थके प्रारंभमें सूरतसे ( शायद पोस्टेज भेजनेपर ) मिल प्रतिज्ञा की गई है कि 'प्रभंजनगुरोश्चरितं वक्ष्ये' सकेगी। अर्थात् प्रभंजन गुरुका चरित कहता हूँ । इसपर For Personal & Private Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४४ जैनहितैषी - से पण्डितजी अनुमान करते हैं कि यशोधरचरित प्रभंजन मुनिके किसी शिष्यका बनाया हुआ है । परन्तु यह अनुमान ठीक नहीं। सा क्षात् शिष्य ही किसीको 'गुरु' कह सकता हो, ऐसा नहीं है । गुरुका अर्थ साधारण जैनमुनि भी हो सकता है। प्रभंजन मुनिका चरित राजा पूर्णभद्रके पूछने पर श्रीवर्धन मुनिने कहा है और इसके बीचमें उन्होंने अपने और अपने साथी अन्य सात मुनियोंके वैराग्यका कारण भी पृथक् पृथक् बतलाया है। सात मुनियोंकी दीक्षाका कारण बतलाकर चौथे सर्गके अन्तमें उन्होंने कहा है कि आठवें नन्दमुनिके तपका हेतु यशोधर महाराजका चरित है ( जो आगे कहा जायगा ) । इससे मालूम होता है कि प्रभं - जन, नन्दिवर्धन, नन्द और यशोधर महाराज आदि सब समकालीन हैं, और इस लिए यशोधरचरितके रचयिता के लिए जिस प्रकार यशोधरमहाराज एक बहुत पुराने समय पुराण- पुरुष हैं उसी प्रकार प्रभंजन मुनि भी हैं । वे उनके गुरु या दादागुरु आदि कोई नहीं हो सकते । पण्डितजी चाहते, तो उन्हें यह बात थोड़े ही परिश्रमसे मालूम हो सकती थी । प्रभंजनमुनिका चरित्र स्त्रीचरित्रसे—स्त्रियोंके छल कपटोंसे भरा हुआ है। प्रभंजन मुनि और उनके साथी दूसरे आठ मुनि सभी स्त्रियोंके पापकर्मोंको देखकर विरागी हैं । मालूम नहीं उस समय केवल स्त्रियोंका ही चरित्र इतना गिरा हुआ था, या पुरुषों में भी यही बात थी । कथायें यद्यपि बहुत ही छोटी छोटी हैं, तो भी वे शुकबहत्तरीकी कथा - ओंके समान खूब ही कुतूहलवर्धक और मनोरंजक हैं । उनके पढ़नेमें जी लगता है । हमारे कथाग्रन्थोंमें इस श्रेणीकी कथायें बहुत ही कम हैं। अच्छा होता, यदि पण्डितजी इसके साथ हुए मूलग्रन्थको भी प्रकाशित कर देते । अनुवादक भाषा अच्छी है और वह अन्य पण्डितोंकी रचनाके समान क्लिष्ट नहीं है । इसके लिए हम पण्डितजीका अभिनन्दन करते हैं । ६ रस - क्रिया । ' यंत्र निर्माणका प्रामाणिक सचित्र सम्पादक, वैद्यरत्न पं० शिववक्स शर्मा गुरु, फतहपुर (सीकर) और प्रकाशक, बाबू जमना - दास पोद्दार, लाल कटरा, दिल्ली । मूल्य चार । निबन्ध ।' धातुओंके मारने या रस बनाने में जिन यंत्रों का उपयोग होता है, उनका स्वरूप इस संस्कृत पद्यनिबन्धमें बतलाया गया है । सम्पादक महाशयने अपने पुस्तकालय अ प्राचीन ग्रन्थोंसे उद्धृत करके इसे लिखा है । इस विषय के ग्रन्थ बहुत ही दुर्लभ हैं । अच्छा होता यदि पण्डितजी इसका हिन्दी अनुवाद भी साथ ही साथ प्रकाशित कर देते । यंत्र जो चित्र पीछेके पृष्ठोंमें दिये गये हैं, वे बहुत ही भद्दे और अस्पष्ट हैं | यदि किसी चित्रकारको समझाकर उससे ये चित्र बनवाये जाते, तो पाठकोंको बहुत लाभ होता । वे यंत्रोंके स्वरूपको अच्छी तरह समझ लेते । प्राप्तिस्वीकार । नमक सुलेमानी - ' श्रीयुत भाई गोरेलाल पन्नालाल जैन, चन्दाबाड़ी गिरगाँव, बम्बई ' से हमें एक शीशी नमक सुलेमानी मिला है । हमने कुछ दिनोंतक इसका उपयोग किया । यथेष्ट स्वादिष्ट न होनेपर भी यह बहुत गुणकारी है । खाते ही अजीर्ण पच जाता है। दस्त साफ आता है। एक अच्छे अनुभवी वैद्यके बतलाये हुए नुसखे के अनुसार यह बनाया गया है । छह तोलेकी एक शीशीका मूल्य आठ आने है । For Personal & Private Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शरदागम । . (ले० -श्रीयुत पं० रामचरित उपाध्याय । ) ( १ ) अति दुखदाई नीति दुर्जनों की होती है, पर सुखदाई वही सज्जनोंकी होती है । मेघों का उत्पात सदा जग स्मरण करेगा, पर आया अब शरत्काल दुख हरण करेगा ॥ ( २ ) धन पाकरके नीच अन्यको दुख देते हैं, वे ही हो धन-हीन सभीको सुख देते हैं । क्या करते थे मेघ वारिसे पूर्ण रहे जब, शान्त सुखद अति विशद हुए हैं वे कैसे अब ॥ (३) धुली हुई सी मही हुई है, जल निर्मल है, धूलि - कणोंसे हीन व्योम कैसा उज्ज्वल है । अन्याय के बाद भूप यदि न्यायी आवे, क्यों न देशकी दशा तुरंत ही पलटा खावे ॥ (8) काश कमल केवड़े अमित फूले हैं कैसे, मेघकी मृत्यु तुरत भूले हैं कैसे । या उत्पीड़क - पतन दुखद क्यों होगा जगमें ॥ कण्टक कैसे कभी रुचेगा अपने मगमें, (५) आबसते हैं सुभग राज्यमें जैसे सज्जन, . हंस और आबसे यहाँ वैसे ही खञ्जन । पर क्रमशः खद्योत दूर होते जाते हैं, दुष्ट कभी क्या भली जगह रहने पाते हैं ॥ ( ६ ) इन्द्र-धनुष अब नहीं दृष्टि- गोचर होता है, परदेशीका राग अधिक अस्थिर होता है । पर नभमें शुक पंक्ति छटा क्या दिखा रही है, मनो ऐक्यकी प्रथा हमें यह सिखा रही है ॥ उद्धतपनको छोड़ सूखती हैं सरितायें, पातित्रत ज्यों पाल रही हों पतिव्रतायें । उनके दोनों कूल रहित हो गये पंकसे, ज्यों सतियोंके चरित हीन हों दुष्कलंकसे ॥ ( ८ ) चातक दादुर मोर मौन हो छिपे कहीं हैं, कोयल भी निज कूक सुनाती कभी नहीं है । धूर्तों की धूर्तता सदा क्या चल सकती है, या विधिकी लिपि कभी किसी विधि टल सकती है ॥ ( ९ ) जब अज्ञान-तमिस्र मनुजका खो जाता है, निजहित में तब दत्तचित्त वह हो जाता है । मेघाडम्बर दूर हुआ है बाधक जबसे, निज उन्नतिमें लगा हुआ है यह जग तबसे ॥ ( १० ) नृप उदारकी प्रजा स्वत्व पाती है जैसे, सुख जीवनका और तत्त्व पाती है जैसे । उसी भाँति व्यापार - लग्न संसार हुआ है, शरदागमसे सत्य बड़ा उपकार हुआ है ॥ ( ११ ) सुख-साधनके लिए यही उत्तम अवसर है, शीत-भीति है नहीं, नहीं आतपका डर है । सब होकर के एक, देशके प्राण बचाओ, दुख दानवको शीघ्र देशसे दूर भगाओ ॥ (७) For Personal & Private Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजनीतिके मैदानमें आओ! SALADHE (ले०-श्रीयुत ब्र. भगवानदीनजी ।) । जिनकी प्रतिमायें हमारे मन्दिरोंमें विरा- बनकर पल्टनमें दाखिल होने जाइए; परन्तु जमान हैं वे सब ऐसे पुरुष थे जिन्होंने यह जानकर कि आप बनियें हैं तुरन्त अपनी घोर तपस्या द्वारा निर्वाणपद प्राप्त निकाल बाहर कर दिये जायेंगे ! यह बात किया था । वे सब क्षत्रियकुलमें उत्पन्न हमारी समझमें नहीं आती कि सारे ही हुए थे और उनमेंसे अधिकांशने बड़े बड़े क्षत्रिय हमारा-जैनधर्मका-साथ छोडकर राज्योंका संचालन किया था । भगवान् चले गये हों और बीचमें मिले हुए बनियें ऋषभदेवजीने प्रजाके हितके लिए ही बनियें हम सब रह गये हों । क्योंकि अगणित काम बतलाये थे जो अब तक इस प्रकारका कोई प्रमाण या उदाहरण जारी हैं । यदि यह कहा जाय कि उन्होंने नहीं मिलता । इस सम्बन्धमें हमको एक प्रजाको सभ्यता सिखलाई थी, तो कुछ बात याद आती है-। जब कुँवर दिग्विजयअत्युक्ति न होगी । हमारे अन्तिम तीर्थकर सिंहजी आश्रमके भ्रमणमें हमारे साथ थे महावीर जब हमसे बिदा हुए, तब भी तब अनेक स्थानोंमें वहाँके जैनी भाई अन्य हमारी अवस्था खासी थी और हमारे रीति- लोगोंको उनका परिचय देते हुए कहते रिवाज बहुत सीधीसादे क्षत्रियोंके जैसे ही थे-" पहले आप क्षत्रिय थे; परन्तु अब जैन थे । हमारे सारे पुराणपुरुष भी क्षत्रिय हो गये हैं । " अभिप्राय यह कि साधारण वंशके थे, ऐसा उल्लेख मिलता है। कुछ लोगोंकी अब यह धारणा ही नहीं रही है कि उपपुराणोंमें क्षत्रिय और वैश्य दोनोंका जैनोंमें वैश्योंके अतिरिक्त और कोई-क्षत्रिय कथन पाया जाता है-अर्थात् उनमें वैश्य आदि-भी गिने जा सकते हैं । जैन कहनेसे भी जैनधर्मके धारक बतलाये गये हैं, परन्तु अब केवल वैश्योंका बोध होता है। इस समय तो जितने जैनधर्मावलम्बी हैं वे इस विषयमें जब हम विचार करते हैं प्रायः सब ही वैश्य हैं। अक्सर लोग पूछ तब यह निश्चित होता है कि पार्श्वनाथबैठते हैं कि “.बनियाँ (वैश्य), क्या स्वामीके पश्चात् जब जैनधर्म बिल्कुल लुप्त यह कोई बुरी बात है ? " पर हम पूँछते हो गया, तब महावीरस्वामीका जन्म हुआ। हैं कि “ तो क्या यह कोई अच्छी बात इस समय हिंसाका प्रचार बहुत बढ़ चुका है ? " आप कितने ही अच्छे पहलवान् था । इसके रोकनेके महत्कार्यके लिए एक For Personal & Private Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Am m mmuTIBILITARI राजनीतिके मैदानमें आओ! ४४७ बड़ी भारी शक्तिकी अवश्यकता थी, इस बैलों या पक्षियोंको ही मारनेसे नहीं बचाते लिए उस समय जो कोई महावीर जिनके थे, या उनपर ज्यादा बोझ न लदने देकर झण्डे तले आया, वह जैन (श्रावक ) या व्यर्थ भार पड़ने न देकर ही चुप न रह नामसे पुकारा गया । इस महत्कार्यमें क्षत्रि. जाते थे; किन्तु उनका सबसे अधिक लक्ष्य योंको छोड़कर और शामिल ही कौन हो सकता मनुष्योंकी ओर था । उनका यही काम था था? और यदि कोई हुआ भी होगा, तो उस कि वे किसी व्यक्तिको किसी प्रकार दुःख न समय उद्देश्य एक होनेसे सबका रहन-सहन पहुँचने दें । वे प्रजाके स्वत्वोंकी रक्षा करते थे. एक ही ढंगका होता होगा, ऐसा जान पड़ता उनके ऊपर किये जानेवाले अत्याचारोंको है । उस समय जाति-पाँतिका खयाल करना रोकते थे और राजाके लिए ऐसी नीति उद्देश्यसिद्धिमें सब प्रकार हानिकर होता, तैयार करते थे जिससे किसी प्रकारकी बाधा इससे सारे जैनधर्मावलम्बी एक ही होंगे। राष्ट्रको न हो । इस प्रकारके धर्मग्रन्थोंकी इन विचारों को प्रकट करके हम ऋषभदेवजी रचना करते थे जिनके अनुसार चलनेसे उनद्वारा स्थापित वर्णाश्रमका विरोध नहीं करते की सारी जरूरतें मिट जाती थीं। यह बात हैं; परन्तु यह बतलाना चाहते हैं कि लप्त ऐसी नहीं है कि योही आसमानसे गिर पडी धीमें जान इसी तरह पडा करती है । हो; परन्तु राजनीतिके अच्छे अच्छे ग्रन्थ अब जिस प्रकार आज कुँवर दिग्विजय- भी उपलब्ध हैं* । हमारे घरके साहित्यसिंहजी यह पूछे जानेपर कि कौन हैं, जैन की टटोल ही कब की गई ? आज कल तो बतलाये जाते हैं और चाहिए था राजपत जैनधर्मावलम्बी पण्डितोंका विषय केवल बतलाना, ठीक इसी प्रकार उस समय जैन- न्याय ही रह गया है, इस लिए और ग्रन्थ धर्मावलम्बी किसी भी वर्णके होनेपर भी जैन आँखके सामने होते हुए भी नजर नहीं आते। या श्रावक बतलाये जाते थे। अस्त । आहिंसा अस्तु । जब महावीर भगवान् द्वारा चेताये प्रचारका काम ख़ब जोरशोरसे चला । पर यह हुए समाजने बहुत समय तक स्वार्थत्याग कार्य यों ही नहीं चल गया था । बडे बडे करके अनेक राजाओंको जैन बना दिया और आचार्योंने बडे परिश्रमसे लोगोंको राजनीति उनके द्वारा यह कार्य अच्छी तरह चलने सिखाई और ऐसे ऐसे शिष्य तैयार किये लगा, तब समाजके लोग यह लोकहितका जिन्होंने सैकडों राजाओंको इस धर्ममें शामिल कार्य छोड़कर व्यापारमें लग गये और तबकिया और इस प्रकार उनके द्वारा हिंसाको हीसे हम बनिये कहलाने लगे । हमारी रगरोका । हिंसाका जो लक्षण शास्त्रमें दिया है रगमें राजनीति भरी थी और क्षत्रियत्वका उससे मालूम होता है कि वे केवल बकरों, * जैसे श्रीसोमदेवसूरिकृत नीतिवाक्यामृत । For Personal & Private Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४८ जनहितैषी जोश ज्योंका त्यों कायम था, इसलिए हमने लनमें तुम्हारे शामिल हुए विना पशु और बनियें बननेमें भी अपने महत्त्वको नहीं खोया पक्षियोंको कोई अधिकार न मिल सकेगा । -गुलामीके फन्दोंसे हम अभीतक बहुत कुछ अब तुम्हारे चुप रहनेका समय नहीं है। बचे हुए हैं। परन्तु बिना पानीके पौधा राजनीतिके मैदानमें आओ। लोग तुम्हारी कितने दिन हरा-भरा रह सकता है ? उस बाट जोह रहे हैं। तुम्हारा यह मौरूसीवृक्षके कुछ पत्ते पीले होकर गिर चुके हैं परम्परागत काम है । तुम्हारे ही हाथ लगा और कुछ समयकी धींगाधींगीके कारण तोड़ नेसे यह छप्पर उठेगा और प्राणीमात्रका लिये जाकर विदेशी बाजारमें राष्ट्र-हानिकर दुःख दूर होगा । तुम्हारे बिना और किसका चाटकी बिक्रीके काममें लाये जाने लगे हैं। ऐसा हृदय है जो इस भारी कामको कर सके ? बहुतसे ऐसे हैं जो शिक्षारूपी रस न मिलनेके यह काम जोशका नहीं; किन्तु जोशके डाट. कारण वृक्षपर ही मुरझा-मुरझा कर रह गये नेका है । यह काम नामकी इच्छासे नहीं हैं और बहुतोंका शरीर रीति-रिवाजोंके हो सकता; इसमें नामकी इच्छाका त्याग कीड़ोंके आक्रमणसे छिन्नभिन्न हो चुका है। करना पड़ेगा । इसमें बड़े भारी स्वार्थत्यागएक बात और भी है । हम और जातियों- की आवश्यकता है-बड़े विशाल हृदयोंकी की अपेक्षा मजबूत ऐक्यसूत्रमें बंधे हुए हैं। आवश्यकता है और इन गुणों पर तुम्हारा लोग हमारे अन्दर अनेकपना देखते हैं सही, सबसे अधिक स्वत्व है । उठो और इस परन्तु वे ऐसी ही भूलमें हैं जैसे कोई वट- नावको शीघ्र ही पार लगा दो; तुम्हारे लिए वृक्षकी अनेक पीढ़ें देखकर उसको अनेक यह बाँये हाथका खेल है । और लोग इस वृक्ष समझ बैठे। हम कितने ही जुदे दिखलाई कामको शारीरिक शक्तिसे किया चाहते हैं दें; परन्तु हम सबमें रस उसी एक ही महा- और इसके लिए अपने कषायभावोंको हथिवीरवृक्षसे प्रवाहित होता है। यार बनाना चाहते हैं, परन्तु वास्तवमें इसकी ___ आजकल स्वराज्यका आन्दोलन बड़े जोर- सिद्धि क्षमासे ही हो सकती है । यह काम शोरसे हो रहा है । देशकी तमाम जातियाँ मनोबलका है, वीतरागताका है, हितैषिताका इस बातको समझने लगी हैं कि बिना स्वराज्य है और ऐसे ही सर्वोच्च लक्ष्यके आप उपासक मिले भारतवर्षका वास्तविक कल्याण नहीं हो हैं। फिर क्यों बिलम्ब कर रहे हो और सकता है। प्यारे जैनी भाइयो! इस आन्दो- तृषातुर भूमिको तरसा रहे हो ? For Personal & Private Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । जैनधर्मके पालनेवाले वैश्य ही क्यों ? Timmmmmmmmifin HTTTTTI पिछले पृष्ठोंमें श्रीयुत ब्र० भगवान- कर सकते हैं चाहे वे किसी भी जाति या दीनजीका राजनीतिके मैदानमें आओ' शीर्षक देशके हों । ऐसी दशामें यह संभव नहीं कि लेख प्रकाशित किया गया है। इस लेखमें एक किसी समयमें, भगवान् महावीरके समयमें या स्थल पर यह प्रश्न उठाया गया है कि पहले और कभी, केवल क्षत्रिय ही इसके अनुयायी जैनधर्मके धारण करनेवाले क्षत्रिय ही अधिक हों। यह दूसरी बात है कि पुराण पुरुष तीर्थकर थे, तब वे पीछे वैश्य कैसे हो गये ? और चक्रवर्ती नारायण आदि सब क्षत्रिय ही हुए इसका समाधान यह किया गया है कि जब हैं; परन्तु इससे यह सूचित नहीं होता है कि वे लोग अपना लोकहितका कार्य समाप्त कर ब्राह्मण वैश्य आदि जैनधर्मके उपासक नहीं चुके, तब व्यापारमें लग गये और बनियें थे । स्वयं महावीरस्वामीके गणधर इन्द्रभूति या वैश्य कहलाने लगे। परन्तु हमारी सम- आदि जो भगवानके मार्गके खास प्रवर्तक थे झमें यह उत्तर सन्तोषप्रद नहीं । यह प्रश्न ब्राह्मण थे । यह अवश्य स्वीकार करना बहुत ही महत्त्वका है, जैनधर्मके उत्थान और पड़ेगा कि जिन (कर्मशत्रून् जयतीति जिनः ), पतनके इतिहाससे इसका गहरा सम्बन्ध है, विजयी, या कर्मोंको जीतनेवाले उन्हीं लोगोंमें इसलिए इस पर खूब गंभीरतासे विचार किया हो सकते हैं जिनकी परिस्थितियाँ साहस, जाना चाहिए। वीरता, उदारता आदि गुणों के विकास होनेके . . १ जैनधर्मके धारण करनेवाले या उसको अधिक अनुकूल होती हैं । उस समय क्षत्रिय प्रचारमें लानेवाले केवल क्षत्रिय ही नहीं थे। जैसे जयशील समाजमें ही यह योग्यता थी ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शद्र यहाँतक कि कि वह तीर्थकरोंको-अरहंतोंको जन्म दे सके। अनार्य भी जैनधर्मके उपासक थे। कथा- भारतके अन्यान्य महापुरुष भी राम, कृष्ण, ग्रन्थोंसे मालूम होता है कि सब ही प्रकारके बुद्ध आदि भी-क्षात्रियोंके ही वंशमें हुए हैं। लोग जैनधर्मका पालन करते थे । एक २ क्षत्रिय जब अपना काम कर चुकेचाण्डालकी कथा बहुत ही प्रसिद्ध है जिसने अहिंसाधर्मका यथेष्ट प्रचार कर चुके, तब जैनधर्म धारण किया था । गरज यह कि वे इस कार्यको छोड़कर वैश्य बन गये, यह जैन एक प्रकारका धर्मविशेष है, समाज या कहना कोई युक्ति नहीं रखता । वे वैश्य ही जाति नहीं । उसे सारे जगतके मनुष्य धारण क्यों बन गये ? क्षत्रिय ही क्यों न बने रहे ? For Personal & Private Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५० जैनहितैषी अहिंसाप्रचारका काम बन्द करने पर जिस लवाल भी अपनेको राजवंशीय समझते हैं । तरह वे वैश्य बननेके लिए स्वतंत्र थे उसी जैनहितैषीके पिछले अंकोंमें भंडारियों वच्छाप्रकार क्षत्रिय बननेके लिए भी तो थे। वैश्य- वतों और दूसरे राजपूतानेके जैनोंका त्वमें उनके लिए ऐसा कोई खास प्रलोभन जो इतिहास प्रकाशित हुआ है उससे भी न था जो वे उसे ही स्वीकार करते । यह मालूम होता है कि वहाँ अभी अभी तक भी कैसे मान लिया जाय कि वे अपना काम क्षात्रधर्मकी पालना करनेवाले जैनोंकी खासी पूरा कर चके थे या जैनराजाओंके द्वारा संख्या थी । दक्षिणमें एक 'कासार' नामकी अहिंसाका प्रचार धड़ाधड़ होने लगा था । जाति है जो काँसे पीतलके वर्तन बनाने यह काम इतना बड़ा था कि यदि महावीर और बेचनेका काम करती है। इस जातिके स्वामीके समयसे लगातार आजतक वैसी ही सैकड़ों घर जैन हैं, जो शिल्पवृत्तिके कारण तेजीसे चलाया जाता तो भी समाप्त न होता। शूद्र कहे जा सकते हैं । बरारमें भी कुछ निस समय जैनधर्म उन्नतिके शिखरपर शूद्रजातियाँ जैनधर्मको पालनेवाली हैं। पहँचा हुआ था, उस समय भी भारतवर्षका ४ अब देखना यह है कि यह धर्मआधेसे अधिक भाग हिंसाप्रेमी-मांसभक्षी जिसमें क्षत्रियोंकी प्रधानता थी-मुख्यतः था और विदेशोंमें तो प्रायः सर्वत्र ही निरप- वैश्योंका ही धर्म क्यों बन गया ? तेरह लाख राधी पशुओं और दूसरे जविापर छुरी चलाई जैनोंमें साढ़े बारहलाखसे भी अधिक संख्या जाती थी । इन सबको अहिंसाप्रेमी बनानेका वैश्योंकी ही क्यों हो गई ? जैसा कि हमने काम क्या साधारण था ? गताङ्कमें लिखा था संसारके अन्य पदार्थों के ___३ इस समय यद्यपि जैनधर्मावलम्बि- समान धर्मों में भी परिवर्तन हुआ करते हैं । योंमें अधिक संख्या वैश्यवृत्तिवालोंकी ही है; समयकी आवश्यकताओं और परिस्थितियों के परन्तु ब्राह्मण, क्षत्रिय, और शूद्र वर्णवालोंका अनुसार उनमें भी धीरे धीरे अलक्ष्यभावसे सर्वथा अभाव नहीं हो गया है । दक्षिण थोड़ा थोड़ा परिवर्तन हुआ ही करता है। और कर्नाटकमें जैनब्राह्मणोंके बहुतसे घर संसारमें ऐसा कोई भी धर्म नहीं है जो हैं, जो उपाध्याय कहलाते हैं । वहाँ ऐसे अपने ठीक उसी रूपको बनाये हुए होभी कोई सौ घर हैं, जो अपनेको क्षत्रिय जिसमें कि वह अपने स्थापित होनेके समय बतलाते हैं । राजपूतानेके ओसवालोंके था। अपनी इस परिवर्तनशीलताके कारण वे सैकड़ों खान्दान अब भी हथियार बाँधते हैं अनेक भेदों और उपभेदोंमें विभक्त भी हुआ और यदि उनसे कोई वैश्य कहे तो वे करते हैं । ज्यों ही कोई नये परिवर्तनकी या अपनी अप्रतिष्ठा समझते हैं। वहाँके खण्डे- नये सिद्धान्तके ग्रहणकी आवश्यकता होती For Personal & Private Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ CHOLITILIBALLOODOOTO OTHARALERY जैनधर्मके पालनेवाले वैश्य ही क्यों? tuinthinfinitititiotiiiiiiinfORTRAITAREER ४५१ है और कोई शक्तिशाली विद्वान् या आचार्य लक्षणमें अन्तर नहीं पड़ा है, पर उसका उसकी पूर्तिका प्रयत्न करता है त्यों ही उपयोग किसे और किस प्रकार करना चाउसके विरोधी खड़े हो जाते हैं-विवाद खड़ा हिए, इसमें अन्तर पड़ गया है। हमारा खयाल हो जाता है और अन्तमें दो भेद हो जाते है कि इसी प्रकारके अन्तर पड़ते रहनेसे हैं। आगे उनके चार, छह, आठ आदि जैनधर्ममें आजसे दो हजार वर्ष पहले जो विभाग होने लगते हैं । आज दुनियाका जीवनप्रद तत्त्व थे, जिनसे मनुष्य कर्मवीर, शायद ही कोई धर्म ऐसा हो, जिसकी दो कार्यक्षम और सच्चा महात्मा बन सकता था, चार शाखायें या सम्प्रदाय न हों। हमारा वे धीरे धीरे कम होते गये और इसका विश्वास है कि इस विषयमें जैनधर्म भी परिणाम यह हुआ कि जैनधर्मको पालते हुए अपवादरूप नहीं है । उसमें भी समय अपने क्षात्रधर्मका निर्वाह करना, या उसके समय पर अनेक परिवर्तन हुए हैं और वह तेजको बनाये रखना क्षत्रियोंके लिए कठिन भी अनेक मेद उपभेदोंमें बँटता रहा है। हो गया। उनकी वृत्ति धीरे धीरे बदलती हम यह नहीं कहते हैं कि इन परिवर्तनोंके गई और उसने भीरु दुर्बल सहनशील वैश्यकारण जैनधर्म सर्वथा ही बदल गया है, वृत्तिमें जाकर विश्राम लिया । क्षत्रियोंमें और अथवा उसके असलीरूपको हम देख ही वैश्योंमें जितना अन्तर है, हमारी समझमें नहीं सकते हैं, परन्तु यह अवश्य कहना उतना ही अन्तर पूर्वकालके और वर्तमानपड़ेगा कि साधारण आँखोंसे उसके दर्शन नहीं कालके जैनधर्ममें है । पं० सदासुखजीकृत हो सकते। उसके मूलरूपकी तो बहुत कुछ रक्षा रत्नकरण्डश्रावकाचारको पढ़कर क्षत्रिय वैश्य हुई है, परन्तु उसका बाह्यरूप-उसका ऊपरी बन जायगा और वैश्य उदासीन, निराशाआवरण-बहुत ही बदल गया है । एक अहिंवादी, कर्तव्यशून्य ‘धर्मात्मा ' बन जायगा। साको ही ले लीजिए। इसका एकरूप तो उस क्यों ? इस लिए कि उसकी उपदेशप्रणाली समय प्रचलित था, जब जैनधर्मके पालने- ही ऐसी है । तत्त्व उसमें जैनधर्मके ही बतवाले बड़े बड़े युद्ध करके खूनकी नदियाँ लाये गये हैं, पर यह खयाल नहीं रक्खा गया बहाते थे और एक स्वरूप अब प्रचलित है, है कि गृहस्थोंका संसारको त्याज्य समझने, जिसके कारण साधुओंकी तो बात ही जुदी फॅकफूंककर पैर रखने और शुद्ध धर्मात्मा है, साधारण नीचेसे नीचे दर्जेका श्रावक भी बन जानेके सिवाय और भी कुछ कर्तव्य है। हिंसाके डरसे रातको चिराग नहीं जलाता है जैनधर्मके प्राचीन साहित्यमें और पिछले और दन्तधावनके बिना मुँहको दुर्गन्धका घर साहित्यमें यही अन्तर है । आप जितना बनाये रहता है ! हिंसाके स्वरूपमें या जितना पिछला साहित्य देखेंगे, उसमें वेश्य For Personal & Private Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५२ HAIRLINOMIC जनहित HTHA वृत्तिको गढ़नेवाले और क्षात्रवृत्तिको दबाने- और निर्वाहके-जीविकाके–अभावमें उनका वाले उतने ही अधिक सामान पायेंगे । जैन- अस्तित्व ही संभव नहीं। यही कारण है धर्ममेंसे क्षत्रियोंके कम करनेवाले या लुप्त करने- जो दक्षिण और कर्नाटक प्रान्तके थोड़ेसे वाले इसके सिवाय और भी कारण होंगे, उपाध्यायोंको छोड़कर सारे भारतवर्षमें जैनजिनका विचार विशेषज्ञोंके द्वारा होगा; परन्तु ब्राह्मणोंका अभाव है। दक्षिण और कर्नाहमारी समझमें यह भी एक कारण हो टकमें जो थोडेसे उपाध्याय हैं उनकी भी सकता है । संभव है कि यह केवल अवस्था अच्छी नहीं है । उन्हें निर्माल्य या भ्रम ही हो। देवद्रव्यसे ही अपनी जीविका चलानी पड़ती ५ ब्राह्मणों और शद्रोंके अभाव पर भी है। आदिपुराणोक्त संस्कारादि कर्म करानेसे लगे हाथ विचार हो जाना चाहिए । ब्राह्म- जैनब्राह्मण अपना निर्वाह कर सकते हैं, ऐसा णोंकी वृत्ति यजन-याजन और पठन-पाठन कहा जाता है परन्तु एक तो अभी यह बात ही आदि बतलाई गई है। पर जैनोंके यहाँ विवादग्रस्त है कि यह संस्कारपद्धति आदिइसकी आवश्यकता नहीं । जैनधर्ममें उपदेश पुराणके पहले भी थी या नहीं और दूसरे आदिका कार्य मुनि करते हैं। पुराणों में जहाँ इन कर्मोंसे इनेगिने लोगोंका ही निर्वाह हो कहीं किसीकी विद्याशिक्षाका जिक्र आता है, सकता है-लाखोंका नहीं । वहाँ यही लिखा रहता है कि अमुक राजपुत्र ६ दक्षिण और कर्नाटकमें जो जैन या राजपुत्रीने मुनि महाराजके पास जाकर ब्राह्मण दिखलाई देते हैं, हमारी समझमें वे विद्याध्ययन किया। पूजन पाठ और स्वाध्याय भगवज्जिनसेनाचार्यकृत आदिपुराणकी, उस करनेका श्रावकोंको स्वयं अधिकार है । ये समयकी परिस्थिति के अनुसार रची हुई,नवीन उनके नित्य षटकर्मोमेंसे दो प्रधान कर्म हैं। वर्णाश्रमसृष्टिके फल हैं। वे एक प्रतिभाशाली जैनधर्म यह मानता नहीं कि मैं आपके लिए और अधिकारी आचार्य थे, इसमें सन्देह नहीं; प्रतिदिन पूजा अनुष्ठान या पुस्तकपारायण पर यह रचना चिरप्रचलित जैनधर्मकी मूल किया करूँ और उसका फल आपको मिले । चढे प्रकृतिके अनुकूल नहीं थी इस कारण यथेष्ट हुए द्रव्यको लेना या मन्दिरोंको लगी हुई भमि समाहत नहीं हुई और उत्तर भारतमें तो या जागीरकी आमदनीसे निर्वाह करना जैनधर्ममें इसका बीन ही नहीं जमा । मना है । इसे ' निर्माल्य ' माना है जिसका ७ हम यह नहीं कहते कि ब्राह्मण लोग खाना महान् पाप है । ऐसी अवस्थामें जैन- जैनधर्मके धारक ही नहीं हुए या हमारे ब्राह्मणोंका निर्वाह ही नहीं हो सकता आचार्योंने ब्राह्मणोंको जैन नहीं बनाया; नहीं, For Personal & Private Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ARRIAGEHLILAHABHAILABILIBRARMER जैनधर्मके पालनेवाले वैश्य ही क्यों ? ४५३ लाखों ही ब्राह्मण जैनधर्मके उपासक हुए था कि मद्रास प्रान्तके एक लाखसे अधिक होंगे; परन्तु जैन होने पर उनकी ब्राह्मणवृत्ति जैन ईसाई बनाये जा चुके हैं और उनमें न रही होगी। उन्हें वैश्यवृत्ति ग्रहण करनी अधिकांश शद्र थे। पिछले कई सौ वर्षोंसे पड़ी होगी और वे कुछ समय तक ब्राह्मण नेनोंमें प्रभावशाली उपदेशकों और साधुओंका कहलाकर वैश्यों में ही लीन हो गये होंगे। अभाव हो रहा है, इस कारण नये जैन तो पद्मावतीपुरवारोंमें जो पांडे हैं वे ब्राह्मण कोई बनाये नहीं गये और पुरानोंको दूसरे बतलाये जाते हैं और कहा जाता है कि वे धर्मवालोंने मँड लिया। हमारी समझमें तो कहीं दक्षिणकी ओरसे बुलाये गये थे। कुछ अभी यही एक कारण आता है जिससे जैनसमय तक तो उन्होंने किसी तरह दानदक्षि- धर्मके माननेवालोंमें शद्रोंका प्रायः अभाव हो णासे अपना काम चलाया; परन्तु पीछे न रहा है। यह भी जान पड़ता है कि बहुतसे चला और उन्हें भी वैश्यवृत्ति ग्रहण करनी शद्र जैन धीरे धीरे अपनी शूद्रवृत्तिको छोड़कर पड़ी । लोग जानते हैं कि उनका बेटीव्यव- वैश्य बन गये हैं और इसविषयमें उन पर । हार पद्मावतीपुरवारोंके साथ अबसे लगभग वैश्य जैनोंकी बड़ी भारी संख्याका प्रभाव पड़ा १०० वर्ष पहले ही शुरू हुआ है। है। जैनोंमें एक दो जातियाँ ऐसी हैं भी जो ८ अब शूद्रोंको लीजिए कि इनका अभाव पहले शुद्र थी, पर अब वैश्यवृत्तिसे निर्वाह कैसे हो गया । इनके पढ़ाने लिखानेकी या करती हैं। दिगम्बरसम्प्रदायके अनुसार इनकी ज्ञानशक्तिको विकसित करनेकी ओर जैनसाध शद्रोंके यहाँ भोजन नहीं करते, शूद्र शायद ही कभी ध्यान दिया गया हो। मोक्षका अधिकारी नहीं, वह अधिकसे अधिक ये लोग सदा अज्ञानमें ही पड़े रहे । इस- लल्लक हो सकता है-मुनि नहीं हो सकता, लिए आज यदि एक जैन आचार्यने हजार उसे शायद पूजन करनेकी भी आज्ञा नहीं दो हजार शूद्रोंको जैन बनाया, तो कल एक है। संभव है कि इन संकुचित अधिकारोंका शैवाचार्यने आकर उन्हें शैव बना डाला। भी इस विषयमें प्रभाव पड़ा हो। दक्षिणमें कासारोंके हजारों घर ऐसे हैं जो आशा है कि इस प्रश्नपर जैनसमाजके पहले जैन थे, उनके बनाये हुए जैनमन्दिर तक विद्वानोंका चित्त आकर्षित होगा और वे मौजूद हैं, पर अब वे शैव हैं। कुछ समय अपने अपने विचार प्रकट करके इसका समापहले एक थियोसोफिस्टने प्रकाशित किया धान करेंगे। For Personal & Private Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनहितैषी प्रार्थना (ले०-श्रीयुत पं० गिरिधर शर्मा।) (१) नाथ आपको हम नमते हैं, हाथ जोड़ पैरों पड़ते हैं। आप जानते हैं सब स्वामी, घटघटके हो अन्तर्यामी ॥ वह बल-विक्रम हममें आवे, देख जिसे जग अचरज पावे । सिंह चाटने पग लग जावे, विजयवाद्य सुरवृन्द बजावे ॥ नोट-यह प्रार्थना विद्यार्थियोंको प्रातःकाल पढ़नेके लिए रची गई है। यदि जैनपाठशालाओं और विद्यालयोंके संचालक उचित समझें तो इसे काममें ले आयें । कई संस्थाओंके संचालकोंने ऐसी एक प्रार्थनाके लिए हमसे प्रेरणा भी की थी। -स। हम मानव हैं सद्गुण पावें, सारे दुर्गुण दूर हटावें । कायरताके पास न जावें, वीरपनेको लाड़ लड़ावें॥ निज कर्तव्य कदापि न तज दें, सदा सहारा दीनोंको दें। . लोकलोकमें जीवन भर दें, मुरदोंको भी जीते कर दें। आलसमें नहिं पड़े रहें हम, नहीं खुशामद कहीं करें हम । जिस शाखापर आश्रय पावें, काट उसे नीचे न गिरावें ॥ ___ आजकल जेंटिलमैन ( सभ्य पुरुष ) बहुत ही साधारण शब्द हो गया है; परन्तु जेंटिलमैन असलमें हैं बहुत कम । जटिलमैनीके लिए बाहरी बातोंकी जरूरत नहीं है। अच्छे अच्छे कपड़ों और बड़े बड़े बंगले, कोठियोंकी भी जरूरत नहीं है। असलमें जेंटिलमैन वह है जिसके विचार उदार हैं, उद्देश्य उच्च हैं, सत्य पर जिसका अटल विश्वास है और सत्य ही जिसके जीवनका आधार है, जिसकी आवश्यकतायें बहुत थोड़ी हैं, जिसकी बड़े और छोटे, अमीर गरीब सबके साथ समान सहानुभूति है और जिसको अभिमान छूकर भी नहीं गया । अब बतलाइए, ऐसे आदमी कितने हैं ? आपकी सभामें, आपकी मित्रमंडलीमें कौन कौन इन गुणोंसे विभूषित हैं ? हम ऐसे सैकड़ोंके नाम ले सकते हैं जिनके कोट पतलून बड़े अच्छे बने हुए होते हैं। ऐसे भी बीसो बतला सकते हैं जिनमें बात चीत करने और रहन सहनके तरीके बड़े अच्छे हैं; परंतु जेंटिलमैन बहुत ही कम हैं । यदि कागज कलम लेकर उनके नाम लिखने बैठे तो शायद सौंमें एक दो ही निकलें। -थेकरे । सज धज कर हम अकड़ न जावें, __ आपसमें लड़ यश न नसावें। संशयमें पड़ मति न गुमावें, आसमानमें उड़ें सुहावें॥ विद्या ठौर ठौर फैलावें, गहरे ज्ञान भेद प्रकटावें । भारत गौरव जगमें छावें, सारे जगमें जया कहावें ॥ नहीं लालचोंमें फंस जावें, नहीं किसीसे भय हम खावें। सुदृढ रहे निज धर्म निभावे, हो स्वाधीन सदा सुख पावें॥ For Personal & Private Use Only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ @eeeeeeeeeeeeeeee@@@@ जैनधर्म और जैनदर्शन । පළඳපළලලලලලලලලලල कलकत्तेसे ' मानसी और मर्मवाणी' ज्ञान बहुत ही परिमित है । स्कूलपाठ्य इतिनामकी एक उच्च कोटिकी बंगला मासिक- हासोंके एक दो पाराग्राफोंमें महावीरप्रचारित पत्रिका निकलती है । नाटोर-नरेश महाराज जैनधर्मके सम्बन्धमें जो अतिशय संक्षिप्त श्रीजगदिन्द्रराय और बाबू प्रभातकुमार विवरण रहता है, उसको छोड़कर हम कुछ मुखोपाध्याय बार-एट-ला उसके सम्पादक हैं। नहीं जानते । जैनधर्मसम्बन्धी विस्तृत आलोइसकी गत आषाढ़ और श्रावणकी दो संख्या- चना करनेकी लोगोंकी इच्छा भी होती थी, ओंमें जैनधर्म और दर्शन' शीर्षक एक पर अभीतक उसके पूर्ण होनेका कोई विशेष विचारपूर्ण लेख प्रकाशित हुआ है जिसके सुभीता न था । कारण दो चार ग्रन्थोंको छोड़ लेखक श्रीयुत अम्बुजाक्ष सरकार एम. ए. कर जैनधर्मसम्बन्धी अगणित ग्रन्थ अभीबी. एल. हैं । पूरा लेख लगभग १५ पृष्ठोंमें तक अप्रकाशित थे; भिन्न भिन्न मठोंके महन्त समाप्त हुआ है । हम यहाँ अपने पाठकोंके अपने मठोंके गुप्तगृहोंमें जैनग्रन्थोंको छुपाये लिए उसके केवल महत्त्वपूर्ण अंशोंका अनुवाद हुए थे, इसलिए पाठ करने या आलोचना प्रकाशित करते हैं। करनेके लिए वे दुर्लभ थे। " पुण्यभूमि भारतवर्षमें हिन्दू, बौद्ध “बौद्धधर्मके समान जैनधर्मकी आलोऔर जैन इन तीन प्रधान धर्मीका अभ्युत्थान चना क्यों नहीं हुई, इसके और भी कई हुआ है। यद्यपि बौद्धधर्म भारतके अनेक कारण हैं । बौद्धधर्म पृथिवीके एक तृतीयांश सम्प्रदायों और अनेक प्रकारके आचारों लोगोंका धर्म है, किन्तु भारतके ३० करोड़ व्यवहारोंमें अपना प्रभाव-अपनी छाप छोड़ लोंगोंमें जैनधर्मावलम्बी केवल मात्र १४ लाख गया है; परन्तु वह अपनी जन्मभूमिसे खदेड़ ( वास्तवमें १३ लाखसे भी कम ) हैं । इसी दिया गया है और सिंहल, ब्रह्मदेश, तिव्वत, कारण बौद्धधर्मके समान जैनधर्मके गुरुत्वका चीन आदि देशोंमें वर्तमान है। इस समय किसीको अनुभव नहीं होता । इसके सिवाय हमारे देशमें बौद्धधर्मके सम्बन्धमें यथेष्ट भारतमें बौद्धप्रभाव विशेषताके साथ परिस्फुट आलोचना होती है। परन्तु जैनधर्मके विष- है। इसलिए भारतके इतिहासकी आलोचयमें अब तक कोई भी उल्लेख योग्य आलो- नामें बौद्धधर्मका प्रसङ्ग स्वयं ही आकर उपचना नहीं हुई। जैनधर्मके सम्बन्धमें हमारा स्थित हो जाता है। अशोकस्तम्भ, चीनयात्री For Personal & Private Use Only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५६ SARAMBIRRAIMADIATI MATAINIK जैनहितैषीmmmitim हुयेनसंगका भारतभ्रमण आदि जो प्राचीन जैनधर्म और जैनदर्शनने क्या प्रभाव डाला इतिहासकी निर्विवाद बातें हैं उनका बहुत है, इसका इतिहास लिखनेके समग्र उपबड़ा भाग बौद्धधर्मके साथ मिला हुआ है। करण अब भी संग्रह नहीं किये गये हैं। पर भारतके कीर्तिशाली चक्रवर्ती राजाओंने बौद्ध- यह बात अच्छीतरह निश्चित हो चुकी है धर्मको राष्ट्रीयधर्मके रूपमें ग्रहण किया था, कि जैनविद्वानोंने न्यायशास्त्रमें बहुत अधिक इसलिए एक समय हिमालयसे लेकर कुमारी उन्नति की थी । उनके और बौद्धनैयायितककी समस्त भारतभमि पीले कपडोंसे रंग कोंके संसर्ग और संघर्षके कारण प्राचीन गई थी। किन्तु भारतीय इतिहासमें जैनधर्मने न्यायका कितना ही अंश परिवर्जित और अपना प्रभाव कहाँतक विस्तृत किया था, परिवर्तित किया गया और नवीन न्यायके यह अबतक भी मालूम नहीं हुआ है । रचनेकी आवश्यकता हुई । शाकटायन आदि भारतके अनेक स्थानोंमें जैनकीर्तिके जो वैयाकरण, उमास्वाति, सिद्धसेन दिवाकर, अनेक ध्वंसावशेष वर्तमान हैं उनके सम्ब- भट्टाकलङ्कदेव आदि नैयायिक, टीकाकृत्कुन्धमें अच्छी तरह अनुसन्धान करके ऐति- लरवि मल्लिनाथ, कोषकार अमरसिंह, अभिहासिक तत्त्वोंके खोजनेकी कोई उल्लेख योग्य धानकार, हेमचन्द्र, गणितज्ञ महावीराचार्य चेष्टा नहीं हुई। हाँ, कुछ वर्षोंसे साधारण आदि विद्वान, जैनधर्मावलम्बी थे । भारतीय चेष्टा हुई है। महसूर राज्यके श्रवणबेलगुल विचार-जगत्, इन सबका बहुत कुछ ऋणी है । नामक स्थानके चन्द्रगिरिपर्वत पर जो थोड़ेसे “अच्छी तरह आलोचना न होनेके कारण शिलालेख प्राप्त हुए हैं, उनसे मालूम होता अबतक जैनधर्मके विषयमें लोगोंके तरह है कि मौर्यवंशके प्रतिष्ठाता महाराज चन्द्रगुप्त तरहके ऊँटपटाँग खयाल हो रहे थे । कोई जैनमतावलम्बी थे । इस बातको मि. विन्सेंट कहता था यह बौद्धधर्मका ही एक भेद है। स्मिथने अपने भारतेतिहासके तृतीय संस्करण कोई कहता था कि हिन्दूधर्ममें जो अनेक ( १९१४ ) में लिखा है, परन्तु इस विष- सम्प्रदाय हैं, उन्हीं से यह भी एक हैं जिसे यमें अबतक सब विद्वानोंकी एक राय नहीं महावीरस्वामीने प्रवर्तित किया था । कोई हुई है। जैनशास्त्रोंमें लिखा है कि महाराज कोई कहते थे कि जैन आर्य नहीं है, क्योंकि चन्द्रगुप्त छट्टे ( पाँचवें ? ) श्रुतकेवली भद्र- वे नग्नमूर्तियोंको पूजते हैं। जैनधर्म भारतके बाहुके द्वारा जैनधर्ममें दीक्षित हुए थे और मलनिवासियोंके किसी एक धर्मसम्प्रदायका महाराज अशोक भी पहले अपने पितामह- . १-२ लेखक महाशयका यह भ्रम है। कालिदास के ग्रन्थों के प्रसिद्ध टीकाकार मल्लिनाथ और कोषकार उन्होंने जैनधर्मका परित्याग करके बौद्धधर्म अमरसिंह ये दोनों ही जैन नहीं थे । मल्लिनाथ वेदाग्रहण कर लिया था । भारतीय विचारोंपर नुयायी और अमरसिंह बौद्ध थे। -सम्पादक । For Personal & Private Use Only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SHAILAIMARATHAMITIALAIMIMILAILABILIATM जैनधर्म और जैनदर्शन । CRAFTTTRETIREMEND MERICITICE ४५७ केवल एक रूपान्तर है । इस तरह नाना ब्दिमें जैनधर्मका प्रचार किया था । पार्श्वमुनियोंके नाना प्रकार कल्पनाप्रसूत मत नाथके पूर्ववर्ती अन्य २२ तीर्थकरोंके सम्बफैल रहे थे, जिनकी असारता अब धीरे धीरे न्धमें अबतक कोई ऐतिहासिक प्रमाण नहीं प्रकट होती जाती है। मिला है। ___“यह अच्छीतरह प्रमाणित हो चुका है " तैर्थिक, निर्ग्रन्थ और नग्न नाम भी कि जैनधर्म बौद्धधर्मकी शाखा नहीं है। जैनोंके लिए व्यवहृत होता है । यह तीसरा महावीर स्वामी जैनधर्मके स्थापक नहीं है, नाम जैनोंके प्रधान और प्राचीनतम दिगम्बर उन्होंने केवल प्राचीन धर्मका प्रचार किया सम्प्रदायके कारण पड़ा है । मेगास्थनीज था। महावीर या वर्द्धमानस्वामी बुद्धदेवके इन्हें Gymnosphists या नग्न दर्शिनिकके समकालिक थे । बुद्धदेवने बुद्धत्व प्राप्त करके नामसे उल्लेख कर गया है। धर्मप्रचारकार्यमें व्रती होकर जिस समय “ग्रीसदेशमें एक ईलियाटिक नामका धर्मचक्रका प्रवर्तन किया था, उस समय - सम्प्रदाय हो गया है । वह एक नित्य परिमहावीरस्वामी एक प्रसिद्ध धर्मशिक्षक थे। । वर्तनरहित अद्वैत सत्तामात्र स्वीकार करके बौद्धोंके त्रिपिटक नामक ग्रन्थमें · नातपुत्त' _ जगतके सारे परिवर्तनों, गतियों और क्रियानामक जिस निर्ग्रन्थ धर्मप्रचारकका उल्लेख ओंकी संभावनाको अस्वीकार करता है । इस है, वह नातपुत्त ही महावीर स्वामी हैं । मतका प्रतिद्वन्द्वी एक हिराक्लीटियन सम्प्रउन्होंने ' ज्ञातुं' नामक क्षत्रियवंशमें जन्म - दाय हुआ । वह विश्वतत्त्व ( द्रव्य ) की ग्रहण किया था, इसलिए वे ज्ञातृपुत्र (पाली - नित्यता सम्पूर्णरूपसे अस्वीकार करता है । भाषामें आतपुत्त ) कहलाते थे । जैनमता - उसके मतसे जगत् सर्वथा परिवर्तनशील नुसार महावीरस्वामी चौवीसवें या अन्तिम है। जगत्स्रोत अवारित गतिसे बह रहा है। तीर्थकर थे । उनके लगभग २०० वर्ष पहले . एक क्षण भरके लिए भी कोई वस्तु एक तेईसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथस्वामी हो चुके थे। । भावसे स्थितिशील होकर नहीं ठहर सकती। अभीतक इस विषयमें सन्देह था कि पार्श्व - ईलियाटिक-सम्प्रदाय-प्रचारित उक्त नित्यवाद नाथ स्वामी ऐतिहासिक व्यक्ति थे या नहीं; और हिराकीटियनसम्प्रदायप्रचारित परिवर्तनपरन्तु डा० हर्मन जैकोबीने सिद्ध किया है ३ वाद पाश्चात्य दर्शनोंमें समय समय पर अनेपार्श्वनाथने ईस्वीसनसे पहले आठवीं शता ता- करूपसे नाना समस्याओंके बीच होकर १ दिगम्बर सम्प्रदायके ग्रन्थोंमें महावीरस्वामीके प्रकट हए हैं। इन दो मतोंके समन्वयकीवंशका उल्लेख 'नाथ' नामसे मिलता है, जो निश्चय मिलानेकी-अनेक वार चेष्टा भी हुई है। ही 'ज्ञात' के प्राकृतरूप ‘णात' का ही रूपान्तर है। -सम्पादक। परन्तु वह फलवती कभी नहीं हुई। वर्त For Personal & Private Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५८ HmmmmmmumIIII जैनहितैषीTITUTTTTTTTTTTTTTTTTTT मान समयके प्रसिद्ध फरासीसी दार्शनिक क्योंकि-" तस्मिन् विज्ञाते सर्वमिदं विज्ञातं वर्गसोन ( Bergson ) का दर्शन हिरा- भवति ।" क्लीटियनके मतवादका ही रूपान्तर है। " वेदान्तके समान बौद्धदर्शनमें कोई वेदान्त दर्शनके नित्यवाद और बौद्धदर्शनके त्रिकाल अव्यभिचारी नित्यवस्तु नहीं मानी क्षणिकवादमें भी यह सदाका दार्शनिक गई । बौद्ध क्षणिकवादके मतसे " सर्व क्षणं विवाद प्रकाशमान हो रहा है। वेदान्तके क्षणं । " जगत्स्रोत अप्रतिहत या अरोकमतसे केवल नित्य-शुद्ध-बुद्ध-मुक्त-सत्य- गतिसे बराबर बह रहा है-क्षणभरके लिए स्वभाव चैतन्य ही सत् है, शेष जो कुछ भी कोई वस्तु एक ही भावसे एक ही है वह केवल नामरूपका विकार मायाप्रपञ्च- अवस्थामें स्थिर होकर नहीं रह सकती। असत् है । शङ्कराचार्यने सत्शब्दकी जो परिवर्तन ही जगतका मूलमंत्र है । जो इस व्याख्या की है उसके अनुसार इस दिखलाई क्षणमें मौजूद है, वह आगामी क्षणमें ही देनेवाले जगत्प्रपञ्चकी कोई भी वस्तु सत् नहीं नष्ट होकर रूपान्तरित हो जाता है। इस हो सकती । “ यद्विषया बुद्धिर्न व्यभिचरति प्रकार अनन्त मरण और अनन्त जीवनोंकी तत्सत्, यद्विषया बुद्धिर्व्यभिचरति तद- अनन्त क्रीडायें इस विश्वनाटकमें लगातार सत् ।" गीता, शंकरभाष्य २-१६ । हुआ करती हैं। यहाँ स्थिति, स्थैर्य, निभूत भविष्यत् वर्तमान इन तीन कालों में जिस त्यता असंभव है। वस्तके सम्बन्धमें बुद्धिका व्यभिचार नहीं “स्याद्वादी जैनदर्शन वेदान्त और बौद्धहोता, वह सत् है और जिसके सम्बन्धमें मतकी आंशिक सत्यता स्वीकार करके होता है वह असत् है । जो वर्तमान सम- कहता है कि विश्वतत्त्व या द्रव्य नित्य भी यमें है, वह यदि अनादि अतीतके किसी है और अनित्य भी है । वह उत्पत्ति, समयमें नहीं था और अनन्त भविष्यतके ध्रुवता और विनाश इन तीन प्रकारकी भी किसी समयमें नहीं रहेगा, तो वह सत् परस्परविरुद्ध अवस्थाओंसे युक्त है । वेदान्तनहीं हो सकता-वह असत् है। सत्शब्द परि- दर्शनमें जिस प्रकार स्वरूप और तटस्थ वर्तनका प्रतियोगी है। जिसमें परिवर्तन होता लक्षण कहे गये हैं, उसी प्रकार जैनदर्शनमें है, हुआ है और होनेकी संभावना है वह प्रत्येक वस्तुको समझानेके लिए दो तरहसे असत् है । परिवर्तनशील असद्वस्तुके साथ निर्देश करनेकी व्यवस्था है। एकको कहते हैं वेदान्तका कोई सम्पर्क नहीं है। वेदान्तदर्शन निश्चयनय और दूसरेको कहते हैं व्यवहार केवल अद्वैत सद्ब्रह्मका तत्वानसन्धान करता नय । स्वरूपलक्षणका जो अर्थ है, ठीक वही है। वेदान्तकी यही प्रथम बात है ' अथातो अर्थ निश्चयनयका है । वह वस्तुके निज ब्रह्मजिज्ञासा । और यही अन्तिम बात है। भाव या स्वरूपको बतलाता है। व्यवहार For Personal & Private Use Only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म और जनवशन ४५९ नय वेदान्तके तटस्थ लक्षणके अनुरूप है। अनेक अंशमें तुलना हो सकती है। स्याद्वादका उससे वक्ष्यमाण वस्तु दूसरी किसी वस्तुकी मूलसूत्र जुदे जुदे दर्शन शास्त्रोंमें जुदे जुदे अपेक्षासे वर्णित होती है । द्रव्य निश्चय आकारमें स्वीकृत हुआ है। यहाँ तक कि नयसे ध्रुव है किन्तु व्यवहारनयसे उत्पत्ति शङ्कराचार्यने पारमार्थिक सत्यतासे व्यवहारिक और विनाशशील है । अर्थात् द्रव्यके सत्यताको जिस कारण विशेष किया है, वह स्वरूप या स्वभावकी अपेक्षा देखा जाय इस स्याद्वादके मूलसूत्रके साथ अभिन्न है । तो वह नित्यस्थायी पदार्थ है, किन्तु शंकराचार्यने परिदृश्यमान या दिखलाई नियत परिदृश्यमान व्यवहारिक जगतकी देनेवाले जगतका अस्तित्व अस्वीकार नहीं अपेक्षा देखा जाय तो वह अनित्य और किया है, उन्होंने केवल इसकी पारमार्थिक परिवर्तनशील है। द्रव्यके सम्बन्धमें नित्यता सत्ता अस्वीकार की है । बौद्ध विज्ञानवाद और परिवर्तन आंशिक या आपेक्षिक भावसे और शून्यवादके विरुद्ध उन्होंने जगतकी सत्य है-पर सर्वथा एकान्तिक सत्य नहीं व्यवहारिक सत्ता अतिशय दृढताके साथ है । वेदान्तने द्रव्यकी नित्यताके ऊपर ही प्रमाणित की है। समतल भूमिपर चलते दृष्टि रक्खी है और भीतरकी वस्तुका समय एकतल, द्वितल, त्रितल आदि उच्चताके सन्धान पाकर, बाहरके परिवर्तनमय जग- नाना प्रंकारके भेद हमें दिखलाई देते हैं; त्प्रपञ्चको तुच्छ कहकर उड़ा दिया है; किन्तु बहुत ऊँचे शिखरसे नीचे देखनेपर और बौद्ध क्षणिकवादने बाहरके परिवर्तनकी सतखने महल और इकहरी कुटियामें किसी प्रचुरताके प्रभावसे रूप-रस-गन्ध-शब्द- प्रकारका भेद नहीं जान पड़ता । इसी तरह स्पर्शादिकी विचित्रतामें ही मुग्ध होकर, ब्रह्मबुद्धिसे देखनेपर जगत मायाका विकाश उसके भीतरी, बहिर्वैचिव्यके कारणीभूत, ऐन्द्रजालिक स्वप्नमात्र-अनित्य है; किन्तु नित्य-सूत्रको खो दिया है । पर स्याद्वादी साधारण बुद्धिसे देखनेपर जगतकी सत्ता स्वीजैनदर्शनने भीतर और बाहर, आधार और कार करनी ही पड़ती है । दो प्रकारका आधेय, धर्म और धर्मी, कारण और कार्य, सत्य दो प्रकार Points of View से उत्पन्न अद्वैत और विचित्र दोनोंको ही यथास्थान है। वेदान्तसारमें मायाको जो प्रसिद्ध संज्ञा स्वीकार कर लिया है। दी गई है, उससे भी इस प्रकारकी भिन्न ___" इस तरह स्याद्वादने, विरुद्ध मतवादों. दृष्टिजात भिन्नसत्यता स्वीकृत होती है। की मीमांसा करके उसके अंतर्निहित आपेक्षित बौद्ध दृश्यवादमें शून्यका जो व्यतिरेकमुखी सत्यको स्वीकार करके उसे पूर्णता प्रदान की लक्षण दिया है, उसमें भी स्याद्वादकी छाया है। विलियम जेम्स नामके विद्वान् द्वारा प्रचारित पाई जाती है । “ सदसदुभुयानुभूय-चतुPragmatism मतवादके साथ स्याद्वादकी कोटिविनिर्मुक्तं शून्यत्वम् "- अर्थात् अ For Personal & Private Use Only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ IIIतिषी TRImmmmmunita स्ति, नास्ति, अस्तिनास्ति दोनों, और आस्त वेदान्त दर्शनमें संचित, क्रियमाण नास्ति दोनों नहीं, इन चार प्रकारकी भावना- और प्रारब्ध इन तीन प्रकारके कर्मोका वर्णन ओंके जो बहित है, उसे शून्यत्व कहते हैं। है। जैनदर्शनमें इन्हींको यथाक्रम सत्ता, इस प्रकार पूर्वी और पश्चिमी दर्शनोंके बन्ध और उदय कहा है। दोनों दर्शनोंमें जुदे जुदे स्थानोंमें स्याद्वादका मूलसूत्र स्वीकृत इनका स्वरूप भी एक सा है। होनेपर भी, स्याद्वादको स्वतंत्र दार्शनिक "सयोग केवली और अयोग केवली मतवादका उच्चासन देनेका गौरव केवल अवस्थाके सहित हमारे शास्त्रोंकी जीवन्मुक्ति जैनदर्शनको ही मिल सकता है। और विदेहमुक्तिकी तुलना हो सकती है । "जैनदर्शनके विश्वतत्त्व या द्रव्यके सम्ब- जुदे जुदे गुणस्थानोंके समान मोक्षप्राप्तिकी न्धमें जो कुछ कहा गया है उससे ही मालम जुदी जुदी अवस्थायें हमारे यहाँ भी स्वीकृत हो जायगा कि जैनदर्शन यह स्वीकार नहीं हुई हैं । योगवासिष्ठ, शुभेच्छा, विचारणा, करता कि सृष्टि किसी खास समयमें उत्पन्न तनुमानसा, सत्त्वापत्ति, संसक्ति, पदार्थाहुई है। एक ऐसा समय था जब सष्टि नहीं भावनी और नूर्यगा इन सात ब्रह्मविद् भूमिथी, सर्व शून्यमय था, उस महाशन्यके योंका वर्णन किया गया है। भीतर केवल सृष्टिकर्ता अकेला विराजमान पूर्वकथित संवर तत्त्व और प्रतिथा और उसी शून्यसे किसी एक समयमें मापालन जैनदर्शनका चारित्र भाग है । उसने इस ब्रह्माण्डको बनाया- इस प्रकारका इससे एक ऊँचे प्रकारका नैतिक आदर्श प्रतिमतवाद दार्शनिक दृष्टि से अतिशय भ्रमपूर्ण ष्ठापित हुआ है। सर्व प्रकार आसक्तिरहित है। शून्यसे- असत्से–सत्की उत्पत्ति नहीं होकर कर्म करना ही चारित्रसाधनकी मूल हो सकती । सत्कार्यवादियोंके मतसे केवल बात है । आसक्तिके कारण ही कर्मबन्ध होता सत्से ही सत्की उत्पत्ति होना संभव है। है; अनासक्तहोकर कर्म करनेसे उसके द्वारा "तो विदाते भावो नाभावो विद्यते कर्मबन्ध नहीं होता। भगवद्गीतामें निष्काम धर्म'" जैनदर्शनमें जीवतत्वकी जैसी विस्तृत विस्तारित करके व्यवहारिक जीवनका पेगे। आलोचना है वैसी और किसी भी दर्शनमें पग पर नियमित और विधिबद्ध करके एक उपहासास्पद सीमा पर पहुंचा दिया है। आलोचना ह पसा जार in ... नहीं है। उपहासास्पद सीमा पर पहुंचा दिया है। For Personal & Private Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AAKAMANACRIMALIBALLAHABADMOTI जैनधर्म और जैनदर्शन । ४६१ इसके सम्बन्धमें जितने विधिनिषेध हैं उन रक्तसे लाल होकर सब तरहके सात्विक सबको मानकर चलना इस बीसवीं शताब्दीके भावोंका विरोधी हो गया था। जैन कहते हैं जीवनसंग्राममें युक्तियुक्त और संभवपर है कि उस समय यज्ञकी इस नृशंस पशुहत्याके या नहीं, यह विचारणीय है। विरुद्ध जो कई मत खड़े हुए थे, उनमें जैन __“जैनधर्ममें अहिंसाको इतनी प्रधानता सबसे पहले थे। 'मुनयो वातवसनाः' कहक्यों दी गई है, यह ऐतिहासिकोंकी गवेष- कर ऋग्वेदमें जो नग्नमुनियोंका उल्लेख है, णाके योग्य है । जैनसिद्धान्तमें अहिंसा जैनोंका कथन है कि वे ही जैन दिगम्बर शब्दका अर्थ व्यापकसे व्यापकतर होकर, संन्यासी हैं। अपेक्षाकृत अर्वाचीन ग्रन्थोंमें वह गीतोक्त "बुद्धदेवको लक्ष्य करके जयदेवने कहा हैनिष्काम धर्मके रूपान्तर भावमें ग्रहण किया निन्दसि यज्ञविधेरहह श्रुतिजातं गया है। तो भी, पहले अहिंसा शब्द साधा सदयहृदय दर्शितपशुधातम्' रण प्रचलित अर्थमें ही व्यवहृत होता था, किन्तु यह अहिंसातत्त्व जैनधर्मके साथ इस विषयमें कोई भी सन्देह नहीं है । वैदिक , इस प्रकार अङ्गाङ्गी भावमें संयुक्त है कि ". जैनधर्म बौद्धधर्मके बहुत पहलेका स्वीकृत युगमें यज्ञ-क्रियामें पशुहिंसा निरतिशय निष्ठुर सीमा पर जा पहुंची थी । इस क्रूर कर्मके - होनेपर पशुघातात्मक यज्ञविधिक विरुद्ध विरुद्ध उस समय कितने ही अहिंसावादी - पहले खड़े होनेकी प्रशंसा बुद्धदेवकी अपेक्षा सम्प्रदायोंका उदय हुआ था, यह बात एक - जैनधर्मको ही मिलेगी। वेदविधिकी निन्दा तरहसे सुनिश्चित है । वेदमें ' मा हिंस्यात् " करनेके कारण हमारे शास्त्रोंमें चार्वाक, जैन सर्व भूतानि ' यह साधारण उपदेश रहनेपर और बौद्ध पाषण्ड या नास्तिक मतके नामसे भी, यज्ञ कर्ममें पशुहत्याकी अनेक विशेष विख्यात हैं। इन तीनों सम्प्रदायोंकी झूठी विधियोंका उपदेश होनेके कारण, वह साधा- निन्दाकरक जिन शास्त्रकारान अपना साम्प्ररण विधि केवल विधिके रूपमें ही पर्यवसित दायिक संकीर्णताका परिचय दिया है, उनके होगई थी, पद पद पर व्याहत और अति- इतिहासकी पर्यालोचना करनेसे मालूम होगा क्रान्त होकर उसका कल्याणकर उपदेश कि जो ग्रन्थ जितना ही प्राचीन है, उसमें विस्मृतिके गर्भमें विलीन हो गया था और बौद्धोंकी अपेक्षा जैनोंपर उतना ही अधिक अन्तमें ‘पशु यज्ञके लिए ही बनाये गये हैं,, गाली गलौज है। अहिंसावादी जैनोंके निरीह यह अद्भुत मतवाद प्रचलित हुआथा *। इसके मस्तकके ऊपर किसी किसी शास्त्रकारने तो फलसे वैदिक कर्मकाण्ड आलम्भित पशओंके श्लोकपर श्लोक ग्रथित करके मूसलधार वर्षा - की है। उदाहरणके तौरपर विष्णुपुराणको * यज्ञार्थे पशवः सृष्टाः स्वयमेव स्वयंभुवा। अतस्त्वां घातयिष्यामि तस्माद्यज्ञे वधोऽवधः ॥ ले लीजिए। अभी तककी खोजोंके अनसार For Personal & Private Use Only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ IMILImmummOMARUMAR जैनहितैषी। ४६२ विष्णपुराण सारे पुराणोंसे प्राचीनतम न देवोंके लिए प्रयुक्त करते हैं । तीसरे दोनों ही होने पर भी अतिशय प्राचीन है। इसके तृती- धर्मवाले बुद्धदेव या तीर्थकरोंकी एक ही प्रकायांशके सत्रहवें और अठारहवें अध्याय रकी पाषाणप्रतिमायें बनवाकर चैत्यों या स्तूकेवल जैनोंकी निन्दासे पूर्ण हैं। नग्नदर्श- पोंमें स्थापित करते हैं और उनकी पूजा नसे श्राद्धकार्य भ्रष्ट हो जाता है, और करते हैं । स्तूपों और मूर्तियोंमें इतनी अधिक नग्नके साथ संभाषण करनेसे उस दिनका पुण्य सदृशता है कि कभी कभी किसी मूर्ति और नष्ट हो जाता है। शतधनु नामक राजाने स्तूपका यह निर्णय करना कि यह जैन है एक नग्न पाषण्डसे संभाषण किया था, इस या बौद्ध, विशेषज्ञोंके लिए भी कठिन हो कारण वह कुत्ता, गीदड़, भेडिया, गीध और जाता है। इन सब बाहरी समानताओंके मोरकी योनियोंमें जन्म धारण करके अन्तमें सिवाय मतवादमें भी दोनों धर्मोकी कहीं कहीं अश्वमेध यज्ञके जलसे स्नान करनेपर मुक्ति- सदृशता दिखती है; परन्तु उन सब विषयों में लाभ कर सका । जैनोंके प्रति (वैदिकोंको) प्रबल हिन्दूधर्मके साथ जैन और बौद्ध दोनोंका विद्वेष निम्नलिखित श्लोकसे प्रकट होता है:- ही प्रायः ऐक्यमत्य है। इस प्रकार बहुत सी न पठेत् यावनी भाषां प्राणैः कण्ठगतैरपि। समानता होने पर भी दोनोंमें बहुत कुछ हस्तिना पीडयमानोऽपि न गच्छजिनमन्दिरम् ॥ विरोध है । पहला विरोध, बौद्ध क्षणिकवादी " यद्यपि जैन लोग अनन्त मुक्तात्मा- है। पर जैन क्षणिकवादकी ऐकान्तिकता ओंकी उपासना करते हैं, तो भी वास्तवमै स्वीकार नहीं करता। जैनधर्म कहता है कि वे व्यक्तित्वविरहित पारमात्म्य स्वभावको ही कर्मफलान्तक जन्मान्तरवादके साथ क्षणिक पूजा करते हैं । व्यक्तित्वरहित होनेके कारण कारण वादका सामञ्जस्य नहीं हो सकता । क्षणिकही जैनपूजापद्धतिमें वैष्णव और शाक्त- वाद माननेसे कर्मफल मानना असंभव है । मतके समान भक्तिकी विचित्र तरङ्गभङ्गोंकी * शाका जैनधर्ममें अहिंसा नीतिकी जितनी ज्यादती संभावना बहुत ही कम है। है उतनी बौद्धोंमें नहीं है। अन्य द्वारा मारे "बहुत लोग यह भूल कर रहे थे कि बौद्ध । हुए जीवका मांस खानेकी बौद्धधर्म मनाई मत और जैनमतमै भिन्नता नहीं है । पर दाना नहीं करता, उसमें स्वयं हत्या करना ही धर्नामें कुछ अंशामें समानता होने पर भी मना है । बौद्धदर्शनके पञ्च स्कन्दके असमानताकी कमी नहीं है । समानता, समान कोई मनोवैज्ञानिक तत्त्व भी जैनदर्शनमें पहली बात तो यह है कि दोनोंमें अहिंसा- नहीं माना गया । बौद्धदर्शनमें जीवपर्याय नीतिकी अतिशय प्रधानता है । दूसरे जिन, अपेक्षाकृत सीमाबद्ध है, जैनदर्शनके समान सुगत, अर्हत्, सर्वज्ञ, तथागत, बुद्ध आदि नाम उदार और व्यापक नहीं है। हिन्दुधर्मके बौद्ध और जैन दोनों ही अपने अपने उपास्य समान जैनधर्ममें मक्तिके मार्गमें जिसप्रकार For Personal & Private Use Only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ KAMARITALIANIMAMIALALALITTHALALBAHAAMAKARARIA जैनधर्म और जैनदर्शन। उत्तरोतर सीढियोंकी बात है, वैसी बौद्ध दोनों ही धर्मों में अविकृत रूपसे ले लिया धर्ममें नहीं है । जैन जातिविचार मानते हैं, गया है । जैनोंने कर्मको एक प्रकारके पर बौद्ध नहीं मानते । परमाणुरूप सूक्ष्म पदार्थके रूपमें कल्पना "जैन और बौद्धको एक समझनेका कारण करके, केवल कितनी ही गुरुतर दार्शनिक जैनमतकी अच्छी तरह आलोचना न करना, समस्याओंकी सृष्टि की है, किन्तु उसमें कर्मइसके सिवाय और कुछ नहीं है। हमारे फलवादकी मूल बात पूर्णरूपसे सुरक्षित शास्त्रोंमें कहीं भी दोनोंको एक समझनेकी है । हिन्दूदर्शनका दुःखवाद और जन्मभूल नहीं की गई है। वेदान्तसत्रमें जदे जदे मरणात्मक दुःखरूप संसार सागरसे पार स्थलों पर जदे जदे हेतवादसे बौद्ध और जैन- होनेके लिए निवृत्तिमार्गानुसारी मोक्षान्वेषणमतका खण्डन किया गया है। शंकर दिग्वि- यह हिन्दू बौद्ध और जैन, सबका ही मुख्य जयमें लिखा है कि शंकराचार्यने काशीमें सूत्र है । निवृत्ति तपके द्वारा कर्मबन्ध क्षय बौद्धोंके साथ और उज्जयिनीमें जैनोंके साथ होने पर आत्मा कर्मबन्धसे मुक्त होकर शास्त्रार्थ किया था। यदि दोनों मत एक स्वभावको प्राप्त करेगा और अपने नित्य-बुद्धहोते, तो उनके साथ दो जदे जदे स्थानों में शुद्ध स्वभावके अमित गौरवसे महिमान्वित दो बार शास्त्रार्थ करनेकी आवश्यकता नहीं होगा । उस समय थी। प्रबोधचन्द्रोदय नाटकमें बौद्ध भिक्ष और भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः। जैन दिगम्बरकी लडाईका वर्णन है। क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन् दृष्टे परावरे ॥ यह स्पष्ट भावसे जैन और हिन्दु शा" हिन्दधर्मके साथ जैनधर्मका अनेक स्त्रों में घोषित हुआ है। स्थलोंमें सादृश्य और अनेक स्थलोंमें विरोध जन्म जन्मातरोंमें कमाये हुए कर्मोको है; परन्तु विरोधकी अपेक्षा सादृश्य ही . साहश्य हा वासनाविध्वंसी निवृत्तिमार्गके द्वारा क्षय अधिक है । इतने दिनोंसे कितने ही मुख्य " हा मुख्य करके परमपदप्राप्तिकी साधना हिन्दू, जैन विरोधोंकी ओर दृष्टि रखनेके कारण वैर वर और बौद्ध तीनों ही धर्मों में एक ही समान विरोध बढ़ता रहा और लोगोंको परस्पर का परस्पर उपदेश की गई है । दार्शनिक मतवादके अच्छी तरह देख सकनेका अवसर नहीं । हा विस्तारमें और साधनाकी क्रियाओंकी विशिमिला । प्राचीन हिन्दू सब सह सकते थे; व सह सकत या ष्टतामें भिन्नता हो सकती है. किन्तु उद्देश्य परन्त वेदपरित्याग उनकी दृष्टिमे अक्षम्य और गन्तव्यस्थल सबका ही एक हैअपराध था। रुचीनां वैचित्र्यादृजुकुटिलनानापथजुषां ____ "हिन्दु धर्मका जन्म-कर्म-वाद जैन और नणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव । बौद्ध दोनों ही धर्मोंका मेरुदण्ड है और वह महिम्नस्तोत्रकी यह सर्वधर्म-बहुमान For Personal & Private Use Only Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६४ जैनहितैषी - कारिणी उदारता हमारे शास्त्रों में बारबार उपदिष्ट होने पर भी संकीर्ण साम्प्रदायिक बुद्धिजनित विद्वेष हमारे प्राचीन ग्रन्थों में जहाँ तहाँ प्रकट हुआ है; किन्तु आजकल हमने उस संकीर्णता की क्षुद्र मर्यादा अतिक्रम करके यह कहना सीखा है— यं शैवाः समुपासते शिव इति ब्रह्मेतिवेदान्तिनो बौद्धा बुद्ध इति प्रमाणपटवः कर्त्तेति नैयायिकाः । अर्हन्नित्यथ जैनशासनरताः कर्मेति मीमांसकाः सोऽयं वो विदधातु वाञ्छितफलं त्रैलोक्यनाथो हरिः ॥ होकर " ईसाकी आठवीं सदीमें इसी प्रका रके महान् उदार भावोंसे अनुप्राणित जैनाचार्य भट्ट अलङ्कदेव कह गये हैं:यो विश्वं वेद वेद्यं जननजलनिधेर्भङ्गिनः पारवा पौर्वापर्याविरुद्धं वचनमनुपमं निष्कलङ्कं यदीयम् । तं वन्दे साधुवन्द्यं सकलगुणनिधिं ध्वस्तदोषद्विषन्तं बुद्धं वा वर्द्धमानं शतदलनिलयं केशवं वा शिवं वा । " सम्पादकीय नोट-इस लेखमें हिन्दू-बौद्ध और जैनधर्मके विषयमें जो तुलनात्मक पद्धति से विचार किया गया है और दोनोंमें जो समानता बतलाई गई है, उसपर हमारे समाज के विद्वानोंको विचार करना चाहिए और जो भ्रम हों उन पर प्रकाश डालना चाहिए। - आज हमें अपने विचार प्रकट करने चाहिए और आनेवाले दूसरे दिन उन पर विशेषरूपसे प्रकाश पड़नेपर यदि उनमें भ्रम मालूम हो तो उन्हें बदल देना चाहिए, परित्याग कर देना चाहिए अथवा उन्हींको परिमार्जित करके रखना चाहिए | — 'राल्फ वाल्डो ट्राइन । —जो मनुष्य कभी अपने मन्तव्यों को नहीं बदलते, वे सत्यकी अपेक्षा अपने आपको विशेष चाहते हैं । - ' जोबर्ट Somers Sum काश्मीरका इतिहास | ( ले०-श्रीयुत बाबू सुपार्श्वदास गुप्त बी. ए. । ) ( गतांक से आगे । ) गोनन्दीय वंश ( ११८२ - १८० बी. सी. । ) प्रथम अभिमन्यु के पश्चात् तृतीय गोनन्द राज्यका अधिकारी हुआ । यही गोनन्दीय वंशका संस्थापक माना जाता है । इसका भूतपूर्व प्रथम और द्वितीय गोनन्दोंके साथ कुछ सम्बन्ध था या नहीं, यह नहीं मालूम होता । यह भी आश्चर्यजनक ही है कि, प्रथम दो गोनन्दोंको छोड़कर तृतीय गोनन्द अपने वंशका चलानेवाला. कहा जाता है । संभवतः इसका कारण यह हो सकता है कि, इसके वंश में जितने राजे हुए हैं, सब पिता पुत्र, हैं। दूसरे वंशका कोई राजा इसमें शामिल नहीं है । डाक्टर स्टाइन इसके वंशको ऐतिहासिक मानते हैं, पर इसको नहीं । निस्सन्देह जिस वंशने एक हजार वर्षोंतक राज्य किया और जिसमें मिहिरकुल जैसा प्रसिद्ध ऐतिहासिक पुरुष हुआ, उसे अनैतिहासिक बताना ठेढ़ी खीर है । पर समझसें नहीं आता कि, जब गोनन्दीय वंशको ऐतिहासिक मानते हैं, तब वंशप्रवर्तक गोनन्दको ऐतिसासिक क्यों नहीं माना जाय । यह दूसरी बात है कि, उसके सम्बन्ध में राजतरंगिणीमें जो दो एक अलौकिक बातें लिखी हैं, वे विश्वसनीय न हों । राजतरंगिणी के अनुसार वह बौद्ध धर्मका विना For Personal & Private Use Only Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Ammmmmmmmmmm काश्मीरका इतिहास ४६५ शकर्ता और ब्राह्मण धर्मका उद्धारकर्ता हुआ राजाने उसे देख पाया और वह उसकी है। ब्राह्मणधर्मके पुनर्जीवित होनेसे देशमें सुन्दरतापर मुग्ध हो गया । जब बहुत कोसंजीवनी शक्तिका प्रवेश और राज्यमें प्रीतिका शिश करने पर भी वह उसके हाथ न आई, आविर्भाव हुआ । प्राचीन ढंगसे पूजा पाठ तब उसने अपने किसी नौकरको उसके घर होने लगे । कल्हण लिखता है कि, जब उसे बलपूर्वक पकड़ लानेको भेजा । स्त्री श्रमण नामक एक बौद्ध वैरागी उसकी स्त्री- पुरुषको जब नौकरके घरमें प्रवेश करनेकी को बहका कर ले गया, तब क्रोधमें आकर आहट मिली, तब वे दोनों घरके पीछेकी उसने हजारों विहारोंको नष्ट कर डाला और खिड़कीके रास्ते निकल भागे । अन्तमें हजारों गाँव ब्राह्मणोंको दान दे दिये । इसने नरको अपने कुकर्मका फल भोगना पड़ा ११८२ से ११४७ बी. सी तक ३५ वर्ष और उसका धर्मात्मा लड़का सिद्ध सिंहासराज्य किया। इसके बाद इसके पुत्रपौत्रादि नका उत्तराधिकारी हुआ । नरने वितस्ता चार राजे हुए, जिन्होंने ११४७ से ९९३ नदीके किनारे चक्रधर गाँवके पास बी. सी. तक १५४ वर्ष राज्य किया । एक सुन्दर नगर बसाया था, जिसका इनके नाम प्रथम विभीषण, इन्द्रजीत, रावण नाम उसने नरपुर रक्खा । यह नगर आधु और द्वितीय विभीषण हैं। राजतरंगिणीमें निक विजबहोर ( वृजविहार) कस्बेके पास इनके बारेमें कोई ऐसी बात नहीं, जो उल्लेख था । इस स्थानको देखने और यहाँसे निकले योग्य है । वास्तवमें कल्हणने इनके सम्बन्धमें हुए खण्डहरों पर गौर करनेसे विश्वास कुछ लिखा ही नहीं है। होता है कि, किसी समय यहाँ एक सुन्दर नगर अवश्य था। नरके उत्तराधिकारी सिद्धद्वितीय विभीषणके बाद उसका पुत्र प्रथम के विषयमें केवल इतना ही लिखा है, कि नर (किन्नर) सिंहासनका स्वामी हुआ। उसन वह अपने पिताके समान कुलांगार नहीं बल्कि ९९३ से ९५२ बी. सी तक ४१ वर्ष एक धर्मात्मा और सत्यव्रत राजा था। लिखा राज्य किया । कल्हणने इसका बड़ा लम्बा है कि, वह धर्मबलसे सशरीर स्वर्गको चौडा वृत्तान्त दिया है । इमारतें आदि बना- चलागया । उसने ९५२ से ८९२ बी. कर इसने काश्मीरकी शोभा बढ़ाई । प्रेम सी. तक ६० वर्ष राज्य किया । उसके बाद पाशमें पड़कर इसने एक ऐसा अनुचित उत्पलाक्ष, हिरण्ययक्ष, हिरण्यकुल और कार्य किया जिससे इसका सर्वनाश हो वसुकुल नामक चार साधारण राजे हुए, गया । लिखा है कि, किसी नाराको एक जिनके विषयमें राज्यकालके सिवा और कुछ अति सुन्दर कन्या थी, जिसका विवाह, नहीं लिखा है । इन्होंने ७०४ बी. सी. एक ब्राह्मणसे हुआ था । एकवार अचानक तक १८८ वर्ष राज्य किया । For Personal & Private Use Only Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६६ CATIALAMBAILA B LALIBAALI जैनहितैषी। amummmmmmmm बसुकुलके बाद प्रसिद्ध ऐतिहासिक व्यक्ति मिलती हैं और विश्वसनीय हैं । यदि मिहिरउसका पुत्र मिहिरकुल राजा हुआ, जिसने कुल कल्हणके लिखे अनुसार १२०० ७०४ से ६३४ बी. सी. तक ७० वर्ष वर्ष पहले हुआ समझा जाय, तो राजतरंराज्य किया । राजतरंगिणीके बाहर इसके गिणीमें कुछ ऐसी अलौकिक बातें भी मिलनी सम्बन्धमें जो प्रमाण मिले हैं, उनसे यह चाहिए थीं; जैसी और राजाओंके विषयमें विश्वास होता है कि वह छट्टी सदी ए. कही गई हैं और जिनपर किसीका विश्वास डी. के पूर्वार्धमें काश्मीरमें राज्य करता था। नहीं होता; क्योंकि १२०० वर्षों में ऐसी यह वहीं श्वेतांग हूण है, जिसके सम्बन्धमें बातोंका ऐसे प्रसिद्ध राजाके सम्बन्धमें गढ़ा हम इतना पढ़ते हैं। अपने पिता तोरामणके जाना संभव ही नहीं, बल्कि स्वाभाविक भी है। बाद ५१५ ए. डी. में उसके राज्यका उत्त- डाक्टर फ्लीटका कहना है कि, मिहिरकुलके राधिकारी होनेकी बात पहले पहल डाक्तर राज्यका विस्तार काबुल वैलीसे मध्य भारत फ्लीटने शिलालेखादिके आधारोंपर निश्चय की तक था और जब ५३० ए. डी. के लगभग थी। समझमें नहीं आता, किस प्रकार कल्ह- वह अपने शत्रुओं द्वारा वहाँसे निकाल गने वसुकुलको मिहिरकुलका पिता और भगाया गया, तब उसने काश्मीरमें आकर उसके राज्य करनेका समय १२०० वर्ष शरण ली और वहींसे वह छः वर्षों ( ५४४ पहले ठहराया है। निस्सन्देह इस जगह से ५५० ) तक उसे पुनः प्राप्त करनेका कल्हणने अन्दाज, किम्बदन्ती अथवा किसी उद्योग करता रहा । ऊपर मैंने उसके छट्ठी अनैतिहासिक तथा अविश्वसनीय प्रमाणसे सदीमें होनेका जो दूसरा प्रमाण दिया है, काम लिया है । क्योंकि प्रसिद्ध चीनी यात्री उसके उत्तरमें राजतरंगिणीमें वर्णन किया हुयेनसंग तो उसकी क्रूरता और अत्याचा- हुआ उसके विस्तृत विजयका वृत्तान्त रोंका वर्णन करता ही है, उसके पहलेका पेश किया जासकता है। पर स्मरण रहे कि, एक दूसरा चीनी यात्री भी जिसका नाम संगयन मुजमालुत-तवारीखमें भी इसका वर्णन सुरक्षित था, मिहिरकुलसे स्वयं भेट करनेका वृत्तान्त है। उसकी क्रूरताके दो एक उदाहरण जो लिखता है । इसमें उसने उसे क्रूर राजाकी राजतरंगिणीमें दिये हुए हैं, और जिनका उपाधि दी है । यह बात भी छट्ठी सदीकी चीनीयात्री भी जिक्र करते हैं, पाठकोंके विनोही है। इससे स्पष्ट है कि मिहिरकुलका दार्थ यहाँ दिये जाते हैं । एक वार वह समय छठी शताब्दीके सिवा दूसरा चन्द्रकुल्या नामक नदीकी धाराको दुसरी नहीं हो सकता । दूसरी बात यह भी ओर बहा लेजानेके अभिप्रायसे प्रयत्न कर है कि कल्हणने उसके सम्बन्धमें जितनी रहा था कि, रास्तेमें उसे एक ऐसी चट्टानका बातें लिखी हैं सभी इन यात्रियोंके वर्णनसे सामना करना पड़ा, जो टससे मस नहीं For Personal & Private Use Only Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काश्मीरका इतिहास । हट होती थी । स्वप्नमें उसे मालूम हुआ कि, यह चट्टान पतिव्रता स्त्रीके सिवा दूसरेसे नहीं सकती । पतिव्रता होनेका दम भरनेवाली कितनी ही स्त्रियोंने आजमाइश की, पर कुछ फल न हुआ । अन्तमें एक कुम्हारकी चन्द्रावती स्त्रीने उसे स्थानान्तरित कर दिया। इसपर राजाको बड़ा क्रोध आया और उसने उच्च कुलोद्भव तीन करोड़ स्त्रियोंको उनमें पति, पुत्र और भाइयों सहित मरवा डाला ! इससे आनेवाली सम्तानने उसे ' त्रिकोटिहन' की उपाविसे विभूषित किया। हुयेनसंग ने भी काश्मीरमें उसके विषयमें ऐसा कहा जाते सुना था । लिखा है कि जब वह हिन्दुस्थानको विजय कर काश्मीर लौट रहा था, तब उसने रास्तेमे पर्वतसे गिरे हुए एक हाथीको आलाप करते सुना । उससे वह इतना मुग्ध हुआ कि, उसने अपने सौ हाथियोंको पहाड़परसे कई हजार फुट नीचे गिराये जाने की आज्ञा दी । अनु"संधान करनेसे इस स्थानका पता 'पीर पाँजाल' पासके पास लगा है । इसे लोग ' हस्तिभंज कहते हैं । संभवतः यह वही स्थान है । यह ब्राह्मणधर्मका पोषक और बौद्धका विनाश. कर्त्ता था । इसने कितनी ही बौद्धसंस्थायें नष्ट भ्रष्ट कर दीं । इसकी तरह बहुत कम राजाओंने मनुष्यहत्या की है । 1 ' 1 उसके बाद उसका लड़का बक सिंहास - नारूढ हुआ और उसने ६३४ बी. सी. से ५७१ बी. सी. तक ६३ वर्ष राज किया। वह ४६७ अपने पिताकी तरह क्रूर और निर्दय न था । वह बड़ा धर्मात्मा और दयालु राजा हुआ । उसने कई मन्दिर बनवाये और गाँव बसाये । पर न मालूम क्यों उसकी मृत्यु एक डाइनके हाथसे हुई । कल्हण के समयमें भी यह बात काश्मीरियों में प्रचलित थी । उसके बाद उसीके वंशके क्षितिनन्द, वसुनन्द, द्वितीय नर और अक्ष नामक चार राजे हुए, जिन्होंने ५७१ से ३६९ बी. सी. तक २०२ वर्ष राज्य किया । चूँकि कल्हणने एक ही वाक्यमें इन्हें समाप्त कर दिया है, इसलिए डाक्टर स्टाइनका अनुमान है कि ये अनैतिहासिक व्यक्ति हैं । 1 अक्षके बाद उसका पुत्र गोपादित्य राजा हुआ, जिसने ३६९ से ३०९ बी. सी. तक ६० वर्ष राज्य किया । कहा जाता है कि, कई प्रसिद्ध स्थानोंमें उसने अग्रहरोंकी स्थापना की थी । लोगोंका यह भी विश्वास है कि, श्रीनगरसे पूर्व दो मीलकी दूरी पर एक पहाड़ी पर शंकराचार्य्यका जो मन्दिर है, वह इसीका बनाया हुआ है । यह तख्ते सुलेमानके नामसे भी मशहूर है । राजतरंगिणीमें इसे ज्येष्ठेश्वर बतलाया गया है । इसमें आजकल शिवका लिङ्ग है । इस पर्वत - को गोपाद्रि भी कहते हैं । गोपादित्य के पश्चात् उसका पुत्र गोकर्ण राजा हुआ, जिसने ३०९ से २९१ बी. सी. तक १८ वर्ष राज्य किया । उसके बाद उसके पुत्र खिणखिल नरेन्द्रादित्यको शासनभार मिला । For Personal & Private Use Only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६८ जैनहितैषी HUNT पतितोद्धार । लोगोंका अनुमान है कि, यही देवशाही ASESENERAVINNEL खिंगिल है । इसने २५१ से २१५ वी. सी. तक ३६ वर्ष राज्य किया । उसके । बाद गोनन्दीय वंशका अन्तिम राजा अन्धAHANETRIANANERNETVasi युधिष्ठर सिंहासनारूढ़ हुआ और उसने [ले. श्रीयुत विश्वंभरदास गार्गीय । ] २१५ से १८० बी. सी. तक ३५ वर्ष राज्य किया । अपनी छोटी आँखोंके कारण जिनधर्मका उपदेश है-"तुम द्वेष करना छोड़ दो । वह अंध कहा जाता था । अपने राज्यकालके अज्ञानताके जालको, बनसके तैसे तोड़ दो ॥ प्रथम कई वर्षों तक तो उसने धार्मिक जात्यादिके मदसे तिरस्कृत, मत किसोको भी करो । जीवन व्यतीत किया; पीछे इन्द्रियोंके वशी- संकीर्णताके स्थानमें औदार्यका आदर करो ॥" भूत हो उसने प्रजा और मंत्रिवर्ग दोनोंको अप्रसन्न कर दिया । अन्तमें हार मानकर हे शूद्र सेवक सदासे, सेवा हमारी कर रहे । वे चाहते न समानता, अज्ञानतामें मर रहे ॥ तो भी न हम समझें उन्हें, वे जानवर हैं या मनुज । __ हा हन्त ! गैर बनें हमारी भूमिके ही ये तनुज । सनको तिजांजली दे जंगलमें जाना पड़ा । कल्हण अपने ग्रंथका प्रथम तरंग यहीं हा ! श्वान सम आदर न अब, होता मनुजताके लिए। समाप्त करता है। कैसे हुए हैं सभ्य हम, निजस्वार्थसाधनके लिए। चाहे मरें अन्त्यज कुचलकर, किसीकी गाड़ी तले। भ्रमसंशोधन–पिछले अंकमें प्रमादवश कुछ पर छू सकेंगे हम न उनको, तत्सदृशतनुमें पले ॥ अशुद्धियाँ रह गई हैं । पाठकोंको कृपा करके । उनका संशोधन इस प्रकार करना चाहिए । ३४८ पृष्ठके दूसरे कालिमकी चौथी लाइनमें १८९४ की यों कर घृणा हम हो गये, संसारमें सबसे गिरे। जगह ११८२ चाहिए। वास्तवमें १८९४ लौकिक पर शुद्र 'साहब' बन रहे, हो सदाको हमसे परे ॥ वर्ष है । इसके ६ लाईन और नीचे 'यद्यपि अब पा रहे अधिकार वे, हम हिन्दुओंके सिर चढ़े। राजतरंगिणीके अनुसार से लेकर 'संदिग्ध अवश्य है' हम घट रहे हैं संघबलमें, वे दिनोंदिन हैं बढ़े। तकके बदले यह वाक्य होना चाहिए-"राजतरंगिणीके अनुसार यह समय असंभव नहीं है। क्योंकि १३९४ बी. सी. से ११८२ बी. सी. तक चेतो अभी तक ध्यान दो, इनको न ठुकराते रहो । राष्ट्रीयताके मार्गमें, कंटक न बिखराते रहो॥ अशोक तथा उसके उत्तराधिकारी ६ राजाओंका . राज्य करना भी असंभव नहीं कहा जा सकता।" समझो इन्हें अपना, सहारा, प्रेमसे देते रहो।। र भाचार और विचार इनके, विशद नित करते रहो। आगे ३४९ पृष्टपर दूसरे कालिमकी दूसरी लाइनमें ' १९ वींकी जगह १३ वी और छठी लाइनमें १८९४ की जगह ११८२ चाहिए। -लेखक । For Personal & Private Use Only Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्तिमुक्तावली और सोमप्रभाचार्य । [ले०-श्रीयुत मुनि जिनविजयजी।] ___ सोमप्रभ नामक आचार्यका बनाया हुआ अपने अपने मतानुसार सचेलक या अचेसूक्तिमुक्तावली नामका १०० पद्योंका एक लक-सवस्त्र अथवा निर्वस्त्र-कह कर अपनाते छोटासा ग्रंथ जैनसमाजे खूब आदर पा रहा हैं और उनके प्रति बहुमान प्रकट करते हैं, है । इसकी रचना प्रसाद-गुणयुक्त मधुर और उसी प्रकार सोमप्रभाचार्यको भी श्वेताम्बर बोधप्रद है। इसके प्रत्येक पद्यमें नीति, भक्ति अपने आचार्य बतलाते हैं और दिगम्बर और वैराग्य आदि, विविध प्रकारके सन्मार्गमें अपने और उनकी मुक्तावलीको सांप्रदाप्रवृत्त करनेवाले उपदेशोंका उत्तम संग्रह है। यिक विरोध-दर्शक उद्गारोंके अभावके कारण इस पर न जाने कितने विद्वानोंने न जाने निःशङ्क होकर अपने अपने हृदयमें धारण करते कितने टीका-टिप्पण और हिन्दी-गुजराती हैं। पर वास्तवमें सोमप्रभाचार्य कौन थे आदि प्रचलित देशभाषाओंके गद्यपद्यानुवाद दिगम्बर थे या श्वेताम्बर ? लिखे हैं । इस तरह यह आकारमें लघु होने- जो मनुष्य, सांप्रदायिक-मोहके वशीभूत पर भी गौरवमें एक तात्त्विक या महान् ग्रन्थ- होकर ही सोमप्रभाचार्यकी इस कृतिका आदर की बराबरीका मान पा रहा है। इसके करते हैं और केवल धार्मिक पक्षपातके कार• प्रथम पद्यका आदि पद 'सिन्दूरप्रकरः ' ण ही इस ग्रंथ उपयोगिता समझते हैं उन्हें आदि है, इसलिए इसका दूसरा नाम 'सिन्दूर- उक्त प्रश्नका उत्तर अवश्य ही अरुचिकर प्रकर' भी है। ' सोमशतक' के तीसरे नाम- होगा; परंतु जो गुणानुरागी और सत्यके से भी यह प्रचलित है। क्योंकि इसके अनुयायी हैं उनपर इसका कुछ भी प्रभाव कर्ताका नाम सोमप्रभ है। नहीं पड़ सकता । गुणग्राही और तत्त्वान्वेषी ___ जैनसमाजके श्वेताम्बर और दिगम्बर ना- मनष्य किसी व्यक्ति या कृतिका जो आदरमक दोनों ही संप्रदायोंमें इसका आदर सत्कार करते हैं वह पक्षपात या स्वार्थऔर प्रचार है । जिस प्रकार भक्तामर, क- साधनकी दृष्टि से नहीं करते; किन्तु सत्यके ल्याणमन्दिर आदि स्तात्रोंके कर्ताओंको दोनों स्वरूपको सष्ठतया समझनेके लिए उनका संप्रदायवाले अपने अपने संप्रदायके प्रभावक. आतुर हृदय ही उन्हें वैसा करनेके लिए बाध्य पुरुष मानते हैं, और तत्त्वार्थसूत्रके रचयिता करता है । जो सच्चा जैन है वह तो स्वयं महर्षि उमास्वामी- ( या उमास्वाति )-को भगवान् महावीरमें भी केवल श्रद्धा या धार्मिक For Personal & Private Use Only Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जनहितैषी विश्वासके वशीभूत होकर अपना प्रेमभाव लाकर रख दिया जाय और कह दिया प्रकट नहीं करता; किन्तु जब उनमें ' यथा- जाय कि यह अमुक पूर्वाचार्यका बनाया वदाप्तत्व । आदि गुणोंकी बुद्धिपूर्वक सम्यक हुआ है, चाहे फिर उसमें कुछ भी तत्त्व न परीक्षा कर लेता है तब कहीं उन्हें मानता- हो-तो हम झट उसका आदरातिथ्य करने पूजता है * । जो व्यक्ति या ग्रंथ सत्यका लग जायेंगे और किसी प्रकार · ननु न च' अनुयायी होकर उसके मार्गपर चलनेका उपदेश किये बिना ही अन्यान्य ग्रन्थोंकी तरह करता है, वह चाहे किसी सम्प्रदाय और उसकी उपादेयता स्वीकार कर लेंगे । इसी किसी स्वरूपमें हो, सत्यग्राहक उसे प्रकार किसी भिन्न सांप्रदायिक विद्वान्का अवश्य अपनायगा । यद्यपि ये उल्लेख प्रस्तुत बनाया हुआ ग्रंथ यदि हमें पसन्द आगया विषयके साथ कोई सीधा संबंध नहीं रखते; तो हम उसमें कुछ थोडासा परिवर्तन परंतु हमारे समाजके वर्तमान धार्मिक-विचा- कर-आदि-अन्तके श्लोकोंमें नामादिका फेर रोंने जो विचित्र वेष पहन लिया है उसे देखकर फार कर उसे अपने संप्रदायमें ले लेंगे। इस विषयमें दो शब्द लिखनेकी इच्छाका संवरण इस प्रकारके ग्रन्थचौर्यमें हमें कोई दूषण हम नहीं कर सके । हमारे समाजमें सांप्र- नहीं लगता-प्रत्युत अपने साहित्यमें इस दायिक मोह-अन्धश्रद्धा का इतना प्राबल्य प्रकार एक ग्रन्थकी वृद्धि हुई देख कर हमें होगया है कि जिससे हम अपने धर्मके आनन्द प्राप्त होता है ! परन्तु यदि उस मूल-स्वरूपको बहुत कुछ भूल गये हैं। ग्रन्थके मूलरूपको विकृत न बनाकर, असली सत्योपदेष्टा श्रीमहावीरके सम्यक् तत्त्वोंपर रूपमें ही उसका वाचन-श्रवण किया जाय, हमने अपनी सङ्कचित विचार-शीलताका तो हमारे सम्यक्त्वमें मालिन्य उत्पन्न हो ऐसा गहरा परदा डाल रक्खा है कि जिससे जाता है ! हमारा नाम मिथ्यात्वके पृष्ठ-पोहम उनके-तत्त्वोंके-सत्यरूपको ठीक ठीक षकोंमें गिना जाता है !! श्वेताम्बर और नहीं देख सकते । हमारी बुद्धिको अयोग्य दिगम्बर-दोनों ही संप्रदायोंमें, इस प्रकारके पक्षपात-धार्मिक कदाग्रह-ने इस तरह दबा ग्रन्थचौर्यके अनेक उदाहरण दृष्टिगोचर हो रक्खा है कि, वह स्वतंत्र विचारपूर्वक अपने रहे हैं। आप सत्यासत्य और हेयोपादेयका सम्यग् । निर्णय किसी प्रकार कर ही नहीं सकती। पाठक, आइए, इस विषयान्तरको यहीं हमारे सामने कोई अज्ञात और कृत्रिम ग्रंथ छोड़ कर, अब हम मूलविषयकी तरफ दृष्टि - डालें और देखें कि सोमप्रभाचार्यको अपने * न श्रद्धयैव त्वयि पक्षपातो न द्वेषमात्रादरुचिः अपने आचार्य बतलानेमें, दोनों संप्रदायोंके परेषु । यथावदाप्तत्वपरीक्षया तु त्वामेव वीर ! प्रभु माश्रिताः स्मः॥ -श्रीहेमचन्द्रसूरिः। पास क्या क्या प्रमाण हैं और वे कैसे हैं ? For Personal & Private Use Only Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ KATARIOMATALAIMIMARITALIMATALALITD मूक्तिमुक्तावली और सोमप्रभाचार्य । CuffinityLETYLEONEtitHILAYERNETYPTETTETrinition ४७१ पाठक जानते हैं कि, यह ग्रंथ सामान्य म्बर विद्वान्का बनाया हुआ देखनेमें नहीं और हितकर उपदेश देनेवाला है और इसी आया । हाँ, सुप्रसिद्ध कविवर श्रीबनारसीदालिए दोनों समुदायोंमें एकसा प्रिय हो रहा सजीका किया हुआ इसका पद्यानुवाद अवश्य है। ऐसी दशामें, इसमेंसे ऐसे प्रमाण नहीं दिगम्बर-साहित्यकी शोभा बढ़ा रहा है। मिल सकते कि जिससे इसका संप्रदायत्व कविवरजीकी यह कृति बहुत ही उत्तम निश्चित किया जाय * । जो कुछ विचार और प्रशंसनीय है । जितना आनन्द मूल किया जा सकता है वह केवल इसके अन्तिम ग्रन्थके पाठसे आता है उतना ही इस पद्यपरसे-जिसमें कर्ताने अपना तथा अपने अनुवादसे भी। हमारा अनुमान तो यह गुरु और दादा-गुरुका नामोल्लेख किया है। कहता है कि कविवरजीके इस सुप्रयासने ही दिगम्बरसंप्रदायमें, इस ग्रंथको आदर अभजदजितदेवाचार्यपटोदयाद्रि ामणिविजयसिंहाचार्यपादारविन्दे । दिलाया है और तत्पश्चात् ही उक्त समुदायमें मधुकरसमतां यस्तेन सोमप्रभण इसके पठन पाठनका प्रचार हुआ है । व्यरचि मुनिपनेत्रा सूक्तिमुक्तावलीयम् ॥ ऐसा न होता तो कविवरजीके पूर्ववर्ती अर्थ स्पष्ट ही है कि, श्रीअजितदेव नामक किसी विद्वानकी की हुई कोई टीका टिप्पणी आचार्यके पदरूप उदयाचल पर सूर्यसमान अवश्य उपलब्ध होती; जैसा कि श्वेताम्बरविजयसिंहसूरि हुए; उनके चरणरूप कमलों- साहित्यमें देखा जाता है । में भ्रमरकी उपमाको धारण करनेवाले सोम - हमारे विचारसे इसकी प्रसिद्धि और प्रीप्रभाचार्य हुए; जिन्होंने इस सूक्तिमुक्तावली 'तिमें मुख्य कारण उपर्युक्त कविवरजी ही हैं। की रचना की । पुराने टीकाकारोंने भी यही एक तो दिगम्बर भाइयोंकी यह श्रद्धा है कि भावार्थ लिखा है। दिगम्बर-विद्वान् भिन्न संप्रदायके किसी भी जहाँ तक हम खोज कर सके, दिगंबर ग्रन्थ पर उसके पोषणार्थ, एक अक्षर भी साहित्य और इतिहासमें इस विषयका जानने नहीं लिख सकता; ऐसी दशामें कविवरजीने लायक कोई उल्लेख नहीं मिला। न किसी जब इसका अनुवाद किया है तब यह ग्रन्थ पट्टावलीहीमें इन आचार्योंका वृत्तान्त मिला हमारे ही संप्रदायका होना चाहिए और और न किसी ग्रन्थमें ही कोई उल्लेख नजर दसरी बात यह है कि खुद कविवरजीने ही आया । * टीका-टिप्पण भी इसपर किसी दिग * एक संस्कृत टीका अभी हाल ही निपाणी ___ * हमने लेखके अन्तमें एक ऐसा प्रमाण दिया (बेलगांव ) में छपी है, जो किसी दिगम्बर विद्वानहै कि जिससे मालूम होता है कि यह ग्रन्थ किस की बनाई हुई है, परन्तु उसमें टीकाकारका नाम नहीं सम्प्रदायका है। है। इस पुस्तककी समालोचना इसी अंकअन्यत्र -सम्पादक। की गई है। -सम्पादक। For Personal & Private Use Only Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७२ जनहितैषीfilimmitinuinni इस पर दिगम्बरत्वकी मुहर ( छाप ) लगा प्रचार देख कर उन्हें इसके कर्ताके विषयमें दी है । बस इन्हीं दो कारणोंसे यह ग्रन्थ विशेष जाननेकी इच्छा हुई हो और पूछदिगम्बर सम्प्रदायका समझा जाने लगा है। ताछ करने पर सोमप्रभाचार्यके दिगम्बर देखिए, कविवरजीकी वह महर यह है:--- होनेमें, उन्हें कोई विश्वसनीय-ऐतिहासिक जैनवंश-सर-हंस दिगम्बर, दृष्टिसे नहीं किन्तु सांप्रदायिक दृष्टिसे-बात मुनिपति अजितदेव अति आरज ॥ ज्ञात हुई हो और फिर उसके आधारसे ऐसा ताके पट्ट वादिमद-भंजन, स्वाभाविक लिखा गया हो । दूसरा यह कि, प्रकटे विजयसेन आचारज ॥ कविवरजी जब प्रथम श्वेताम्बर संप्रदायमें थे, ताके पट्ट भये सोमप्रभ, तिन ये ग्रन्थ कियो हित कारज । तब, उन्हें यह ग्रंथ बहुत प्रियकर लगा हो; जाके पढ़त सुनत अवधारत, और फिर संप्रदायके परिवर्तन करनेका कारण हैं सुपुरुष जे पुरुष अनारज । उपस्थित होनेपर, अपने समान इसका भी -बनारसीविलास पृ०६८। यह पद्य सूक्तिमुक्तावलीके अन्तिम-पद्य संप्रदाय बदल देने की इच्छासे, उन्होंने इसका का-जो ऊपर लिखा जा चुका है-भावानुवाद अच्छा अनुवाद बनाकर केवल चार अक्षरोंके मात्र है । इस लिए जो बात मूलमें है संमिश्रणसे इसमें, दूसरे संप्रदायमें प्रविष्ट उसीका भाव अनुवादमें आना चाहिए; परंतु होनेकी शक्तिका संचार कर दिया हो । कुछ इसमें उन्होंने अपनी तरफके चार अक्षर भी हो, परंतु यह ग्रन्थ उन्हें था बहुत प्रिय । मिला दिये हैं जिससे यह मूलका ठीक ठीक - इसके पाठसे उन्हें अनार्य भी आर्य होते संवाद न देकर एक पक्षका पक्षकार या वकील प्रतीत होते थे। अपने इस अनुरागके कारण बन गया है और सोमप्रभ तथा उनके गुरु ही वे इसे दिगम्बर-संप्रदायमें आदर दिला गये । और दादा गुरु-सवको दिगम्बर बतलाता है। अब हमें श्वेताम्बर साहित्यकी ओर दृष्टि परन्तु इसमें जो दिगम्बर शब्द है उसे कवि- डालना चाहिए और देखना चाहिए कि वह वरजीने अपनी ओरसे लिखा है। मूलमें यह इस ग्रन्थके विषयमें क्या प्रमाण दे सकता है। शब्द या इसका पर्यायवाचक-अथवा भावो- सोमप्रभाचार्य, श्वेताम्बरसंप्रदायकी मुख्य द्योतक भी-कोई शब्द नहीं है । इस शब्द- शाखा-जो तपागच्छके नामसे विख्यात को खास इच्छा-पूर्वक प्रयोग करनेमें उनका है-उसके एक प्रतिष्ठित और पट्टधर आचार्य क्या आशय था सो जानना कठिन है; परंतु थे। विक्रमकी १३ वीं शताब्दीके पूर्वार्द्ध पर्यन्त कल्पना करने पर दो अस्पष्ट कारण हमें ये विद्यमान थे । सुविख्यात जैनधर्मधारक प्रतिभात हुए । एक तो यह कि सूक्तिमुक्ता- महाराज कुमारपाल और जगद्विश्रुत आचार्य वलीका श्वेताम्बर संप्रदायमें भी विशेष रूपसे श्रीहेमचन्द्रजीके समयमें, गुर्जर-राजधानी For Personal & Private Use Only Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .CHARLALLEBARABACURRBABAADHAAR S सूक्तिमुक्तावली और सोमप्रभाचार्य। ४७३ अणहिल्लपुरमें, ये बहुत रहा करते थे। कवि- जाती है । विक्रम संवत् १४६६ में इसकी चक्रवर्ती श्रीपाल और प्रसिद्ध धनिक दोहदि- रचना हुई है । अर्थात् सोमप्रभाचार्यके, लग की वसतियोंमें बहुत करके इनकी स्थिति भग २०० वर्ष बाद यह लिखी गई है। हुआ करती थी। ये अपने समयके एक बड़े इस गुर्वावलीमें सोमप्रभाचार्य तथा उनके गुरु भारी विद्वान् और सम्मान्य आचार्य थे। और दादा-गुरुका उसी क्रमसे उल्लेख है हेम-कुमार-चरित, सुमतिनाथचरित, शृङ्गार- जैसा कि सूक्तिमुक्तावलीमें है । देखिएवैराग्य-तरंगिणी, आदि अनेक ग्रन्थोंकी, ___ अष्ट-हयेश ( ११७८ ) मितेऽब्दे, संस्कृत और प्राकृत भाषामें, इन्होंने रचना विक्रमकालादिवंगतो भगवान् । श्रीमुनिचन्दमुनीन्द्रो की है। इनकी प्रतिभा अलौकिक थी । ददातु भद्राणि सङ्घाय ॥ इन्होंने एक काव्य बनाया है जिसके जुदा तस्मादभूदजितदेवगुरुगरयिान् जुदा प्रकारके १०० अर्थ किये हैं । इस प्राच्यस्तपःश्रुतनिधिर्जलाधिर्गुणानाम् । काव्य-चमत्कृतिसे मुग्ध होकर विद्वानोंने, श्रीदेवसूरिरपरश्च जगतत्प्रसिद्धो वादीश्वरोऽस्तगुणचन्द्रमदोऽपि बाल्ये ॥ इन्हें ' शतार्धिक ' की महती उपाधि प्रदान तेष्वादिमाद्विजयसिंहगुरुर्बभासे की थी। इनके पदपर सुप्रसिद्ध श्रीजग- विद्यातपोभिरभितः प्रथमोऽथ तस्मात् । चन्द्रसूरि प्रतिष्ठित हुए थे जिनसे बृहद्गच्छ सोमप्रभो मुनिपतिविदितः शतार्थी त्यासीद्गणीव मणिरत्नगुरुर्द्वितीयः॥ का नाम तपागच्छ पड़ा और जो आजतक प्रचलित है। अर्थात्-संवत् ११७८ में श्रीमुनितपागच्छके आचार्योंकी पट्ट-परंपराके , चन्द्रसूरि स्वर्गको सिधारे । उनके दो प्रधान ५१ वें नम्बर पर मुनिसुन्दरसूरिका नाम , शिष्य हुए-एक अजितदेवसूरि और दूसरे है। ये आचार्य भी बड़े भारी विद्वान् और - देवसूरि । अजितदेवके शिष्य विजयसिंहसूरि तेजस्वी माने जाते हैं । अध्यात्मकल्पद्रुम हुए। उनके दो शिष्य थे जिनमें बड़े सोमप्रभ और उपदेशरत्नाकर आदि ग्रन्थ इन्हींके , ' और छोटे मणिरत्नसूरि थे। यही वृत्तांत बनाये हुए हैं। इन ग्रन्थोंमें 'गर्वावली, अन्य पट्टावलियोंमें तथा ग्रन्थों में भी लिखा नामका भी ५०० पद्योंका एक ग्रन्थ है। हुन हुआ है । उदाहरणके लिए, षड्दर्शनसमुयह ऐतिहासिक होकर रचनामें भी मनोहर चयक प्रासद्ध टाका-कार श्रागुणरत्नमारक हैं। इसमें श्रमण भगवान् श्रीमहावीरसे लेकर, क्रियारत्नसमुच्चयकी प्रशस्ति लीजिएकतोन, अपने समय तकके तपागच्छके आ. नित्यं पपौ काजिकमेकमम्भचार्योंका संक्षिप्त परंतु संशोधित इतिहास स्तत्याज सविकृतीश्च सम्यग् । लिखा है। तपागच्छकी पट्टावलियोंमें यह १-जगचन्द्रसूरि इन्ही मणिरत्नके शिष्य थे जिनपट्टावली सबसे पुरानी और प्रामाणिक गिनी से तपागच्छ प्रसिद्ध हुआ। For Personal & Private Use Only Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७४ IMULIDARB0m जैनहितैषी जिगाय यो भावरिपूंश्च सोऽयं हैं जो सूक्तिमुक्तावली और गुर्वावली आदिमें __ श्लाघ्यो न केषां मुनिचन्द्रसूरिः ।। मिलते हैं । देखिएतस्याभवन्नजितदेवमुनीन्द्रवादिश्रीदेवसूरिवृषभप्रमुखा विनेयाः । सूर्याचन्द्रमसौ कुतर्कतमसः कर्णावतंसौ क्षितेआद्यादभूद्विजयसिंहगुरुर्गरीयान् धुर्यों धर्मरथस्य सर्वजगतस्तत्त्वावलोके दृशौ । निस्सङ्गतादिकगुणैरनिशं वरीयान् । निर्वाणावसथस्य तोरणमहास्तम्भावभूतामुभाततः शतार्थिकः ख्यातः श्रोसोमप्रभसूरिराट् । वेकः श्रीमुनिचन्द्रमूरिरपरः श्रीमानदेवप्रभुः ॥ सूरिः श्रीमणिरत्नश्च भारत्यास्तनयाविव ॥ तयोर्वभूवाजितदेवमूरिः शिष्यो वृहद् च्छनभःशशाङ्कः । जिनेन्द्रधर्माम्बनिधिःप्रपेदे घनोदकः स्फुर्तिमतीव यस्मात् ये प्रमाण तो उन अन्य ग्रन्थ-कारोंके हैं श्रीदेवमूरिप्रमुखा वभवरन्येऽपि सत्पादपयोजहंसाः । येषामवाधा रचितास्थितीनां नालीकमैत्री मुदमाततान॥ विशारदशिरोमणेरजितदेवसूरेरभूत् । के दिये जाते हैं जो उनके अन्य ग्रन्थों में क्रमाम्बुजमधुव्रतो विजयसिंहमूरिः प्रभुः । मितोपकरणक्रियारुचिरनित्यवासी च यविद्यमान हैं। ऊपर हमने सोमप्रभाचार्यके चिरन्तनमुनिव्रतं व्यघितदुःखमायामपि ॥ तत्पपूर्वाद्रिसहस्ररभिः सोमप्रभाचार्य इति प्रसिद्धः । ' हेम-कुमार-चरित ' का नाम है । यह श्रीहेमसूरेश्च कुमारपालदेवस्य चेदं न्यगदच्चरित्रम् ॥ ग्रन्थ बहुत बड़ा है। कोई ७-८ हजार इन श्लोकों का तात्पर्य पूर्वके श्लोकों के श्लोक प्रमाण है । इसकी रचना कुछ संस्कृत जैसा ही है । ये ही श्लोक, कुछ थोडेसे और कुछ प्राकृतमें हैं । महाराज कुमारपाल शब्दोंके फेर फारके साथ, 'मुमतिनाथ. और आचार्य हेमचन्द्रका इसमें चरित वर्णित चरित' नामक ग्रन्थके अन्तमें भी दिये है । विक्रम सवत् १२४ १ में इसकी समाप्ति हुए हैं जो कुमारपालके राजत्व-कालमें लिखा हुई है । महाराज सिद्धराज जयसिंहके मान- गया था। विजयसिंहसूरिके एक शिष्यपात्र और भ्रातृतुल्य प्रागवाट (पोरवाड़ ) अर्थात् सोमप्रभाचार्यके गुरु-भ्राता-हेमचन्द्र ज्ञातीय कविचक्रवर्ती श्रीश्रीपालके पुत्र सिद्ध- थे। उन्होंने, कोई १२०० श्लोक प्रमाण पाल-जो महाराज कुमारपालके बड़े प्रेमपात्र 'नाभेय-नेमि-द्विसन्धान' नामका गद्यपद्यथे–की ' वसति । में रह कर यह बनाया मय मनोहर काव्य लिखा है जिसका संशोगया था और स्वयं हेमचन्द्रसूरिके, महेन्द्र- धन उक्त कवि-चक्रवर्ती श्रीश्रीपालने किया मुनि, वर्द्धमान मुनि और गुणचन्द्रमुनि नामके है । इसकी प्रशस्तिमें लेखकने जो अपनी विद्वान् शिष्योंने इसका श्रवण किया था। गुरुपरंपरा लिखा है वह भी उपरि लिखित इस महत्त्ववाले ग्रंथमें, अन्तमें सोमप्रभाचार्यने प्रशस्तिके समान ही है। पाठकोंके अवलोजो अपनी गुरुप्रशस्ति दी है उसमें भी वही कनार्थ हम उसे भी यहाँ पर उद्धृत कर गुरुपरंपरा-वे ही तीनों नाम-क्रमसे मिलते देते हैं For Personal & Private Use Only Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ KAHAANI MMMAMAMAILORIORIEMAMAILOMACHAR सूक्तिमुक्तावली और सोमप्रभाचार्य। THATTIMinitionfirmfimfNTRAYANTRY ४७५ भक्तः श्रीमुनिचन्द्रसूरिसुगुरोः श्रीमानदेवस्य च पासक है तो संप्रदायके मिथ्यामोहमें न फँस श्रीमान् सोऽजितदेवसूरिरभवत् षट्तर्कदुग्धाम्बुधिः। कर, केवल तत्त्वदृष्टिसे, इसमे रहे हुए गुणोंका सद्यः संस्कृतगद्यपद्यलहरीपूरेण यस्याप्रभ और गूंथे हुए सत्योंका, विवेकपुरःसर ग्रहण क्षिप्ता वादिपरम्परा तृणतुलां धत्तेस्म दूरीकृता । श्रीमानाभूद्विजयसूरिरमुष्य शिष्यो और उपासन करें । जीवन-प्रद सुमन्द येन- -स्मरस्य शरान् गृहीत्वा + । पवनको श्वास द्वारा अपने हृदयमें भरते हुए कृप्त चतुर्भिरनघं शरयन्त्रमग्रे मनुष्य, जिस प्रकार उसके उत्थानस्थानका विश्वं तदेकविशिखेन वशं च निन्ये ॥ विचार नहीं करते, उसी प्रकार जीवनको उन्नत श्रीहेमचन्द्रसूरिर्बभूव शिष्यस्तथापरस्तस्य । भवहतये तेन कृतो द्विःसन्धानप्रबन्धोऽयम् ॥ बनानेवाले उत्तम-वचनोंको अपने अन्तःकरणमें एकाहनिष्पन्नमहाप्रबन्धः श्रीसिद्धराजप्रतिपन्नबन्धुः। प्रविष्ट करते समय उनके उद्भव-स्थानका विचार श्रीपालनामा कविचक्रवर्ती सुधीरिमं शोधितवान् प्रबन्धम् भी विचार नहीं करना चाहिए । सत्यके ___ इन आवतरणों और प्रमाणोंसे विज्ञ-पाठ- स्वरूपका साक्षात्कार करनेवाले तत्वज्ञोंका कोंको निश्चय हो गया होगा कि जो सूक्ति- जगतके प्रति पवित्र सन्देश है कि-'बालादपि मुक्तावलीके कर्ता हैं वे ही हेमकुमारचरितादिके हितं ग्राह्यम् । शमस्तु सर्वेषाम् ।। कर्ता हैं । गुर्वावली और क्रियारत्नसमुच्चयमें सम्पादकीय सम्मतिजिनका उल्लेख है वे सोमप्रभ तथा हेमकुमार- १ सूक्तिमुक्तावलीमें संघाधिकार' नामका चरित और सिंदूरप्रकरके का सोमप्रभ भी एक चार श्लोकोंका प्रकरण है जिसमें 'संघ' की एक ही हैं-भिन्न नहीं । - ऐसी दशामें प्रंशसा की गई है । यद्यपि दिगम्बर सम्प्रदासोमप्रभाचार्यके श्वेताम्बर होनेमें किसी प्रकार- यमें भी चतुर्विध संघकी प्रशंसा यत्र तत्र का सन्देह नहीं रहता। मिलती है। परन्तु वह इस रूपमें इतनी बढा अब हम अपने वक्तव्यको समाप्त करते चढ़ाकर कहीं भी नहीं मिलती जितनी उक्त हुए विज्ञवाचकोंसे एक निवेदन करते हैं कि संघाधिकारमें है । संघकी भक्तिसे तीर्थकरका ___"The Suktamuktavali of Somaprabhacharya, ( No. 469 ), may also be mentioned in this connection. Somaprabhacharya represents himself to be the pupil of Vi jayasinha who occupied the seat of Highअवश्य ही समान-भावसे कल्याण कर सकती priest after Ajitadev; (K. K.; Appendix है । इसलिए यदि आप गुणग्राहक और सत्यो- II II). All these names occur in the success ion list of the pontiffs of the Tapagachcha, + यह काव्य कुछ अशुद्ध और अपूर्ण है । इसकी and Somaprabhacharya seems to have lived in the latter part of the twelth केवल एक ही प्रति-सो भी बहुत जीर्ण-पाटनके एक entury. ( Ind. Ant., Vol. XI, p.254.)" भाण्डारमें है। -लेखक । Refort for the Search for Sanskrit Inss डॉक्टर जी. आर, भाण्डारकरने भी अपनी रिपोर्ट in the Bombay Presidency (1882-1883. यही लिखा है। देखिए by Bhandarkar--p. 42. For Personal & Private Use Only Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MITRATIMALLLLLLLLLLLL ४७६ जैनहितैषी पद प्राप्त होता है, इन्द्र और चक्रीकी पदवी काम चल जाता है, परन्तु यह जाननेका तो संघके भक्तके लिए न कुछ है, संघकी जरूरत है कि दिगम्बर सम्प्रदायमें कहीं इस महिमाका वर्णन वाचस्पतिकी भी वाणी नहीं बातका भी जिकर है या नहीं कि इन्द्रने कर सकती, पवित्रताके कारण संघको 'तीथे' संघको नमस्कार किया है । यदि ऐसा न या तारनेवाला कहा है, संघको और तो क्या है क्या हो तो उक्त पाठपरिवर्तन करना भी निरस्वयं तर्थिंकरदेव नमस्कार करते हैं, संघ र्थक होगा। समस्त गुणोंकी खान है, भगवत् संघ अतिशय पूजनीय है, आदि विशेषण उक्त संघा २ कविवर बनारसीदासजी आध्यात्मिक धिकारमें ऐसे हैं जो दिगम्बरसम्पदायके पुर " पुरुष थे। उनकी रचनासे पता लगता है अनुयायांके लिए बिलकुल अपरिचित हैं। । कि वे बहुत ही निष्पक्ष विद्वान् थे। उनमें पर श्वेताम्बर सम्प्रदायमें संघका महत्त्व सच- इस प्रकारके साम्प्रदायिक मोहकी तो संभामुच ही बहुत अधिक वर्णन किया गया है वना ही नहीं हो सकती है कि वे किसी और इससे हमारी समझमें यह ग्रन्थ श्वेता श्वेताम्बर आचार्यको जानबूझकर दिगम्बर म्बरी ही अँच पड़ता है। ' बना दें। या तो उनको स्वयं ऐसा विश्वास निर्णयसागरप्रेसकी काव्यमालामें जो होगा कि यह दिगम्बर ग्रन्थ है, या जिस सूक्तिमुक्तावली छपी है और जो तीन प्राचीन प्रतिपरसे उन्होंने अनुवाद किया होगा, उसपुस्तकोंके आधारसे संशोधित हुई है, उसमें की ही किसी टीका टिप्पणीमें ग्रन्थके दिग२२ वें नम्बरके श्लोकका तसिरा चरण म्बर होनेका उल्लेख होगा । बम्बईके तेरहइस प्रकार है: - पंथी मन्दिरमें बासोदेके भंडारसे आई हुई " यस्मै तीर्थपतिर्नमस्यति सतां यस्माच्छुभं जायते” एक सूक्तिमुक्तावली है । इसके १३ पत्र हैं। अर्थात् “जिस संघको तीर्थकरदेव नम- प्रारंभका एक पत्र नहीं है। इसके अन्तमें स्कार करते हैं और जिससे सबका कल्याण लिखा है- " संवत् १६३० वर्षे चैत्र होता है ।" परन्तु दिगम्बर सम्प्रदायमें यह सुदि ८ बुद्धे दिने श्रीमूलसंघे बलात्कारगण बात मान्य नहीं है कि तीर्थंकरदेव संघको सरस्वतीगच्छे कुंदकुंदाचार्यान्वये अस्मिन नमस्कार करते हैं, इसलिए दिगम्बर अधि- मालवदेशे आचार्य पद्मनन्दिदेव तत्पट्टे आकारकी या दिगम्बरोंकी छपाई हुई पुस्तकोंमें चार्य श्रीयशकीर्तिदेव तत् सिष्य ब्रह्म आसे'तीर्थपति' की जगह कहीं 'देवपति' और सा इदं लिखितं । श्रेयस्तु कल्याणमस्तु । श्री। कहीं 'स्वर्गपति' पाठ मिलता है । यद्यपि छ ।" इससे मालूम होता है कि संवत् साधारण दृष्टिसे स्वर्गपति और देवपति पाठ १६३० में यशकीर्ति भट्टारकके शिष्य भी कुछ बुरे नहीं मालूम होते हैं और इनसे आससा ब्रह्मचारीने इसे लिखा था। इसमें For Personal & Private Use Only Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माताका पुत्रको जगाना। Cultimthitthilimumtititimum सूक्तिमुक्तावलीकी जो प्रशस्ति है, वह बहुत माताका पुत्रको जगाना। ही विलक्षण है । देखिए:अभजदजितविद्यो वादिवादीन्द्रवज्रो (ले०-श्रीयुत पं० रामचरित उपाध्याय ।) नृपतिविबुधवन्द्यो गौरसेनाधिकंजे । मधुकरसमता यः सोमदेवेन तेन व्यरचि मुनिपराज्ञा सूक्तिमुक्तावलीयम् ॥ नभोऽङ्कमें तारक-वृन्द खोगया, इत्याचार्य सोमदेवविरचितं सूक्तिमुक्तावली शास्त्र समाप्त। निशेश भी तेज-विहीन होगया। ___ डा० भाण्डारकरने अपनी सन १८८२-८३ मनोहरा मोदमयी हुई दिशा, की संस्कृत पुस्तकोंकी रिपोर्टमें सूक्तिमुक्ताव उठो उठो पुत्र ! रही नहीं निशा ॥ लीकी जो दो प्रतियाँ लिखी हैं उनमेंकी भी ललाम है पूर्वदिशाऽऽस्य-लालिमा, एक प्रतिमें यही पद्य लिखा है । यह पद्य परन्तु है पश्चिम-भाग-कालिमा। सूक्तिमुक्तावलीका वह अन्तिम पद्य परिवर्तित विलोकिए कोतुक है बड़ा भला, करके गढ़ा गया है जिसमें अजितदेव, उठो उठो पुत्र ! प्रभात हो चला ॥ विजयसिंह और ग्रन्थकर्ता सोमप्रभाचार्यका स्पष्ट वर्णन है। साफ मालूम होता दिनेश आना अब चाहता यहाँ, है कि यह किसी सम्प्रदायमोहमुग्ध महा. सरोज-संघात विकाश पा रहा। उठो उठो पुत्र ! तमोऽवसान है, त्माकी कारीगरी है । मालूम नहीं कौनसे प्रमाद-सेवा दुखका निधान है। गौरसेनशिष्य सोमदेवकी ख्याति बढ़ानेके लिए यह प्रयत्न किया गया है । अस्तु । इससे न चन्द्रमा नष्ट हुआ समग्र है, हम सिर्फ यह बतलाना चाहते हैं कि वि० तमोनिहन्ता दिननाथ व्यग्र है। संवत् १६३२ में भी-जब बनारसीदासजीका यही घड़ी है सुख-सिद्धिके लिए, उठो उठो पुत्र ! सुवृद्धिके लिए ॥ जन्म भी नहीं हुआ था-सूक्तिमुक्तावलीको दिगम्बर ग्रन्थ बनानेका प्रयत्न हो चुका था, शशी कलंकी गिरता न क्यों कहो ? तब यदि बनारसीदासजीके हाथमें भी कोई घमण्डियोंका अवसान क्यों न हो? ऐसी प्रति आई हो जिसमें सोमप्रभको दिगम्बर इसी लिए आज जगा रही तुम्हें, लिखा हो तो कुछ आश्चर्य नहीं है। स्वधर्ममें पुत्र ! लगा रही तुम्हें । __ इस तरह हमें भी यह ग्रन्थ एक श्वेता निशान्तके साथ निशेश भी चला, म्बराचार्यका बनाया हुआ ही प्रतीत होता मनो महीके सिरसे दली बला । है । पर यदि किसी सज्जनका ऐसा खयाल दिखा रही है वह क्या छटा भली, उठो उठो पुत्र! मधुव्रतावली ॥ हो कि-नहीं, यह दिगम्बरसम्प्रदायका ही ग्रन्थ है, तो उन्हें इस विषयके प्रमाण लिखकर द्विरेफ गाके जगको जगा रहे, भेजना चाहिए । वे बड़ी खुशीसे प्रकाशित . सुकर्ममें हैं सबको लगा रहे । न चूकिए पुत्र ! परार्थके लिए कर दिये जायेंगे। स्वबन्धुओंको उठिए उठाइए। For Personal & Private Use Only Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ છ૭૮ HATIHARMA जनहितैषी समHITRITI . . (१३) दिखा रहा है शिशु सूर्यधामको, स्वगेहहीमें नर जो न तुष्ट हो, . मिटा रहा है तम-शत्रु नामको । कभी विधाता उससे न रुष्ट हो। विलोलता है जगमें बड़ी कड़ी, पड़े हुए हो किसके विचारमें ? चली गई पुत्र ! विरामकी घड़ी ॥ उठो, लगो पुत्र ! परोपकारमें ॥ (१४) स्व-वंशका ज्ञान जिसे बना रहे. अभिन्न है प्राक्तन कर्म भाग्यसे, भला कभी क्यों वहादुःखको सहे। छिपी नहीं है यह बात प्राज्ञसे । न भूल जाना तुम आर्यवंश हो, स्वदेश-सेवाव्रतसे न नहीं भगो, जगो दुलारे ! जगदीश-अंश हो उठो उठो पुत्र ! सुकर्ममें लगो ॥ (१०) (१५) मिली हुई भी उसकी न है रमा, चलागया जो क्षण आपका अभी, जिसे प्रिया है रिपुके लिए क्षमा,। नहीं मिलेगा वह स्वप्नमें कभी । शशी इसीसे सब भाँति हीन है, स्वधर्मके ऊपर ध्यान दीजिए, सुखाप्ति बेटा ! बलके अधीन है ॥ विनिद्र हो पुत्र ! न देर कीजए । (१६) मनुष्य जो व्यर्थ प्रमाद-लिप्त है, नरेश होवे अथवा सुरेश हो,. . स्ववृद्धिहीमें अथवा सुतृप्त है। निरुद्यमी जो धन-आकरेश हो। कभी गिरेगा वह सोमसा सही, निपात होगा उसका अवश्य ही, सुनो, उठो पुत्र ! विधेय है यही ॥ उठो उठो आँख खुली अभी नहीं ॥ (१२) (१७) विवेकसे विक्रमसे विहीन हो, प्रभावशाली कुलके मराल हो, ___ अधर्मके आलसके अधीन हो । स्ववंश-कल्पद्रुप-आलवाल हो। विनष्ट जो हैं उनसे न बोलिए, करो जरा पुत्र ! स्ववंश नामको, सुना न? हे पुत्र | दृगाब्ज खोलिए। उठो सँभालो निजकाम धामको ॥ (१८) जिसे सिखाते तुम थे, तुम्हें वही सिखा रही है, पर होश है नहीं। , उठो दिखा दो निज तेज तो सही, सुकार्यका पुत्र ! मुहूर्त है यही ॥ For Personal & Private Use Only Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ COLLLLLLLLLLLLLLLLLLLLLLLLLLL सार्वजनिक धनकी जिम्मेवारी। स्वं दातुं सुमहच्छक्यं दुःखमन्यस्य पालनम्। चन्दोंकी रक्षाके लिए और उनका दुरुपयोग दानं वा पालनं वेति दानाच्छ्रेयोऽनुपालनम् ॥+ न होने पावे इसके लिए बड़े बड़े कड़े कानूमनुष्य, जिन बातोंसे उसका केवल नि- . - न बना रक्खे हैं; परन्तु उनका उपयोग जका ही सम्बन्ध है उनमें चाहे जितना बहुत ही कम होनेपाता है, इस लिए लोग प्रमाद आलस्य आदि कर सकता है और . अपने इस उतरदायित्त्वको समझनेकी परवा उसके लिए उसको क्षमा भी मिल सकती , है; पर पराये कामोंके लिए-उन कामोंके " भी बहुत ही कम करते हैं। पर अब इस उत्तरदायित्वके महत्त्वको लिए जिनसे कि दूसरोंका- सर्वसाधारणका , समझ लेनेकी बहुत बड़ी आवश्यकता है। सम्बन्ध है-वह इतना स्वतन्त्र नहीं है। सार्वजनिक संस्थायें खोलनेकी ओर हमारी सार्वजनिक बातोंमें उसका जरासा भी प्रमाद प्रवृत्ति दिन पर दिन बढ़ती जाती है और अक्षम्य है । ऐसे काम उसे बड़ी सावधानीसे हमारी उन्नतिके-प्रगतिके-लिए इस प्रवृकरना चाहिए। ... त्तिका बढ़ना है भी बहुत आवश्यक; परन्तु आज हम और और सार्वजनिक कामोंको " यह बढ़ना तभी टिक सकता है, जब संस्थाछोडकर केवल सार्वजनिक द्रव्यके या पब्लि ओंके चलानेवाले अपनी पब्लिकके चन्देकी कके चन्देके सम्बन्धमें कुछ कहना चाहते - जिम्मेवारीको अच्छी तरह समझकर काम हैं । हम देखते हैं कि आजकल सार्वजनिक करें। यदि ऐसा न होगा, लोग अपनी कामोंके लिए-विद्यालय, आश्रम, पुस्तकालय, जिम्मेवारियोंको न समझेंगे तो लोगोंको आव. औषधालय, अनाथालय, मन्दिर, तीर्थ, . १. ताप, श्वास हो जायगा और तब लोग प्रयत्न करने पुस्तकप्रकाश, आदि सर्वोपयोगी कामोंके लिए • पर भी आवश्यकता समझनेपर भी-चन्दा जगह जगह चन्दा होता है, पर बहुत कम देनेको हाथ न बढायेंगे। चन्दा करनेवाले ऐसे हैं जो इस चन्देके धनकी धनं वै प्राणाः । ' विचारशीलोंने धनको बड़ी भारी जिम्मेवारीको या उत्तरदायित्वको एक प्राण बतलाया है । संस्थाओंके चलानेसमझते हों। यद्यपि गवर्नमेंटने सार्वजनिक वालोंको जानना चाहिए कि आप लोगोंके __ + धन देना बहुत ही कठिन काम है और दूसरेके हाथमें जब लोग अपने प्राणतल्य धनको दिये हुएका पालन करना उससे भी कठिन है। दान देते हैं, तब वे अपने उन प्राणोंकी भली करना और दूसरेके दिये हुएकी रक्षा करना, इनमें दानकी अपेक्षा रक्षा करना अधिक पुण्यका कार्य है। भाँति रक्षा होनेकी भी आपसे आशा रखते For Personal & Private Use Only Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८० जनहितैषी - हैं। आपको केवल वे ही लोग चन्दा नहीं देते हैं जिनके यहाँ लाखों और करोड़ोंका धन है; किन्तु वे भी देते हैं जो साधारण स्थि FRIEठनाईसे अपना निर्वाह करते हैं। उनके एक रुपये और एक आनेका भी बहुत बड़ा मूल्य है - प्राणोंसे वह सचमुच ही कम नहीं है । अतः उनके उस धनकी रक्षा प्राणोंकी रक्षा ही समान बहुत सावधानी से करना चाहिए । इसमें जरासा · भी प्रमाद करना मानों प्राणघात करना है । अपने--स्वोपार्जित या अपने बापदादोंके - धनको खर्च करनेमें आप जिस तरह स्वतंत्र हैं, उस तरह सार्वजनिक धनको खर्च कर नेमें नहीं; इस धनकी जिम्मेवारी बहुत बड़ी है । उस धनके मालिक आप स्वयं हैं; परन्तु इस सार्वजनिक धनके, जिन्होंने वह धन दिया है वे, और जिनके लाभके लिए वह दिया गया है वे भी, मालिक हैं । अतः इसका खर्च आप केवल इच्छामात्रसे नहीं, किन्तु सबकी रायका और सबके लाभका खयाल रखकर कर सकते हैं। यदि आप ऐसा नहीं करते तो अन्याय करते हैं और लोगोंको सार्वजनिक कार्यों में धन न देनेके लिए मानों परोक्षरूपसे उपदेश देते हैं । आपकी इच्छा ही यदि सर्व प्रधान हो जायगी, तो लोग अपना कष्टलब्ध धन आप जैसे लोगों के हाथमें क्यों देंगे ? 1 देवदव्यके भोगनेमें पाप क्यों बतलाया गया है ? ' देवस्वं तु विषं घोरं न विषं विष मुच्यते ' आदि वाक्योंमें देवधनको विषसे बढ़कर क्यों बतलाया है ? पण्डितजन इसका चाहे जो कारण बतलावें, वे अदत्तादान आदिकी सूक्ष्म कल्पना करके इसकी तलीमें भले ही चोरी के पापको टटोलें; परन्तु हमारी मोटी समझके अनुसार तो इसके मूलमें यही सार्वजनिक धनकी जिम्मेवारीका महत्त्व छुपा हुआ है । जो धन एक मन्दिरको इसलिए अर्पण किया गया है कि उससे हजारों अन्यजन अपनी भक्तिभावनाको चरितार्थ करके पुण्य उपार्जन करें, उसे यदि कोई हजम कर जाय, तो कहना होगा कि उसने सर्व साधारण के एक पुण्यद्वारको बन्द कर दिया और सबके हितका घात करना यह चोरीकी अपेक्षा भी बहुत बड़ा पाप है । मन्दिर के ही समान विद्यालय, पुस्तकालय, तीर्थक्षेत्र आदि संस्थाओंका भी धन है, अर्थात् यह भी एक प्रकारका देवद्रव्य है । सेवाधर्ममें जनता भी एक देव है, अतएव इस दृष्टिसे भी उसकी सेवाके धनको देवधन कह सकते हैं । उसके धनके हरणमें और दुरुपयोग आदिके करनेमें पाप अवश्य है और वह बहुत बड़ा पाप है । जिन लोगोंको सार्वजनिक धनके व्यय करनेका अधिकार दिया गया है, उनका कर्तव्य केवल यही नहीं है कि वर्षभरमें एक बार आमदनी और खर्चका हिसाब प्रकाशित कर दिया और छुट्टी पा ली । ( यद्यपि बहुत लोग यह भी समय पर नहीं करते हैं, और कोई तो करते ही नहीं हैं ।) उनका यह भी कर्तव्य है कि वे जो कुछ खर्च करें, वह ऐसी किफायतशारीसे करें कि उससे कम For Personal & Private Use Only Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SAMIALAMMAAMILLIAMRATANIMAITHALALAIHARMARATRAIIMIMAR '... सार्वजनिक धनकी जिम्मेवारी। पस मPITRNITTITIHTTRIVRITTENTITIRITE ૪૮૭ खर्चमें किसी तरह काम हो ही नहीं सकता सार्वजनिक संस्थाओं के संचालक हमारे हो । मितव्ययता या किफायतशारीके समाजमें दो प्रकारके हैं-एक तो वे जो सूत्रोंकी ओर उसका पूरा पूरा ध्यान होना सर्वसम्मतिसे नियत किये गये हैं और चाहिए । पर हम अपनी वर्तमान संस्था- थोड़ा बहुत स्वार्थत्याग करके इन कार्योंको ओंमें ऐसा बहुत ही कम देखते हैं। कहीं करते हैं और दसरे वे जिन्होंने स्वयं बड़ी कहीं तो अंधाधुंध खर्च किया जाता है। बड़ी रकमें देकर संस्थाओंको स्थापित किया दो तीन वर्ष पहले काशीस्याद्वादपाठशालाका है। हमारी समझमें इन दोनोंको ही एकसा वार्षिकोत्सव किया गया था जिसमें उसके मितव्ययी होना चाहिए । लखपती और करोशौकीन संचालकोंने सिर्फ १०० रुपयोंकी डपती सेठ अपने निजके कामोंमें चाहे जितने स्वीकारता होनेपर भी ढाई तीन हजार रुपये अमितव्ययी या फिजूलखर्च हों,उससे सर्व साधाकेवल ऊपरी ठाटवाटमें ही स्वाहा कर दिये रणका कोई विशेष सम्बन्ध नहीं; पर उनकी थे । एक और संस्थाके संचालकने अपने स्थापित की हुई संस्थाओंमें यदि उनके द्वारा पढ़नेके लिए एक अध्यापकको रख छोड़ा था फिजूल खर्च होगा, तो वह अन्याय होगा । जिसे ६०) रुपया मासिक वेतन दिया जाता क्योंकि वास्तवमें उस संस्था पर उनका उतना था और वे यह लगभग ७००-८०० रुपया ही अधिकार है जितना और सबका है; सालका भारी बोझा कई वर्षतक संस्थाके ही सिर- क्योंकि वह सबकी चीज बना दी गई है। पर डाले रहे थे। अभी थोडे ही दिन पहले हमने यह बात दूसरी है कि उनसे कोई कुछ एक ऐसी संस्थाकी रिपोर्ट देखी थी जिसकी कह न सके; पर न कह सकनेसे उनका आर्थिक स्थिति बहुत ही मामूली है,पर उसकी अन्याय न्याय नहीं कहा जायगा । कई फार्मोंकी रिपोर्ट कीमती आर्ट पेपर पर दानवीर सेठ हुकमचन्दजीकी इन्दौरकी छपी हुई थी ! वास्तवमें कामकी ओर अधिक संस्थाओंकी इमारतोंको देखकर यह खयाल ध्यान दिया जाना चाहिए, नामकी या दिखा- आये बिना नहीं रहता कि यदि सेठजीको सार्ववटकी ओर कम, पर हमारे यहाँ दिखाऊपन जनिक द्रव्यके उतरदायित्वका खयाल होता, दिन पर दिन बढ़ता जाता है। यह हम यदि वे इस कार्य मितव्ययतासे काम लेते, मानते हैं कि कभी कभी लोगोंका चित्त तो उनकी संस्थाओंसे जितने लोगोंको लाभ आकर्षित करनेके लिए मितव्ययताके सूत्रोंकी पहुंच रहा है उससे दूने लोगोंको पहुँचता । पूरी पूरी पालना नहीं हो सकती है। परन्तु अवश्य ही इमारतें इतनी शानदार न बनतीं यह निश्चित है कि यदि पूरी पूरी पालना की और दूरसे देखनेवालों पर सेठजीके दानका जायगी तो उसकी ओर लोगोंका चित्त और इतना अधिक प्रभाव न पड़ता; परन्तु काम भी अधिक आकर्षित होगा। निस्सन्देह अधिक होता। पर अभी कामकी For Personal & Private Use Only Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८२ जैनहितैषी - तरफ लक्ष्य ही कहाँ है ? यदि कामकी तरफ लक्ष्य होता तो उदासीनोंके - विरक्त लोगोंके रहने के लिए - तक्कूगंज १० - १२ हजार रुपयों की पक्की इमारत न बनवाई जाती, मामूली झोंपड़ियोंसे ही आश्रमका काम निकाल लिया जाता । अवैतनिक संस्थाओंके । दूसरे प्रकारके संचालकोंमें भी बहुत कम लोग ऐसे हैं जो अपने उत्तरदायित्वको समझते हों। उनमें भी जो आनरेरी काम करनेवाले हैं वे तो सर्वशक्तिमान् विधाता ही बन जाते हैं उन्हें इस बातका ख़याल ही नहीं रहता कि स्वार्थत्यागीका महत्त्व ‘ स्वामी ' बननेमें नहीं किन्तु ' सेवक' बननेमें है । यदि तुम स्वामी बन गये, तो तुमने अपने स्वार्थत्यागका बदला पा लिया - वेतन वसूल कर लिया - इससे अधिक और क्या चाहते हो ? वास्तवमें तुम्हारी शोभा इसी में है कि अपने मान सम्मानकी अपेक्षा संस्थाके लाभ हानिकी और अधिक ध्यान रखो और सर्व सम्मतिके बिना कोई भी काम मत करो। हम ऐसे कई आनरेरी कार्यकर्ताओंको जानते हैं कि यदि संस्थायें उनके बदले वैतनिक कर्मचारी रखकर काम चलातीं, तो उनके वेतन देकर भी वे अधिक लाभमें रहतीं - उनके अन्धाधुन्ध खर्चों से बची रहतीं । जैनसमाज बहुत अज्ञान है । उसमें ऐसे ही दानी अधिक हैं जो ' दे देने' में ही पुण्य समझते हैं । इस ओर उनका बहुत ही कम ध्यान जाता है कि हम जो देते हैं, उसका सदुपयोग भी होता है या नहीं । सार्वजनिक संस्थाओंके संचालकोंकी शिथिलताका यह भी एक बड़ा भारी कारण है । उनके ऊपर जनताका या लोकमतका उतना अंकुश नहीं रहता जितना कि रहना चाहिए । यदि जनता अपने धनके सदुपयोगका भी खयाल रखने लगे, जहाँ सदुपयोग न होता हो, वहाँ एक पाई भी न देवे तो बहुतसी संस्थायें सुधर जायँ, उनकी अन्धाधुन्धी आपसे आप कम हो जाय। ऐसे अनेक तीर्थक्षेत्र हैं जहाँ के द्रव्यका कुछ पता नहीं है कि कहाँ गया और कहाँ जाता है, तो भी दाता लोग दिये ही जाते हैं - उन्हें अपने पुण्यसम्पा• दनमें शंका ही नहीं होती । लोकमत का प्रभाव कम रहने से संस्थाओं के संचालक मस्त सोया करते हैं। उन्हें अपनी जि म्मेवारीका खयाल आवे ही क्यों, जब कोई पूछनेवाला ही नहीं है ? स्वर्गीय बाबू देवकुमारजीका सिद्धान्तभवन सार्वजनिक संस्था है । उसके लिए वे जो कुछ दे गये हैं वह सार्वजनिक धन हो गया है और लोगोंने उसमें जो थोड़ा बहुत धन दिया है वह भी सार्वजनिक है । परंतु आज ६ - ७ वर्षसे न तो उसकी कोई रिपोर्ट ही निकलती है और न कोई काम ही होता है । जैनसिद्धांत भास्कर निकलता था सो वह भी बन्द होगया । लोगों को यह भी मालूम नहीं हुआ कि भास्करमें जो लगभग दो ढाई हजार रुपयाका घाटा रहा है, वह भवन से I For Personal & Private Use Only Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ CHARIBABAMARImammommam सार्वजनिक धनकी जिम्मेवारी सार्वजनिक धनकी जिम्मेवारी ४८३ दिया गया है या सम्पादक महाशयने अपनी लाल पीले हो जाते हैं । वे यह नहीं समझते गाँठसे लगाया है। वंगीय सार्वधर्मपरिषत्- कि यह सेवाधर्म-समाज या धर्मकी सेवा का काम बन्द हुए कई वर्ष हो गये, पर करना-कितना कठिन व्रत है। इसका पालन उसके मंत्री कुमार देवेन्द्रप्रसादजीने अब तक वही कर सकता है जो अपने मान अपमानको. भी उसका हिसाब प्रकाशित नहीं किया। भी समाजको लिए उत्सर्ग कर देता है । अभी कितने रुपये एकटे हुए थे और कितने खर्च जातिप्रबोधकमें बाबू दयाचन्दनीने तीर्थक्षेत्र किये गये, कुछ पता नहीं । सुनते हैं, सेठ कमेटीके सबन्धमें एक नोट लिखा था कि नाथारंगजीने अपनी सहायताके रुपयोंके "तीर्थक्षेत्रकमेटीमें इस समय ५००-६०० विषयमें बहुत कुछ लिखा पढी की, पर रुपया रोज खर्च हो रहा है, उसकी बाकाफल कुछ भी नहीं हुआ । तीर्थक्षेत्र- यदा रिपोर्ट प्रकाशित की जानी चाहिए। जिस कमेटीके महामंत्री लाला प्रभुदयालजीने बाहु- तरह जैनमित्रके हर एक अंकमें दाताओंके बलि स्वामीकी तस्वीरोंका बेचना बन्द कर दानकी रकमें छपती हैं, उसी तरह खर्चकी दिया जाय, इसके लिए दो तीन वर्ष पहले रकमें भी छपनी चाहिए । हिसाब नहीं जैनमित्रमें ‘ भयंकर' आन्दोलन उठाया था छपनेसे यदि हम यह कहें कि रुपयेका और सनते हैं कि लगमग ८००-९०० दुरुयोग किया जा रहा है तो कुछ अनुचित रुपयेका चन्दा एकट्ठा किया था; परंतु उसका नहीं होगा । हम पिछले अंकमें चेता चके भी हिसाब अब तक प्रकाशित न किया गया। हैं और इस बार भी कमेटीको सूचित करते लोगोंको यह भी मालूम न हुआ कि जब हैं कि यदि वह हिसाब प्रकाशित न करे, कोई मुकद्दमा वगैरह नहीं चलाया गया, तब तो जातिसे रुपया माँगना छोड़ दे । भोले केवल पत्रव्यवहारमें या नोटिसबाजी में ही भाले भाइयोंको धोखेमें रखना और उन्हें इतना रुपया कैसे खर्च हो गया । इस तरहके क्या हो रहा है, इसकी कुछ भी सूचना और भी अनेक उदाहरण दिये जा सकते न देना, धर्मकी आडमें भारी अन्याय करना हैं; जिनसे मालूम होता है कि सार्वजनिक है। यदि इस पर भी कुछ ध्यान न दिया या लोकमतके प्रभावके विना संचालकगण गया तो अगले अंकमें हम इस बातका सुस्त हो जाते हैं और वे अपना उत्तरदायि- आन्दोलन करेंगे कि एक पैसा भी कोई भाई त्व भूल जाते हैं। न दे।" इस नोटको पढकर तीर्थक्षेत्रकमेटीके ___ कोई कोई संचालक लोकमतकी पर- महामंत्री लाला प्रभुदयालजीका मिजाज गर्म हो वा ही नहीं करते हैं। यदि कोई उनसे गया। इसके उत्तरमें उन्होंने जो कुछ लिखा हिसाब किताब या ऐसा ही कोई बात पूछता था अच्छा होता यदि वह उसी रूपमें प्रकाशित है, तो वे अपना अपमान समझते हैं और हो जाता, लोग समझ लेते कि ये सार्वजनिक For Personal & Private Use Only Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८४ HINABRAHAL जैनहितैषीNIRTREAml काम करनेवाले महात्मा जनताके अधिकारोंपर समझते कि हमारे दिये हुए रुपयोंका सदु. किस तरह निष्ठुर आक्रमण करते हैं; परन्तु पयोग हो रहा है या दुरुपयोग, वे अभीतक ब्रह्मचारीजीकी कृपासे वह न छपा और उसके · भोले' कहे जाते थे, पर अब लालाजीकी बदलेमें लालाजीको आसोज सुदी २ के व्याख्याके अनुसार 'सभ्य' कहे जायेंगे ! नैनमित्रमें छपी हुई कुछ थोडीसी ठंडी यदि लोग इस नई कल्पनाकी हुई सभ्यताके पंक्तियोंसे ही संतोष करना पड़ा । पर उनमें लोभसे सार्वजनिक कार्यकर्ताओंके एकहत्थी भी आपकी गर्मीकी झलक आ ही गई है। शासनको और भी उच्छृखल कर दें, तो आपने लिखा है "....उन्होंने अपनी योग्य- अच्छा है; लालाजीकी आत्माको अवश्य तानुसार जो चाहे भला बुरा लिखा है ।.... ही इससे सन्तोष होगा। लेखमें इतनी असभ्यताका वाव एक बी. ए. यह बात सच है कि इस समय- मुकमहाशयके द्वारा होना और चलते मुकद्दमे में हमेंके खर्चके लिए चन्देकी आवश्यकताके समाजका अपने धर्मकी रक्षाके लिए तत्पर समय- जातिप्रबोधकके उक्त नोटसे हानि रह उपाय न करने और द्रव्य सहायता न पहुँच सकती है, लोगोंको भ्रम हो सकता है करनेको झूठी बातों द्वारा भड़काना उनको कि हमारे रुपयेका सदुपयोग नहीं हो रहा कहाँतक योग्य है, यह वे स्वयं विचार है; इसलिए वे चन्दा देनेसे इंकार कर सकते देखें।" मालूम नहीं, लालाजी — भला बुरा' हैं; परन्तु इसमें जातिप्रबोधकका तो कोई दोष किसको कहते हैं और ' असभ्यता' की परि- दिखलाई नहीं देता । उसने अपने पिछले भाषा क्या है। लालाजीकी समझमें बी. ए. अंकमें- एक महीने पहले निकले हुए जुलामहाशयकी यह धृष्टता हो सकती है, गुस्ताखी ईके अंकमें-लिखा था कि तीर्थक्षेत्रकमेटीको हो सकती है और गल्ती भी हो सकती है; जबतक मुकद्दमा चलता रहे, अपना हिसाब पर यह समझमें नहीं आया कि 'असभ्यता' प्रत्येक जैनमित्रमें प्रकाशित करते रहना कैसे हो सकती है ? यदि रुपयोंका हिसाब चाहिए । पर जब उसके लिखनेपर कुछ भी प्रकाशित करनेके लिए सूचना करना और ध्यान नहीं दिया गया, लालाजीने पब्लिकके उसके प्रकाशित न करनेपर इस बातका रुपयोंके खर्चका हिसाब प्रकाशित करना आन्दोलन करनेकी इच्छा प्रकट करना कि अपनी शानके खिलाफ समझा, तब जातिलोग तीर्थक्षेत्रकमेटीको एक पाई भी न दें, प्रबोधकको उक्त दूसरा नोट लिखना पड़ा असभ्यता है, तब तो लालाजीके हिसाबसे और उसमें सूचित करना पड़ा कि यदि सभ्यताकी व्याख्या बहुत ही विलक्षण होगी। हिसाब प्रकाशित न होगा तो हम चन्दा जो लोग आँख बन्द करके रुपया देते जाते देनेके विरुद्ध आन्दोलन करेंगे । हमारी समझमें हैं और यह जाननेकी आवश्यकता नहीं नहीं आता कि इसमें बाबू दयाचन्दजीने For Personal & Private Use Only Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ mamIIMILAMILLIDITORIMARY सार्वजनिक धनकी जिम्मेवारी। ४८५ क्या अन्याय किया और क्या बुराभला कहा, अनेक लोगोंके मुँहसे सुनी गई है कि खर्च जिससे वे असभ्य ठहराये गये । यदि उनके अन्धाधुन्ध हो रहा है। ऐसी दशामें बाबू लेखका परिणाम लालाजीके मुकद्दमेके या दयाचन्दनीने यदि एक नोट सचेत करनेके चन्देके लिए बुरा होताथा, तो उन्हें शीघ्र ही लिए लिख दिया तो कोई अन्याय नहीं हिसाव प्रकाशित करनेकी व्यवस्था करनी थी। किया। जनसाधारणके स्वत्वोंकी रक्षाके लिए अथवा यह प्रकट करना था कि इस कारणसे प्रत्येक व्यक्तिको इस तरह लिखनेका अधिहिसाब प्रकाशित नहीं हो सकता है । सो कार है । तीर्थक्षेत्रकमेटीके संचालक यदि न करके एक जातिकी सेवा करनेवालेको लोगोंकी ऐसी सूचनाओंका आदर नहीं करते असभ्य बतलाना, साफ बतला रहा है कि हैं, उलटा उन्हें झिड़कते हैं, तो वे अन्याय लालाजी अपने उत्तरदायित्वको नहीं समझते करते हैं और सार्वजनिक संस्थाओंके महत्त्वहैं। उन्हें यह खयाल ही नहीं है कि हम को गिराते हैं। जैनसमाज सेवक हैं, न कि स्वेच्छाचारी संस्थाओंका धन केवल किफायतशारीसे स्वामी । ही खर्च न किया जाना चाहिए, किन्तु ईमानशिखरजीका यह मुकद्दमा कोई७-८महीनेसे चल रहा है। इसमें लगभग ७०-८० हजार दारी भी उसके साथ रहनी चाहिए । एक रुपये खर्च हए बतलाये जाते हैं । ऐसी तो लोगोंसे जो धन जिस कामके लिए अवस्थामें कमेटीपर समाजका चाहे जितना लिया जाय, वह उसी काममें खर्च किया अधिक विश्वास हो, कमेटीका क्या यह कर्तव्य जाना चाहिए। यदि कभी दूसरे काममें खर्च नहीं है कि वह स्वयं अपने उक्त विश्वास- करनेकी आवश्यकता आन पड़े, तो दाताको स्थिर रखने के लिए जनसाधारणके सम्मुख ओंसे उस काममें खर्च करनेकी अनुमति ले नियमित रूपसे हिसाब प्रकाशित करती जाय ? लेनी चाहिए। दूसरे केवल इस प्रकारके समाधायह कोई ऐसा काम नहीं था जो समय पर - तयार न हो सके। यदि यह कहा जाय। नसे कि 'हम स्वयं तो नहीं खा जाते हैं ' कि बहुतसे खर्च ऐसे किये जाते हैं कि जिन- किसी कामका खर्च छुपाकर किसी दसरे के प्रकाशित होनेसे मुकद्दमा बिगड सकता मदमें डाल देना या और किसी प्रकारसे है, या प्रतिपक्षियोंको लाभ पहुँच सकता है, बतला देना भी ठीक नहीं हैं । गरज यह तो कमसे कम इतना तो हो सकता था कि कि सार्वजनिक धनका उपयोग पूरी सत्यता कमेटीके मेम्बरोंके पास ही साप्ताहिक या मा- और मितव्ययताके साथ होना चाहिए। सिक हिसाब भेजा जाता, पर सुनते हैं कि जैनसिद्धान्तप्रकाशिनी संस्थाके समान ऐसा भी नहीं होता। कमेटीके सारे मेम्बरोंको एक दो संस्थायें ऐसी भी चल रही हैं यह भी मालूम नहीं है कि क्या खर्च हो रहा जिनमें सर्व साधारणका कुछ भी हाथ नहीं है। है और किस तरह हो रहा है। यह शिकायत जो महाशय उन्हें चला रहे हैं, उनकी ९-१० For Personal & Private Use Only Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ACTAITHILAAMAC HALILAILAENIOR जैनहितैषी। ४८६ जनहितेषी इच्छा ही उनके संचालनमें सब कुछ है। Rose Program Forssss sking यद्यपि उनकी सत्यनिष्ठा और निस्वार्थतामें बाल-विवाह। हमें कुछ भी सन्देह नहीं है, तो भी हम यह आवश्यक समझते हैं कि वे अपने उत्त. [ले०,श्रीयुत ठाकुर शिवनन्दनसिंह बी. ए.।] रदायित्वके महत्त्वको समझें और उसे उदारतापूर्वक अनेक लोगोंमें वाँट दें, अर्थात् दश १ पशु-जगतमें कोई पशु, बिना सर्वांग पुष्ट हुए बच्चा नहीं देता । मनुष्यबीस उत्साहियोंकी एक कमेटी स्थापित करके उसकी सम्मतिसे काम करें । ऐसा करनेसे जगतमें अंगोंकी पुष्टिके लिए २५ वर्षसे संस्थाओं पर लोगोंका विश्वास बढ़ेगा और अधिक समय चाहिए। अतएव इस अव " स्थाके पूर्व ही गर्भाधान करना पशुओंसे भी काम भी सुव्यवस्थित पद्धतिसे चलेगा। हीन कार्य करना है । ऐसा करना न केवल आशा है कि हमारे समाजके संस्था-संचा- निन्दनीय है बल्कि अति हानिकारक भी है। लक सज्जन हमारे इस लेखपर ध्यान देंगे और २ तरुणता ( जवानी ) के प्रथम चिह्नोंसे अपने उत्तरदायित्वको समझकर संस्थाओंकी यह नहीं कहा जा सकता कि अब वे विषय उन्नति करनेमें दत्तचित्त होंगे।९-१०-१६. आदिके योग्य हो गये । बच्चेको दूधका दाँत निकल आने पर यह नहीं समझा जाता दूसरोंको आलोचनाओं, दूसरोंके मतों ओर दूसरोंक कि वह ईख घुस सकता है । विचारोंपर आधार रखनेवाले मनुष्योंको कभी कोई लाभ नहीं होता। एनिंग साहिब एक जगह लिखते हैं-"जो मनुष्य यह सोचकर कि लोग मेरी आलोचना करेंगे- उन अपनी आन्तरिक उच्च भावनाओं को दवा देता है और दूपरे मनुष्यों के साथ हिलमिल कर रहने का योग्यायो : बच्चोंके मुहँ पर उनके विवाहकी बातें करना ग्यके विचार विना प्रयत्न करता है; उसकी बुद्धि भ्रट हो जाती है और चरित्र हल्का-नीच-हो जाता है।" जिससे उनको यह ख्याल पैदा हो जाय कि + + + + वे सयाने हो गये, या ऐसी ही बातोंसे, मैं अमुक पक्षके अन्दर पैदा हुआ हूँ यह सोचकर बच्चोंका विवाह कर देनेसे और उनका अथवा मेरे माता, पिता, भाई, बन्धु अमुक मतके हैं आपसमें मेल जोल होनेसे, या साथके यह सोचकर जो किसी मतविशेषका पक्षपाती बन जाता है, वह कभी न्यायशील नहीं हो सकता। इसीलिए सोनेसे, बच्चे, समयके पहले ही सयाने हो राजकीय और धार्मिक झगड़े होते हैं, इसीलिए मीलोंके जाते हैं और उन्हें शारीरिक हानि मालिक, हुनरों और उद्योगोंके संस्थापक, राजकर्मचारी पहुँचती है। और धार्मिक नेता अपने ही हितके लिए-अपनी ही ___४ अल्पायुका गर्भ माता पिता और स्वयं सत्ता बढ़ानेके लिए-लोगोंके हकोंको-स्वत्वोंको-मिट्टी में मिलानेका प्रयत्न करते हैं। दाइन। उस पेटकी सन्तान तीनोंके लिए अत्यन्त For Personal & Private Use Only Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ CHAMATLAamMILAMAmaimum बाल-विवाह। ४८७ हानिकारक होता है। अक्सर ऐसी अव- ६ बालमाताओंको असह्य कष्ट होते हैं। स्थाका गर्भ नष्ट हो जाता है। बालगर्भधा- जैसे हमल गिर जाता है और उनकी रिणीको बच्चोंके जन्म समय अत्यन्त कष्ट आत्माको दुःख पहुँचता है । मरा हुआ बच्चा होता है और बहधा उसकी मृत्य हो जाती पैदा होता है, इससे भी उनको कष्ट उठाना है । यदि इस कठोर कष्टसे प्राण न निकला, पड़ता है । जिन्दा पैदा होकर तुरन्त मर तो बच्चा कोमल अंग चूसचस कर उन्हें जाता है और मरना बिना तकलीफके नहीं इतना निर्बल कर देता है और दसरी या होता । बच्चा इतना कमजोर पैदा होता है तीसरी बार तक उनका शरीर ऐसा निर्बल कि दूध नहीं पी सकता । बच्चा कुछ दिनोंहो जाता है कि वे जीवनपर्यंत आरोग्य नहीं तक जिन्दा रहता है, पर उसका शरीर रह पातीं, बल्कि प्रसूतक्षय या और किसी क्षीण होता रहता है और जल्द ही मर असाध्य रोग द्वारा उनका अन्त अवश्य जाता है । बच्चा सब आपत्तियोंसे बचकर ही हो जाता है। बड़ा होकर निर्बल स्त्री या पुरुष होता है ___ + ५ पच्चीस बाल-गर्भवती स्त्रियोंकी। है और जिन्दगी भर कष्ट भोगता रहता है। जाँच की गई जिससे मालूम हुआ कि ५ लड़ , गत मनुष्यगणनाकी रिपोर्टसे ज्ञात होता कियोंका गर्भ गिर गया, ३ बच्चा जननेके - है कि बाल्यावस्थाका गर्भ अक्सर गिर जाता वक्त मर गई, ५ को जननेके समय अत्यन्त ह है। पहले दो तीन बच्चे जो बालमाताओंसे कष्ट हुआ और उनके पेटसे बच्चे औजारोंके उत्पन्न होते हैं अक्सर मर जाते हैं और जरिये निकाले गये, ५ को प्रसतका रोग ऐसे बच्चे कमजोर, नाटे, दुर्बल, आयपर्यन्त हो गया, २ बच्चा पैदा होनेके कारण अत्यंत रोगी और अल्पायु होते हैं । एक हजार निर्बल होकर मर गई, ३ दूसरी बार बच्चा बच्चामा २२३ 6 बच्चोंमेंसे ३३३ बच्चे एक वर्षकी आयुमें मर जनते समय मर गई और २ तीसरी बार जात जाते हैं, अर्थात् हर तीन बच्चों से एक बच्चा वच्चा जनते समय मर गई । अत्यन्त कष्ट मर जाता है। उठाकर जो मरनेसे बच गई, उनमेंसे १२ भारतके नवयुवक, प्रायः सभी पेशाब, की तन्दुरुस्ती जन्म भरके लिए बिगड गई। पेचिश या बुखारके रोगसे दुखी रहते हैं। अर्थात् कुल २५ मेंसे १० तो मर गई यहाँ पेशाबकी बीमारियोंसे सारी दुनियाँसे और १२ जन्मरोगिणी हो गई; केवल ३ अधिक लोग मरते हैं-फी सैकड़ा १५ लडकियाँ अच्छी रहीं। नवयुवक इस रोगके ग्रास बनते हैं । + Dr. D. C. Shome, Medical congress, किया है कि भारतवासियोंकी तन्दुरुस्ती भारतके प्रधान प्रधान डाक्टरोंने निश्चय Calcutta, For Personal & Private Use Only Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८८ SAILIBRAHAMITRALIAMWAITINAR जैनहितैषी ३०-४० वर्षमें खराब होजाती है । इसका यद्यपि भारतललनाओंको हमने विद्या और कारण यह है कि लड़कपनकी शादीसे उनका विज्ञानसे वञ्चित रक्खा है तो भी परमाशरीर क्षीण हो जाता है और फिर जल्द ही त्माकी दयासे, अन्य राष्ट्रकी स्त्रियोंके सम्मुख बालबच्चोंकी चिन्ताका बोझ उनपर आपड़ता उनका सिर ऊँचा ही है-सुशीलता, सुन्दरता है। इससे उनको अत्यन्त मानसिक कष्ट पवित्रता, नम्रता, पातिव्रत और स्वार्थत्याउठाना पड़ता है और उसका नतीजा यह गमें ये अब भी बाजी मारे हैं । शिक्षाप्ते होता है कि उनका स्वास्थ्य खराब हो वञ्चित रक्खे जाने पर भी ऐसे पवित्र विचार! जाता है। गुलामीमें जकड़ी रहने पर भी ऐसा उत्तम जो विद्यार्थी हैं उनको स्कल या काले- ऐसा उच्च स्वभाव ! बाल-माता बनाई. जाने नके भारके ऊपर बालबच्चोंका कठिन भार भी पर भी ऐसा सुन्दर और मनोहर शरीर ! उठाना पड़ता है। इस दोहरे बोझको सँभा- बालविवाहकी कुप्रथा नवीन भारतके लिए लना उनके लिए अत्यन्त कठिन हो जाता अत्यन्त लज्जास्पद है, इसको निर्मूल करना है और उनकी तन्दुरुस्ती बिगड़ जाती है।+ भारतसन्तानका प्रथम और महान् कर्तव्य है। सारांश यह कि बाल-विवाहसे भारत गारत बालविवाहका कारण भारतकी उष्णता नहीं है। हुआ जाता है। यदि अब भी हम सावधान हमारे नये धर्म-शास्त्रोंने भारतवासियोंके न हुए तो हमारी सब आशायें धूलमें मिल हृदयपर ऐसा सिक्का जमा लिया है कि जायेंगी और हमारी जातिका सर्व-नाश होने- आज बीसवीं शताब्दीके उच्च शिक्षित-अनेक वाला है, यह एक निश्चित विषय हो जायगा। एम. ए., बी. ए.-यह मान बैठे हैं कि भार तकी आबोहवामें यह तासीर है कि यहाँ + इतिहासकार टाल बाइस हीलर लिखते हैं कि : लड़कियाँ जल्द सयानी हो जाती हैं। भारत "जबतक भारतवासी छोटी छोटी बालिकाओंका विवाह छोटे छोटे बालकोंसे करते रहेंगे, तबतक उनकी सन्तान छोटे बच्चोंसे आधिक अच्छी दशामें कभी न रह सकेगी । स्वाधीनता और स्वराज्यके आन्दोलनमें वे निस्तेज और बलहीन हो जायेंगे। राजकीय उन्नतिका उपयोग करनेके लिए वे किसी भी प्रकारकी शिक्षासे समर्थ नहीं हो सकेंगे। इसमें सन्देह है कि यदि सारे भारतमें नहीं तो बङ्गालनहीं कि शिक्षाके प्रभावसे उनकी बुद्धिमें गम्भीरता आ जायगी और वे किसी गम्भीर तथा प्रौढ दस बरसकी लडकियोंको विवाहके लिए मनष्यके समान बातें करने लगेंगे; परंतु सब कुछ होते हुए भी उनका आचरण असहाय बालकोहीके बल्कि माता बननेके लिए योग्य बना देती समान बना रहेगा।" है । दस वर्षकी लड़कियोंको गर्भ रह गया For Personal & Private Use Only Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाल-विवाह है, उनमें से बहुतों ने ठीक समय पर सन्तान प्रसव किया है और दोनों जीते जागते रहे हैं। "9 डाक्टर चक्रवर्ती लिखते हैं कि “ मैं एक लड़कीको बाल्यावस्थाहीसे भलीभाँति जानता हूँ जिसे दस वर्षकी उमर में लड़का पैदा हुआ । डाक्टर राबर्टन कहते हैं कि “एक कारखाने में काम करनेवाली लड़की ११ वर्षकी आयु में गर्भवती पाई गई । " डाक्टर बेली लिखते हैं कि “ कलकत्ते के एक रईस - की ११ वर्ष ५ महीनेकी लड़कीको लड़का पैदा हुआ । " कई अन्य सभ्य रईसोंसे डाक्टर साहबने उसकी सच्ची अवस्था दर्यात की और सभीने उसकी आयु ११ वर्ष ९ महीने बताई । डाक्टर ग्रीन कहते हैं कि “ ढाकेमें मैंने एक लड़कीको १२ वर्षकी आयु में गर्भवती पाया; पर लड़का पैदा होते वक्त बेचारी लड़की मर गई । डाक्टर कन्हैयालाल दें कहते हैं कि “ बङ्गालमें आम तौरपर बारह वर्षकी लड़कियाँ गर्भवती पाई जाती हैं 99 99 1 * इस प्रकार एक दो नहीं, आजकल सैकड़ों हजारों बाल-मातायें भारतमें मौजूद हैं। अब देखना यह है कि भारतके उष्ण देश होनेसे—यहाँकी जलवायुकी विलक्षणतासे-यहाँ कुमारियाँ जल्द ऋतुमती होती हैं, या इसके कुछ और कारण हैं और अन्य देशों में प्रकृतिका क्या नियम है । Medical Jurisprudece for India by R. Chevers, page 673. जगत्प्रसिद्ध डाक्टर हालिक लिखते हैं “जाँच करने पर यही मालूम हुआ है कि संसाकी सब जातियों में कन्यायें लगभग एक ही उमरमें रजस्वला होती हैं । यदि आफ्रिका जैसे गर्म देशकी हबशी लड़की और यूरोप जैसे ठण्डे देशकी गोरी लड़की एक ही ढँगसे परवरिश पावें तो दोनों एक हीं साथ ऋतुमती होंगी । 27 + ४८९ यद्यपि इंग्लैण्डके मुकाबले भारतमें लड़कियाँ जल्द सयानी हो जाती हैं, पर यह सन्देहकी बात है कि भिन्न भिन्न देशों में भिन्न भिन्न समय पर लड़कियाँ सयानी हों | † 66 मिस्टर राबर्ट्स ने खूब जाँचकर निश्चय किया है कि भूमण्डल के सब देशोंमें लड़कियाँ लगभग एक ही आयुमें रजस्वला होती हैं । वे बतलाते हैं कि भारत में प्राकृतिक नियमानुसार बालिकायें रजस्वला नहीं होतीं, वे कुरीतियों और बुरे व्यवहारोंसे, जबर्दस्ती सयानी बना दी जाती हैं । वे लिखते हैं कि “ भारतकी राजनैतिक तथा सामाजिक दशा ऐसी बिगड़ी है, यहाँका कानून, यहाँके रीतिरिवाज ऐसी बुरी अवस्थामें हैं, भारतमें स्त्रियाँ ऐसी मूर्खा बना दी गई हैं, वे ऐसी सख्त गुलामीमें जकड़ी हुई हैं, यहाँकी विवाह सम्बन्धवाली धार्मिक पुस्तकें ऐसा बुरा उपदेश देती हैं कि भारतकी कन्यायें प्रकृतिनियमके विरुद्ध जल्द सयानी हो जाती हैं । + The origin of Life page 363. + Annuals of Medical Seince. For Personal & Private Use Only Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९० जैनहितैषी । यदि अमरीका या इंग्लैण्डकी यही दशा रहती तो वहाँकी लड़कियाँ भी इतनी ही जल्द सयानी होतीं । अमरीका में भी बेचारी असहाय, समाजसे गिरी हुई ११-१२ व र्षकी लड़कियाँ ( Prostitutes ) बाज बा तोमें १७-१८ वर्षकी स्त्रियोंकीसी जान पड़ती हैं। और किसी भी देशकी लड़की हो, वह यदि उसी बुरी तरह पर रक्खी जायगी तो उन गिरी हुई बाजारू लड़कियोंकी तरह बहुत जल्द सयानी हो जायगी । देहातोंके मुकाबले शहरोंमें हर देश में लड़कियाँ जल्द सयानी हो जाती हैं, क्योंकि शहरें में इन लड़कियोंके उभाड़नेके समान ज्यादा पाये जाते हैं । + arat जल्द बुलाने के लिए कोई और चीज उतना काम नहीं करती जितना कि प्रेमकी बातें करती हैं । बेहूदे किस्से और खेल, याब को यह याद दिलाते रहना कि वे अब जवान हो गये, या यह कि उनकी युवा अवस्था अब निकट है, ये सभी जवानीके आमंत्रणके समान हैं । सुप्रसिद्ध वैद्य धन्वन्तरी सुश्रुतमें बताते हैं कि भारतमें " कन्या बारह वर्षकी आयुमें रजस्वला होती है और यह रजोधर्म पचास वर्ष की आयु में अकसर बन्द हो जाता है ।" भूमण्डल के अन्य देशो में भी रजस्वला होनेका यही नियम है । अत्यन्त ठण्डे इंग्लैण्डमें भी इ + The origin of Life by F. Holick page 378. सी आयुमें लड़कियाँ रजस्वला हुआ करती हैं। वहाँ पर भी १२ से १७ वर्षमें, और कभी क भी नौ वर्षकी आयुमें ही लड़कियाँ रजस्वला हो जाती हैं और ४५ - ५० वर्ष तक हुआ करती हैं । * इंग्लैण्ड के 'चिस्टर लाइन इन' अस्पतालमें ३४० लड़कियोंकी परीक्षा ली गई, तो उनमें से १० लड़कियाँ ११ वर्षकी आयुमें, १९ बारह वर्ष की आयुमें, १३ तेरह वर्ष में ८५ चौदहमें, ९७ पन्द्रहमें और ७६ सोलह वर्ष की आयु में रजस्वला हुई । भारतमें २७ गोरी लड़कियोंकी जाँच हुई, उनमें से - ४ लड़कियाँ १२ – १३ वर्ष के बीचमें, ८ १३ – १४ के : बीचमें, ९ ५ " १४ – १५ में, १५–१६ में और, १ लड़की १६ – १७में रजस्वला हुई । गोरी लड़कियाँ इतनी जल्द रजस्वला हुई डा० हटक्लिन्स कहते हैं कि " दो कि वे ग्यारह वर्ष सात महिनेकी आयुमें मातायें बन सकती थीं । र्टसन कहते हैं कि " भारत और इंग्लैण्ड दोनों जगह नौ वर्षकी लड़कियाँ हुआ करती हैं या हो सकती हैं । 99 डा० राब रजस्वला 19 * "" 79 इन महान् पुरुषों के वाक्योंसे प्रकट होता है कि दुनियाँमें रजस्वला होने का समय प्रकृ * Medicl Jurisprudence by R. Chevers, pages 672-692. For Personal & Private Use Only Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाल-विवाह। ४९१ तिने एकसा रक्खा है। अब यह देखना सोलह वर्षकी लड़कियोंके लिए एक घर है कि क्या अन्य देशोंमे भी कभी बाल-विवा- बनना चाहिए, क्योंकि ऐसी कम उमरकी हकी चाल थी और क्या उन देशोंमें भी लड़कियोंकी दर्खास्ते उन लोगोंको हमेशा बाल-मातायें हुआ करती थी ? नामंजूर करना पड़ती थीं। * बालविवाहका रिवाज लगभग सब मारिसका विवाह आठ वषकी आयुमें देशोंमें था जबतक कि वे देश असभ्यावस्थामें हुआ और १४ वर्षके पहले ही उन्हें लड़का थे। यहाँतक कि इंग्लैण्डमें भी अट्ठारहवीं हुआ है । बरजीनियाँ नगरमें एक १३ वर्षकी शताब्दीके शुरू तक यह कुरीति जारी थी। लड़कीको बिना किसी अधिक कष्टके लड़का + फ्रांसके राजा फिलिपने इंग्लैण्डकी राज- पैदा हुआ * । इंग्लैण्डमें एक युवती स्त्री कुमारीको १२ वर्षकी छोटी आयुमें ब्याहा दस वर्षके लडकेके साथ सो रही थी। उसके था । आपकी दूसरी राजकुमारीका विवाह नौ हृदयमें पाप समाया और उसने यह सोचकर वर्षकी आयुमें हुआ। जब इंग्लैण्डके राजा कि उस लड़केके साथ विषय करनसे गर्भका रिचर्डका विवाह फ्रांसकी राजकुमारीसे हुआ भय नहीं है, भोग किया । पर उसे गर्भ उस समय राजकुमारीकी आयु कुल आठ रह गया और बड़ी जिल्लत और शर्म उठानी वर्षकी थी । * एलिजबेथ हार्डविकका विवाह पड़ी । । एक दस वर्ष १३ दिनकी लड़१३ वर्षकी आयुमें हुआ । * आडरे ( सौथ कीके लड़की पैदा हुई । उसका वजन ७ एम्पटनके अर्लकी लड़की ) का विवाह हो पाउण्ड था । चुका था जब १४ वर्षकी अवस्थामें उसकी टेलरसाहबका कथन है कि " किसी भी मृत्यु हुई । * इंग्लैण्डके राजा हेनरी सात- देशमें नौ वर्षकी लड़कियाँ गर्भवती हो वेंके अत्यन्त निर्बल होनेका कारण यह था सकती हैं। अर्थात् ऐसा हो जाना असम्भव कि उनकी माताका विवाह कुल नौवर्षकी अव- नहीं है । स्थामें हुआ था और जब हेनरीका जन्म ____ जगत्प्रसिद्ध डाक्टर हालिक लिखते हैंहुआ तब लेडी मार्गरेटकी आयु कुल दस " मैंने एक सात वर्षके लडकेका अंग, विषय र वर्षकी थी ! * इंग्लण्डके उच्च श्रेणीके लोगोंकी करने योग्य पाया है । प्रकृतिका नियम इस प्रायः यही हालत थी; वे अत्यन्त न्यून अवस्थामें विवाह करते थे। ___ * Philadelphia Medical Examiner. April 1855. + The origin of life page 456. प्रार्थना की थी कि समाजसे गिरी दुई उससे Transylvania Journal vol. VII page * Medical Jurisprudence for India by SMedical Jurisprudence by R. Ohevers R. Chevers page 692. कई दससे 447. page 673. For Personal & Private Use Only Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९२ जैनहितैषी विषयमें बड़ा बेढंगा है । सात वर्षका लड़का प्रत्येक जातिमें इस बारेमें प्रकृतिका एक ही विषय कर सकता है और गर्भस्थिति कर नियम है और भारतके जलवायुमें काई विशे. सकता है।" पता अथवा न्यूनता नहीं है । जब देशकी __ उपर्युक्त कुल बातें ठण्डे देशोंकी हैं जहाँ अवस्था खराब होती है और लोग ज्ञानहीन भारतकी तरह गरमी नहीं पड़ती, पर रज- रहते हैं तब वे बालविवाहकी बुरी चालमें फंस्वला होनेका समय अथवा बाल्यावस्थामें स जाते हैं । गर्भवती हो जाना उक्त देशों में भी वैसा ही प्रकृतिका अद्भुत रहस्य । है जैसा भारतमें है। अभी हम दिखा चुके हैं कि नौ वर्षकी लड़मुसलमानोंमें भी यह कुरीति थी और कि कियाँ गर्भवती होकर बच्चा जनती हैं और है । इनके कानूनकी किताबोंसे पता चलता दस या इससे कमके लड़कोंद्वारा स्त्रियाँ गर्भहै कि सात वर्षके ऊपरकी आयुवाली लड़- १ वती हो गई हैं । अब दूसरी ओर देखिएकियोंके साथ विषय करना जायज है । , टामस पार १५२ वर्ष तक जीये । उन्होंने १२० वर्षकी आयुमें विवाह किया और मुसलमानोंके नबी मुहम्मदने आयेशासे सात , त १४०वर्षकी आयुमें उन्हें लड़का पैदा हुआ वर्षकी आयुमें विवाह किया और जब वह फेलिक्स प्लेटर बतलाते हैं कि उनके आठ वर्षकी हुई तब उसके साथ संभोग , किया +। यदि किसी नौ या दस वर्षकी के होते रहे * । सीज नगरके बड़े पादरी " दादाको १०० वर्षकी आयुतक बराबर लड़लडकीमें युवावस्थाके कोई चिह्न प्रकट हों तो लिखते हैं कि "सीजमें एक ९४ वर्षके पुरुषने वह बालिग समझी जाती है । एक ८३ वर्षकी स्त्रीसे विवाह किया । स्त्री __इन अनेक देशों और जातियोंके उदाहरणों- गर्भवती हुई और उसे पुत्र उत्पन्न हुआ ।।" से यह सिद्ध हुआ कि यदि भारतमें छोटी मारशल डी एस्टीने अपनी दूसरी शाअवस्थामें लड़कियाँ रजस्वला होती हैं तो दी ९१ वर्षमें की। मारशल डी रिचलने, इससे यह नतीजा नहीं निकाला जा सकता मैडम डीराथके साथ ८४ वर्षकी उमरमें कि भारतके जलवायुमें ऐसी उष्णता है कि शादी की । सर स्टीफेन फ्राक्सकी शादी ७७ लड़कियाँ जल्द सयानी हो जाती हैं। सारांश वर्षकी आयुमें हुई और उन्हें चार लड़के हुयह कि भूमण्डलके प्रत्येक देश और x Reference given in three books (1) Philosophical Transaction (2) The origin Philosophical Tran * Notes on Mohammad * Notes on Muhammedon Law by Khan of Life rnd (3) The conjugal Relation Bahadur M. T. Khan. ship. + The Origin of Life page 458. * The conjugal Relation ship as to +Maenaghtens Euhammedan Law pages health by K. Gardner page 159-167. 228&266. + History of the Acadamy of science. For Personal & Private Use Only Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाल-विवाह ए-पहला ७८ वें वर्षमें, दूसरीबार दो एक साथ और चौथा ८१ वें वर्ष में । मिमायर्स डी ने ८० वर्षकी आयुर्मे विवाह किया और उसे तन्दुरुस्त लड़के पैदा हुए। बेगन साहब बतलाते हैं कि “ मेरे एक मित्र ७१ वर्षकी आयु में एक स्त्रीकी मुहब्बतमें फँस गये और उन्होंने उसके साथ विवाह किया । " । विज्ञानद्वारा विवाह - काल- ठ - निर्णय । हम ऊपर दिखला चुके हैं कि जन्मके कुछ ही वर्षोंके बाद से मरणके कुछ वर्ष पहले तक स्त्री और पुरुष दोनोंहीमें भोगकी शक्ति रहती है अतएव, अब विचार इस बात पर करना है कि इस शक्तिसे काम लेनेके लिए कौन उचित समय है, किस आयुमें स्त्री और पुरुष - को विवाह करनेसे हानि न होगी । तरुणता या जवानी उस अवस्थाका नाम है जब अंगोंकी प्रौढता प्रारम्भ होती है । संसारके सब देशों में, भूमण्डलकी प्रत्येक जातिमें यह अवस्था पुरुषमें सोलह वर्ष की आयुसे और स्त्रीमें बारह Sad । जन्मसे इस अवस्था तक केवल जीना और बढ़ना था; पर अब जीवकी बाढ़शक्तिका काम हड्डी और पट्टोंको पुष्ट करने के अतिरिक्त अपनी सत्र शक्तियों की उन्नति तथा सन्तानोत्पत्ति-शक्तिकी वृद्धि करना है। 1 शरीरकी सातों धातुओंमें रस, रक्त, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा और शुक्रमें नया चमत्कार आ जाता है। शुक्र या वीर्य जो अबतक मन्द था एक नये भाव से अपनी प्रधानता प्रकट क ४९३ 1 रके शरीररूपी नगरका राजा बन जाता है । जैसे ईखमें रस, दही में घी और तिलमें तेल है, उसी तरह समस्त शरीर में वीर्य है । तरुणता में वीर्यवृद्धि और पुष्टता होती है, अतएव शरीरके प्रयेक अंगमें पुष्टता होती है। शरीरमें बल और पराक्रमका प्रवेश होता है, चेहरा चमकने लगता है, सुडौल हो जाता है और सारे शरीरमें एक खास तरहकीं खूबसूरती आ जाती है । यद्यपि तरुणताके प्रथम चिह्न पुरुषमें १६ और स्त्रियोंमें १२ वर्षकी उमरमें क्रमानुसार दिखाई देने लगते हैं, पर वीर्य और इन्द्रियों की पुष्टिमें अभी पूरे दस वर्ष और बाकी हैं । यह समय अकंटक बीत जाने पर सर्वांग पुष्ट हो जाते हैं; शारीरिक, मानसिक और आत्मिक शक्तियों में प्रकाश आ जाता है; शरीरमें बल और पराक्रमकी थाह नहीं रहती; मनमें उमंग, अंगमें फुर्ती और चेहेरेसे आनन्दकी झलक दिखती है । अर्थात् पुरुषोंको वीर्य और शरीर के पुष्ट होने के लिए जन्मसे २६ वर्ष और स्त्रियोंको २२ वर्ष चाहिए । इस अवस्थाके जितने ही पहले और जितने ही अधिक कच्च शरीरसे वीर्य निकलता है, शरीरकी पूर्ण पुष्टि और मानसिक आदि सब शक्तियों के लिए वह उतना ही अधिक हानिकारक होता है । अतएव विज्ञानद्वारा विचार करनेसे पुरुषोंके लिए २६ से ३२ तककी और स्त्रियों For Personal & Private Use Only Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९४ JADHAARAABMARA जनहितैषी रही है।" के लिए २२ से २८ तककी आयु, विवाहके हना कर रहे हैं। स्त्रियाँ ईर्षासे गुड़ियासी लिए सर्वोत्तम जान पड़ती है। अति सुन्दरी चन्द्रमुखीको देख कर कहती संसारकी सारी सुशिक्षित और सभ्य जा- हैं-" परमेश्वर त धन्य है । जिस पर परमेतियोमें ऐसी ही अवस्थामें विवाह हुआ कर- श्वर प्रसन्न होता है, उसे इसी तरह हर तरह सुख सम्पत्ति देता है ! देखो न कहाँ ___ डाक्टर एफ. हालिक कहते हैं:-"यरोप चन्द्रमुखी आरै कहाँ गोद भराई ! अभी और अमरीकामें आम तौर पर विवाह कर. तो अमीचन्दकी पतोहू लड़कीसी लगती हैं, नेका समय पुरुषके लिए २८ से ३१ वर्ष पर वाह रे भाग्य ! वाह रे ईश्वरकी देन कि तक और स्त्रीके लिए २३ से २८ वर्ष तक उनकी गुड़िसासी बहूको लड़का होनेवाला होता है। पर उन लोगोंकी संख्या, जो और है।" बाबू अमीचन्दके माता पिता दोनों देरमें विवाह करते हैं या वे स्वीपरुष जो जीव- जीवित हैं । वे आज फूले नहीं समाते । अभी नपर्यन्त विवाह करते ही नहीं, बढती जा पतोहूकी आयु १३ वर्षसे कम ही है और दिन पूरे हो गये ! एक उदाहरण। आज दो दिनसे घरमें दाइयोंकी भरमार बाबू अमीचन्द और बाबू घनश्यामदास है। सारे शहरकी बूढी खुशामदी स्त्रियाँ कालेजके सहपाठी मित्र हैं। बाबू अमीचन्दको घरमें खचाखच भरी हैं। सव माथे पर हाथ एक लड़का है और घनश्यामदासको एक रखकर उदास होकर बैठी हैं। बाबू अमीएक लड़की । दोनों मित्रोंने कालेजमें ही तै चन्द भी तार पाते ही डाकगाड़ीसे रवाना कर लिया है कि उनके बच्चोंका विवाह एक हो गये । दाइयोंसे काम न चलनेपर मिस. साथ होगा। बड़ी धूमधामसे १२ वर्षके साहबा बुलाई गई और उनके कहनेपर सिविल केदारनाथ १० वर्षकी चन्द्रमुखीके साथ सर्जन भी उपस्थित हुए। कई और डाक्टर ब्याहे गये । बाबू अमीचन्द इसी साल भी बैठे हुए राय मिला रहे हैं, पर चन्द्रमुM. A. की परीक्षा उत्तीर्ण होकर डिप्टी सीकी आह एक मिनटको नहीं रुकती । केकलेक्टरीके पद पर नियुक्त हुए हैं। केदार- दारनाथ बूढ़ी स्त्रियोंसे खुल्लमखुल्ला डाँटे जानेनाथका शुभ विवाह हुए कुल अढाई वर्ष पर और बेहया कहे जानेपर भी बहूके पास बीते थे । आज फिर घरमें मङ्गलोत्सव हो जानेसे नहीं मानता । वह अपना कमरा और रहा है। महफिलमें काशीकी नामी नामी बहूका कमरा एक किये है । लाख कोशिश रण्डियाँ आई हैं । सारे शहरमें धूम मच करने पर भी उसकी आँखोंसे आसुओंकी गई है। लोग बाबू अमीचन्दके भाग्यकी सरा- बड़ी बड़ी बूंदें टपक पड़ती हैं । वह घुटने For Personal & Private Use Only Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाल-विवाह। t itutiffiniti ४९५ if टेककर अपने कमरेमें बारबार प्रार्थना करता- दौड़े हुए उसके कमरेमें घुस गये । किन्तु, है-'हे ईश्वर ! तू मेरी जान जान भले ही केदारको मुसकराते हुए शिष्टाचार करते देख लेले, पर उसको बचा ।' डाक्टरोंने निश्चय उनका भय कुछ कम हुआ। वे बोले-"बेटा, कर लिया कि बिना आपरेशनके काम न लोगोंने तुम्हारी शोचनीय अवस्थाके विषयमें चलेगा, और यदि बहू इसी समय क्लोरोफा- जो कहा था, उससे तो मैं बहुत ही घबड़ा मसे बेहोश नहीं कर दी जायगी, तो बस गया था ।" उसने उत्तर दिया-“जी हाँ, अब उसके प्राण न बचेंगे। सिविल सर्जन पहले मुझे बड़ा दुःख था, पर अब कुछ साहब नश्तर आदि लेने कोठी गये और आये। मिनटोंसे मैं बिलकुल अच्छा हूँ।" वे बाहर बेचारी बालिका बहोश कर दी गई । बेहो- आये और उस समयके जरूरी कार्यकी शीके पहले चन्द्रमुखीने गद्गद् स्वरसे केदार. चिन्तामें लगे। सहसा केदारके कमरेसे पिनाथकी ओर देखकर कहा था- 'प्यारे ! स्तौलकी एक आवाज हुई! लोग दौड़कर दरमैं अब परलोकको जा रही हूँ।' बस उस वाजा तोडकर भीतर घुसे तो केदारको मरा समयसे केदार हदसे ज्यादा परेशान है और बैठा बैठा न जाने क्या सोच रहा है। ॥र हुआ पाया । टेबुल पर यह पत्र मिला-"प्याबेहोश होनेके आधे घण्टे बाद मरा हुआ रा चन्द्रमुख डा री चन्द्रमुखीकी मृत्युके हमीं लोग प्रधान लड़का पैदा हुआ और थोड़ी ही देर बाद कारण हैं, अतएव उसे अकेले ही प्राणदण्ड चन्द्रमुखीके प्राण पखेरू भी उड़ गये। न मिलना चाहिए । उसमें मेरे माता, पिता बाबू अमीचन्द भी आगये, पर पतोहको पितामहका भी दोष है । मेरी मृत्युसे उनको जीवित न देख पाये । उन्होंने यह भी भी दण्ड मिल जायगा-प्रकृतिका कठोर सुना कि केदार बेहद परेशान है । वे नियम मैं पूरा किये देता हूँ।" * युवकोंके प्रति । __ (ले०, देशभक्त।) अरे हमारे युवको ! तुमको, निद्राने क्यों घेरा है ? आलस त्याग करो कुछ उद्यम, देखो हुआ सबेरा है । देश दशा सुधरेगी तुमसे, सबको ऐसी आशा है। हो उत्थान पुनः भारतका, 'हाथ तुम्हारे पाशा है ' ॥१॥ समझ रहे हो क्या तुम ऐसा, 'हमसे क्या कुछ होना है ?' छोड़ इसे तुम लगो कार्यमें, तुमसे ही सब होना है ॥ मार्ग तुम्हारा देख रहे सब, किस पथपर तुम चलते हो। स्वार्थविवश ही रहते हो, या भारत हित भी मरते हो ॥२॥ * यह लेख 'देश-दर्शन' नामक ग्रन्थसे उद्धृत किया जाता है । 'देशदर्शन ' छप रहा है, हिन्दीग्रन्थरनाकर-सीरीजमें शीघ्र ही निकलेगा। For Personal & Private Use Only Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ මුලලලලලලලලලලලලලලලලලම 8 सम्मानित। ®®eeeeeeeeeeeDD® (ले०-श्रीयुत पं० ज्वालादत्त शर्मा ।) [१] रोगोंके वासके लिए थोड़े ही बनाया है । रोग व्यवसायके कारण अमरेन्द्र बाबूके साथ दुष्टोंको होता है।" हमारा परिचय होने पर उनके सौजन्य और जमीन्दार-दम्पतीको हमारी बात सुनकर हँसी उदारता आदि गुणोंसे हमारे साथ उनकी एक आगई। उन्होंने आपसमें एक दूसरेको देखा। तरहसे मित्रता हो गई थी। वे त्रिपुरा जिलेके दोनोंकी चितवनमें और दृष्टिमें कोमलता भरी ज़मीन्दार थे; पर उन्होंने कलकत्तेमें आकर एक हुई थी । अमरेन्द्रने कहा-“ होता होगा, पर साबुनका कारखाना खोल रक्खा था । कल- डाक्टरके मुँहसे यह बात अच्छी नहीं मालूम कत्तेकी पार्क स्ट्रीटमें रहनेके कारण उनकी होती।" मित्रता कई बड़े बड़े आदमियोंके साथ हो गई छोटी आँखवालेको 'हिरन जैसे नेत्रवाला' थी । अमरेन्द्र बाबू सज्जन थे, उनके घरमें कहनेसे वह प्रसन्न नहीं होता। पर सुन्दरीको उनकी स्त्रीके सिवा और कोई न था । उनकी सुन्दरी कहा जाय तो वह प्रसन्न होती है। मनस्त्री असामान्या रूपवती और मधुरभाषिणी ही-मन प्रसन्न होकर, ललनासुलभ लज्जाको थी। वह पढ़ी लिखी भी मालूम होती थी; किन्तु दिखाते हुए उसने हमारी ओर भर्त्सनाकी दृष्टिसे थी बड़ी विलासप्रिया । पर विलासिता उसके देखा-निस्सन्देह उसमें सन्तोष भरा हुआ था। लिए शोभाका कारण थी। निश्चय ही घरू काम हमने कुछ झेंपकर कहा-"नहीं, मेरे कहनेका काज करनेसे उसके रूपकी अवमानना होती। यह आशय था कि आपको कोई रोग नहीं है जिस समय वह बढ़िया कौंचपर लेटी हुई बड़ी और यदि रोग है भी, तो उसको डाक्टर नहीं ही नजाकतसे अपने कल्पित रोगकी कहानी बता सकता। किसी संन्यासीको दिखाइए और सुनाती थी, उस समय सचमुच ही हमें धनी कोई दिव्य औषध खाइए।" अमरेन्द्र पर ईर्ष्या हो आती थी। दोनोंका मुँह गंभीर हो गया। उन्होंने फिर __उस दिन अमरेन्द्र बाबू एक बढ़िया कुर्सीपर एक दूसरेको देखा। हमने कहा--"कहिए तो बैठे हुए थे । उनकी सुन्दरी स्त्रीने कोमल कौंच- संन्यासीको बुला लाऊँ ? हमारे यहाँ आज एक परसे अपना देवी-दुर्लभ हाथ बढ़ाकर कहा- संन्यासी ठहरे हुए हैं।" " डाक्टर बाबू, अब तो मुझे सचमुच ही उन्होंने फिर एक दूसरेको देखा। अमरेन्द्र ज्वर हो गया मालूम पड़ता है ।" बाबूने कहा-"आप शिक्षित होकर इन बद हमने कुछ हँसकर कहा-“आपको कोई माशों पर श्रद्धा रखते हैं ! इनमें कितने चोर रोग नहीं है । भगवानने आपका सुन्दर शरीर डाकू छिपे हुए हैं-आप जानते हैं ? " For Personal & Private Use Only Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AAICHILAITHLILALLAHALDILAAILERY सम्मानित। Rammmmmmuniturnimum ४९७ PART हमने कहा-"यह ठीक है। पर उनमें अच्छे पुत्रने आकर कहा-“बाबा, आज हमारे फुटआदमी भी हैं। हमारा मित्र पागल संन्यासी है। बाल-क्लबको खूब लाभ हुआ है ।" हमने पूछाबिल्कुल उदासीन संन्यासी है। कभी कभी हमारे "क्या?" बालकने कहा-“आज हमारे क्लबमें पास आजाता है। आप कहें तो आपके साथ..." वही पागल संन्यासी गये थे। सबने उन्हें नमस्कार __ अमरेन्द्र बाबूने कहा-"क्षमा कीजिए। किया। उन्होंने पूछा-'तुम्हारा कप्तान कौन इन बदमाशोंको हम अपनी कोठीकी हदके है ? ' रमेशने उनके पास जाकर कहा-'जी मैं अन्दर नहीं आने देते। सभी धूर्त हैं। सभीकी हूँ।' उन्होंने उसके हाथमें पाँच रुपये गुप्त कथायें है।" देकर कहा-'लो, यह हमारा चन्दा है। [२] पर देखो किसी तरहकी बुराई तुम्हारे क्लबमें हमारे अतिथि पागल साधुका भी कुछ गुप्त प्रवेश न करने पावे।" इतिहास था-इसमें कोई सन्देह नहीं । उसको अमरेन्द्र बाबूके घरसे आकर हम पागल देखनेसे यह मालूम होता था कि वह आनन्दमय स्वामीसे बातचीत करने लगे । भगवद्गीता पर है, शोक दुःख, हिताहित और शुभाशुभ विष- वह अक्सर बहुत ही भावपूर्ण भाषण किया योंसे उदासीन है । पर जरा गौरसे देखो तो करता था । आज बहुतसी बातोंके बाद उसने मालूम होता था कि वह दिनरात किसी घोरे कहा-" हमारे देशके शास्त्रमें तो लिखा है कि । भावयुद्धमें लगा रहता है। हम चिकित्साव्यवसायी काम तो करो, पर कामसे अलग रहो।" थे इसीलिए उसकी मानसिक अवस्थाका बहुत हमने कहा-"अच्छा स्वामीजी, जिस समय कुछ आभास पा जाते थे। मानसिक संग्रामके आप संसारमें थे उस समय भी क्या इसी नीतिके चिह्न उसकी आँखोंमें, ललाटपर और तरुण अनुसार काम करते थे ?" मस्तकके किसी किसी सफेद बालमें विद्यमान थे। हमें यह भी मालूम होता था कि वह दिनों ___ स्वामीजीका मुँह गम्भीर हो गया । उन्होंने दिन उस संग्राममें जय प्राप्त कर रहा है। चाहे कहा-" किसी दिन बताऊँगा । मैं जिस समय गृहस्थ था उस समय मुझे इन बातोंकी खबर वह और मनुष्योंके समक्ष समदर्शी हो, पर हमें - भी न थी। जिस समय गृहस्थ था, उस समय , मालूम होता था कि वह स्त्रीजातिसे जरूर घृणा करता है । उसके अच्छे वंशके होनेमें हमारे घरमें दुर्गोत्सव होता था-सभी कुछ होता था। किन्तु मैं उन सब कामोंमें राजसिक भावसे कुछ भी सन्देह नहीं था । वह अच्छे साधुओंकी , तरह धनको तुच्छ ही नहीं समझता था, किन्तु . लिप्त रहता था । हाँ, जब गृहस्थ था तब एक उसे धनसे घृणा भी थी। कोई पाँच महीने में अच्छा काम जरूर करता था-दान । " पहले जब वह हमारे पास आया था, तब हमने हमने कहा-" उससे बढ़कर तो और कोई उसे मार्गव्ययके लिए कोई पाँच रुपये दिये थे। दूसरा काम ही नहीं है।" पहले तो उसने उन्हें लेनेसे इन्कार किया, पर उसने हँसकर कहा-" यह अच्छा काम बादको यह जानकर कि न लेनेसे शायद हमें भी और सब कामोंकी तरह सात्त्विक, राजसिक तकलीफ पहुँचे-बायें हाथसे वे रुपये ले लिये। और तामसिक भावसे किया जाता है । राजसिक उसके जानेके कोई पाँच ही मिनट बाद हमारे दान किसे कहते हैं-जानते हो ? For Personal & Private Use Only Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९८ Immmm जैनहितैषीEDIT मैंने कहा-" हाँ किया करता था-ऐश्वर्य्यके संग पापका जो यत्तु प्रत्युपकारार्थः फलघुद्दिश्य वा पुनः। मिश्रण था उस पापको धोनेके लिए।" दीयते च परिक्लिष्टं तद्दानं राजसं स्मृतम् ॥” हमने अन्यमनस्क होकर पूछा-" स्वामीउन्होंने कहा- ठीक है । मैं क्यों दान जी, आपका जन्मस्थान कहाँ है ? " करता था—जानते हो ? मेरे पिता सामान्य स्वामीजीन गम्भीर होकर कहा-" इस अवस्थासे करोड़पति हो गये थे। पर उन्होंने बातको जाने दो।" किस तरह रुपया पैदा किया था, यह किसीको मालूम न था। सब लोग यही जानते थे कि वे स्वामीजी कभी कभी बालकोंकी तरह हँसते सूद अधिक लेते हैं और इसीमें उन्होंने यह धन कमाया है; पर उनके ऐश्वर्य्यका मूलधन कहाँसे थे। वे हमारे प्रस्तावको सुनकर खूब ही खिल आया-किसीको मालूम न था । ग्राममें खिलाकर हँसे । हम सब लोग भी हँस रहे थे। मशहूर था-" प्रस्ताव और कुछ नहीं उनकी तस्वीर उतरवा नेका था । हमारे मित्र सुरेश्वरने शौकिया फोटो___ स्वामीजी यह सोचकर कि बिनापूछे ही वे ' ग्राफी सीखी थी। वह स्वामीजीकी तस्बीर खींचअपने पर्व जीवनकी बात कह रहे हैं चुप हा के लिए बहत व्यस्त था। स्वामीजी बालकोंकी गये । पर हमें बड़ा कौतुक हो गया था । हमने तरह हँसकर कहने लगे-'छिः छिः इस नश्वर । पूछा-"क्या मशहूर था ?" देहका इतना सम्मान !' उन्होंने कहा-" यह कि हमारे बापको ___पर सुरेश्वर छोड़नेवाला नहीं था। उसने यक्षका धन मिल गया है । उस यक्षके धनको कहा-“आप तो उस चित्रको राखिएगा ही नहीं। पाकर कोई सुखी नहीं होता-उसे कोई * आप एक बार ध्यानमग्न होकर बैठ जाइए । मैं खर्च नहीं कर सकता । पिता बहुत ही कंजूस आपका चित्र उतार लूंगा। आपको कुछ भी देर थ आर व कभा प्रसन्न भा नहा रहत था" नहीं लगेगी।" ___ यह कह कर स्वामीजी चुप हो गये । उनके ___ स्वामीजी बड़े ही दयालु थे। इस जरासी बातमें ललाट पर चिन्ताकी रेखायें खिंच गई । वे भनमें भी उन्हें हमारे दःख पानेका ख्याल हआ और सिर्फ न मालूम क्या क्या सोच रहे थे। उन्होंने एक इसीलिए वे चित्र उतरवानेके लिए बैठ गये । साथ हमसे कहा-" मरते समय पिता हमसे एक हिरन के चमडे पर वे पद्मासनसे आ बैठे । कह गये कि 'मैंने बुरी तरह इस धनको इकटा क्या भीषण परिवर्तन था । हम दोनों ही विस्मित किया था। इसके सिवाय उन्होंने और कुछ भी थे। शरीरके साथ मनका दृढ़ सम्बन्ध है, यह नहीं कहा-हाँ, इतना अवश्य कहा था कि बात तो हम रोज ही प्रत्यक्ष किया करते थे; 'यदि किसीको मालूम हो जाता कि मैंने किस पर शरीर और मनका बन्धन इतना दृढ़ है-यह तरह रुपया इकट्ठा किया है तो मुझे जरूर बात हमने आजसे पहले कभी नहीं जानी थी । जेलमें जाना पड़ता।" उस दुबले, पतले, गेरुए वस्त्र पहरनेवाले और स्वामी जी काँप उठे । एक दो मिनट इधर मुण्डित-शिर सन्न्यासीको देखकर कुछ भी श्रद्धा उधर देखकर उन्होंने कहा-" इसी लिए मैं दान नहीं होती थी। वह भले घरका आदमी ज़रूर For Personal & Private Use Only Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ HIBAOBOLLEmumIND सम्मानित। ४९९ मालूम पड़ता था; किन्तु हमारे ऊपर कृपा करके द्वेष था । पर हमारी इस अपनी बनाई हुई वृत्तिमें चित्र खिंचाने के लिए वही साधु जिस समय जरूर कुछ सत्य था-यह बात उस दिनकी घटआँखें बन्द करके योगासनसे बैठ गया उस . नासे मालूम हो गई। समय एक अपूर्व कान्तिसे उसका सर्वाङ्ग उज्वल हम लोग जिस समय स्वामीजीका चित्र हो गया। उस रूपका वर्णन करना मुश्किल उतार रहे थे उस समय मोहन भी वहाँ आगया। है। उन्होंने अन्तरंगमें जरूर ही योगारम्भ कर वह स्वामीजीको देखकर काँपने लगा । भूतके दिया था । उस मूर्तिको देखकर हमें एक नये भयसे जिस तरह आदमी काँप उठता है-बूढ़ा प्रकारका आनन्द प्राप्त होने लगा । हमारी मोहन भी उसी तरह स्वामीजीको देखकर धारणा थी कि मनुष्यका तेज आँखको छोड़कर काँपने लगा । इसके बाद वह वहाँसे लड़खड़ाता और किसी इन्द्रियसे प्रकट नहीं होता है । हुआ बाहर चला गया । हमने उससे जाकर मदनको भस्म करते समय महादेवके ललाटमेंसे पूछा-"क्या हुआ मोहन ?" निकली हुई तेजशिखाने विश्वविजयी काम- मोहनने अर्द्धस्फुटस्वरसे कहा-"माजीकी देवको भस्म किया था-यह कथा पुराणों में तबीअत अच्छी नहीं है। आज शामको आप एक जरूर पढ़ी थी, पर आँखको छोड़कर किसी बार उधर हो आइए ।" और स्थानसे हमने तेज निकलता हुआ देखा हमने कहा-"शामको हम जरूर आयेंगे । कभी नहीं था । किन्तु स्वामीजीके सारे शरी- नाद्वारी तबीअत कैसी है " रसे एक अनिर्वचनीय ज्योति बाहर हो रही वहाँ आकर उसकी तबीअत बहुत कुछ ठीक थी। अज्ञलोगोंके लिए वह ज्योति कैसी भया- हो गई थी। उसने झूठी हँसी हँसते हुए कहानक थी-उसकी बात सुनिए " तेज धूपमें आनेके कारण डाक्टर बाबू, मेरी ___ अमरेन्द्र बाबूका मोहन नामका एक नौकर - तबीअत खराब हो गई थी।" था । केवल मोहन ही उनका त्रिपुराका नौकर . हमने कहा-"हम यह समझे कि सन्न्यासीथा, बाकी सब कलकत्तेके थे । वह रूप और , को देखकर-तुम्हारी ऐसी दशा हो गई थी।" गुणमें रवीन्द्रनाथके 'कष्टो बेटा' के समान था। मोहनने कहा-"नहीं । डाक्टर बाबू, जरूर अमरेन्द्र बाबूके घरमें उसका खूब आदर था। आइएगा। नहीं तो माजी बहुत नाराज होंगी।" वह अपनी इच्छासे ही काम करता था । जहाँ जामें आता जाता-किसीको उसे बतानेकी जरू [४] रत न थी। सभी उसका मान करते थे, उसे खुश स्वामीजी चले गये। उनका चित्र तय्यार हो रखते थे और उससे प्रेम करते थे। पर न मालूम गया। चित्रमें उनकी उस ज्योतिका विकास क्यों हमें उससे पहले दिनसे ही घिन थी। न अवश्य ही नहीं हो सका; पर फिर भी चित्रमें मालूम क्यों उसे हम बहुत बड़ा पापी, निष्ठुर- उनके चेहरेपर यथेष्ट तेज मालूम पड़ता था। उस और विश्वासघातक समझते थे; पर अमरेन्द्र चित्रको देखकर सबने सुरेश्वरके शिल्पचातुर्य्यकी बाबू और उनकी स्त्रीका उस पर पूरा विश्वास प्रशंसा की। था। निस्सन्देह हमारी जानमें उसने कोई बुरा- उस दिन अमेरन्द्र बाबू उस समय तक घर काम नहीं किया था; किन्तु फिर भी हमें उस से नहीं लौटे थे। उनकी स्त्री हमसे अपने कल्पित For Personal & Private Use Only Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०० CHITRImmmmmOLI जैनहितेषी रोगकी कहानी कह रही थी। उसके अङ्गमें एक स्नायु कमजोर हैं, इसलिए एक तेजस्वी पुरुषके तरहका आलस्य सदा ही बना रहता था । पर चित्रको देखकर इन्हें 'फिट' आ गया था।" उस आलस्यसे उसकी शोभा बढ़ती थी, घटती अमरेन्द्रबाबू हमारी बातको अच्छी तरह नहीं नहीं थी। समझे । पास ही संगमर्मरकी छोटीसी मेजपर वह ___ हमने उसके साथ बात करते करते कहा- चित्र रक्खा हुआ था । उसे उठाकर वे देखने " उस दिन संन्यासीकी बात हमने कही थी-याद लगे। उन्हें उसके छूते ही मानो बिजलीका है?" धक्का लगा। उनकी आँखें लाल पड़ गई और ___ उसने वस्त्रको सम्हालते हुए मदालसा भावसे उनके हाथसे वह चित्र तप्त लोहेकी तरह असह्य कहा-"कौन संन्यासीकी ?" हमने कहा-"जिसे होकर गिर पड़ा ! सुनकर अमरेन्द्र बाबूने कहा था कि संन्यासी उन्होंने लाल लाल नेत्र निकालकर पागलोंकी प्रायः बदमाश होते हैं।" तरह चिल्लाकर कहा-" यह क्या है ? " उसने उस बात पर पूरा ध्यान न दिया और __ हमने कहा-" संन्यासीका चित्र !" अलसभावसे पूछा-" कौन बदमाश ?" हमने जेबमेंसे चित्र निकालकर उसके सामने मन अमरेन्द्र-" पर यह हमारे घरमें किस तरह रख दिया और कहा-“ देखिए यह ! " आया ? आप डाक्टरीके लिए आते हैं, डाक्टरी कीजिए।" सर्वनाश ! हमें इस बातकी स्वप्नमें भी आशा " नहीं थी। स्नायुरोगमें उत्तेजक पदार्थ निषिद्ध हैं- उसके दुर्विनीत व्यवहारसे हमें बहुत दुःख यह बात हम अच्छी तरह जानते थे किन्त संन्या- हुआ। उसके मुख पर कोमलताका पता तक सीका चित्रगत तेज उसके स्नायुमण्डलको इतना नहीं था । केवल एक नीच और नारकी भाव उत्तेजित कर देगा-इस बातका हमें रत्तीभर भी चमक रहा था। उसके शरीरमें भद्रताका चिह्न संदेह नहीं था। चित्रको देखते ही अमेरन्द्र बाबकी भी कहीं नजर न आता था। स्त्रीकी आँखें स्थिर हो गई। हाथ पाँव अकड़ गये हमें उसकी बातको सुनकर बहुत दुःख हुआ। और मुँह रक्तसञ्चालनकी अधिकत्तासे सुर्ख पड़- हमने कहा-" आप इस कदर आपेसे बाहर गया। एक बार चीख मारकर वह मार्छिता हो क्यों हुए जाते हैं ? " । गई । हमें बहुत दुःख हुआ। हमने उसी समय उसने पहले जैसे ही उत्तेजनाके स्वरमें कहाबिजलीकी घंटी बजाई । नौकर उपस्थित हुआ। “ आप डाक्टरोंकी तरह डाक्टरी करना चाहें हमने उसकी आँखोंपर ठण्डे पानकि छींटे देने तो आइए । कलकत्तेमें डाक्टरोंकी कमी नहीं शुरू किये । धीरे धीरे उसने आँखें खोलीं। है। और फिर हमारे यहाँ तो न जाने कितने हमने पूछा-"अब तबअित अच्छी है ?" डाक्टर आने के लिए लालायित हैं।" ___ उसने सिर्फ सिर हिला दिया। इसी समय उसके चेहरेपर नीच और निष्ठरभाव बढ़ता अमरेन्द्र भी आगये। वे घबराये हुए हमारे पास जाता था। हमने सोचा कि यही भाव इसका आकर बैठ गये। स्वाभाविक भाव है । इसमें भद्रता और ममहम झेंप रहे थे। हमने उनसे कहा कि "इनके ताका भाव केवल दिखानेके लिए ही था। For Personal & Private Use Only Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ म सम्मानित। METERTimrHETREEDEY ५०१ . हम उसके मकानसे चले आये । शोक फिर नया हो गया और उसके दुर्बल स्नायु उस शोकको धारण नहीं कर सके ।" • हमने कहा-"क्या आप जिसका वह चित्र हम कुछ स्थिर नहीं कर सक । स्वामाजाक था उस संन्यासीको पहचानते हैं ?" चित्रको हमने बारबार देखा और आदमियोंको अमरेन्द्र ने कहा " नहीं।" भी उसे दिखाया । उसे देखकर सभी प्रसन्न हुए । अमरेन्द्रबाबू या उनकी स्त्रीकी तरह अमरेन्द्र बाबूने गवर्नमेण्टको परोपकारी किसीको बिजली जैसा आघात या बेहोशी नहीं कामोंके लिए बहुतसा रुपया दिया था और अपनी हुई। उनका पुराना नौकर मोहन भी स्वामी- . उदारतासे राजपुरुषोंको मुग्ध कर लिया था। अभी जीको देखकर सहम गया था । तो क्या ये 4 हाल ही उनकी इस सहृदयताके उपलक्षमें गवर्नलोग स्वामीजीके साथ परिचित हैं ? स्वार्माजीक मेण्टने उपाधि देकर उनकी सम्मानवृद्धि की पिछले जीवनकी एक बात मालूम थी कि व है। राय अमरेन्द्रनाथ मित्र बहादुर अपने बढ़िया बहुत बड़े ऐश्वर्यवान् थे । अमरेन्द्र बाबू भी उद्यान में अपने मित्रोंको भोज देने की तयारी कर धनवान हैं । इन दोनोंमें क्या कोई सम्पर्क है ? र रहे हैं । बाग हर तरह से सजाया गया था। न पर इस प्रश्नके उत्तर पानेका कोई उपाय नहीं । नृत्य, गीत, पान और भोजनद्वारा तृप्त होकर था। उस दिन अमरेन्द्र बाबूने हमारा जैसा अप प निमन्त्रित व्यक्ति नये रायबहादुरका यशोगान मान किया था उसको देखकर हमने मन-ही- कर रहे थे। बागमें एक ओर परदा-मिलन भी मन संकल्प कर लिया था कि हम उनके . र हो रहा था । कलकत्तेके अनेक अच्छे घरोंकी बुलाने पर भी कभी उनके यहाँ नहीं जायेंगे। पण स्त्रियाँ अमरेन्द्रगृहिणीके आदरको पाकर उसपर पर इस रहस्यको खोलने की प्रबल इच्छा हमारे , "र मोहित हो रही थीं। हमने उसका उस रातका मनमें उत्पन्न होगई थी। वेश नहीं देखा था; किन्तु हम मानरचक्षुकी कोई एक सप्ताह बाद स्वयं अमरेन्द्र बाबू संहायतासे उस दैवी मूर्तिके दर्शन कर रहे थे। हमारे यहाँ आये । उस दिन के उस क्षणभरके वही मदालसा भाव, मरालगति, मधुर और सरस कठोर नीचभावका चिह्न भी अब उनके चेहरे हास्य तथा आँखोमें विलास-विलोल कटाक्ष । पर नहीं था । उन्होंने हमसे क्षमा माँगी और आज अमरेन्द्र बाबूके सम्मानसे वह भी सम्माअपने घर आनेके लिए हमसे अनुरोध किया। निता हुई है। अनेक बड़े बड़े घरकी स्त्रियाँ हमने कहा-" क्या एक बात हम पूछ सकते उसका आतिथ्य पाकर खूब प्रसन्न हुई हैं। हैं? संन्यासी-" बागके भीतर भीड़ बहुत थी। लोगोंके __ हमारी बातको काटकर अमरेन्द्रबाबूने कहा- झुण्डके झुण्ड घूम रहे थे । लताओंके बीचमें "हाँ, यही बात कहनेके लिए तो मैं आया बैठे हुए अनेक युवक मद्यपान कर रहे थे और हूँ। एक बार किसी संन्यासीकी दवा खाकर जोर जोरसे हँस रहे थे। हम भी बागसे बाहर हमारी स्त्रीका कोई रिश्तेदार मर गया था। उसी एक सूखे हुए आमके वृक्षके पास एकान्तमें बैठे दिनसे हम लोग संन्यासियोंसे जलते हैं । उस हुए विश्राम ले रहे थे । वहाँ चाँदनीके सिवा दिन संन्यास के चित्रको देखकर उसका पुराना और कोई प्रकाश नहीं था। ११-१२ For Personal & Private Use Only Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०२ जैनहितैषी - वहाँसे हम कभी सजे हुए उस बागकी ओर देखते थे,कभी निमन्त्रित व्यक्तियों के वस्त्रों की शोभाको देखते थे और कभी कभी निस्तब्ध प्रकृतिको भी देख लेते थे । इसी समय किसीने हमारा कन्धा छुआ । पीछे फिरकर देखा तो स्वामीजी ! पागल स्वामी, मुण्डित शिर, कृशकाय, एक मैला गेरुआ वस्त्र पहने हुए, शरीरमें धूल रमाये, दैन्य और दारिद्र्यका जीता जागता चित्र लिये हुए उस वैभवविचित्र स्थल में खड़े हुए थे । यह वैपरीत्य हमें बहुत अच्छा लगा । एक ओर धन, ऐश्वर्य, विलास और राजसम्मान था, दूसरी ओर दैन्य दारिद्र्य और वैराग्य था । सिर्फ उनके मुँहकी ज्योति विशेष थी; किन्तु वह ज्योति रातमें अधिक दिखाई न पड़ती थी । हमने पागल स्वामीको प्रणाम करके पूछा- “स्वामीजी, आज इधर कहाँ ? ” अनेक बड़े आदी अनरेन्द्रको घेरे हुए धन्यवाद दे रहे थे । बिजली के प्रकाशमें अमरेन्द्रके चेहरे पर हँसी साफ मालूम हो रही थी । हमने कहा - " स्वामीजी, आप सामने जिसे आदमियोंसे घिरा हुआ खड़ा देखते हैं- उसने राजसम्मान पाया है, खिताब पाया है-ये सब लोग उसीका अभिनन्दन कर रहे हैं । कैसा आनन्द है ! दूसरी ओर उसकी स्त्री स्त्रियोंको भोज दे रही है। बड़ी सुन्दरी स्त्री है । अप्सराओंकी तरह उसका चेहरा है । कहिए स्वामीजी, क्या अब भी आप कह सकते हैं कि कामिनी और काञ्चन में सुख नहीं है ? " स्वामीजी सूखे हुए वृक्षके ऊपर बैठ गये । इस बार हमें उनका ज्योतिः पूर्ण मुख दिख गया । वे कहने लगे - " आज हमने मनको पूर्ण रूपसे जीत लिया है। गुरुदेव कहते हैं अब कुछ भय नहीं है। याद पड़ता है हमने तुमसे कहा था कि हन धनीके पुत्र थे और अतुल धनके मालिक थे । रुपया भी था, सुन्दरी स्त्री भी थी। अप्स - राओंके समान उसका रूप था । वह मन्थरगमना मदालसा, विलासविलोलनेत्रा और मक्खन के समान कोमल शरीरवाली थी । कामिनी और काञ्चन दोनों ही थे तब मैंने क्यों वैराग्य ग्रहण किया ?” 2 उन्होंने कहा - " हमारे पिताके एक मातृपितृस्वामीजीने हँसते हुए कहा - " तुमसे मिलने के होन भानजा था । उमरमें वह मेरी बराबरका लिए। यह क्या हो रहा है ? ” था । हम दोनों ही पिताको दादा कहते थे। हमा रा विवाह हो गया था पर वह कुँवारा था । हम स्त्रीका भी विश्वास करते थे और उसका भी विश्वास करते थे । एक दिन हमने अपनी आँखोंसे देखा - कहने की बात नहीं - हमारी स्त्री और फुफेरा भाई - " 'क्यों?' यह प्रश्न हमारे मन में बहुत दिनों से उठ रहा था । हम स्थिर हो कर उनकी बातको सुनने लगे । स्वामीजी चुप होगये । हमने अच्छी तरह उनके मुखको देखा । वह एकदम भावहीन था । उस पर द्वेष नहीं था, लज्जा नहीं थी, क्रोध नहीं था, काम नहीं था - थी केवल एक स्वर्गीय ज्योति । वे कहने लगे - " जवानीके मदमें मत्त होकर उस समय मैने विचार किया कि दोनोंको मार स्वामीजीने हँस दिया । फिर कहा - "हमारी डालूँ । एक पुराना नौकर भी उनके पापमें कहानी सुनोगे ? " लिप्त था । सभीको मार डालूँ और पृथ्वीका भार उतार दूँ। फिर भय हुआ, लज्जा हुई, हमने कहा - " जरूर ।” For Personal & Private Use Only Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्मानित । दूसरा ख्याल आया - पिताका पापलब्ध धन और पापीयसी स्त्री - कामिनी और काञ्चन दोनों ही पाप से सने हुए - मैं क्रोध और क्षोभसे किंकर्त्तव्यविमूढ़ होकर विचार करने लगा । बागके बाहर एक संन्यासी ठहरे हुए थे । हमने उन्हें सब वृत्तान्त सुनाया । उन्होंने कहा - "बेटा, यह ठीक नहीं। तू धन और स्त्रीको छोड़कर हमारे साथ चल ।” मैंने देखा कि स्वामी अन्तर्यामी हैं। मैं मंत्रमुग्धकी तरह उनके साथ हो लिया । आठ वर्ष साधना करके मैं परसों ही कुछ शान्त हुआ हूँ । नहीं तो प्रतिदिन ही मनमें द्वन्द्वयुद्ध होता रहता था । धीरे धीरे मुमुक्षवृत्ति शुद्ध होती जाती थी । आज किसीसे द्वेष नहीं है । कोई द्वन्द्व नहीं है । क्रोध नहीं है । मनमें क्षमा है, पर उनपर भगवान् क्षमा नहीं - " स्वामीजी चुप होगये । भीड़मेंसे ठट्ठा पड़ा । जलतरंग बजने लगी । स्वामीजी ने कहा - " इस समय क्षणिक आनन्द प्राप्त है, पर प्रकृति उन्हें नहीं छोड़ेगी। उन्हीं की भलाईके लिए उनको दण्ड मिलेगा। गुरुदेवने भविष्यत् देख दिया है-वह पागल होकर गली गली मारा फिरेगा, जूठन खावेगा। स्त्री किसी नौकर के साथ व्यभिचार करके असह्य यन्त्रणायें भोगेगी, दासीवृत्ति करेगी और अन्तमें अस्पतालमें मरेगी । हम प्रार्थना करके भी उन्हें नहीं बचा सकते । ईश्वरकी इच्छा ! " हमने कहा - " उन्हें आपने फिर कभी नहीं देखा ? " उन्होंने कहा - " जब हम संन्यासी होकर घरसे चले आये तब उन्हें वहाँ रहना मुश्किल हो गया । वे हमारे पिताका धन लेकर कलकत्ते ५०३ चले आये और सुना है यहाँ नाम बदलकर रहते हैं । लोग उन्हें स्त्री-पुरुष जानते हैं । " 11 जलतरङ्ग बन्द हो गई । एक आदमी कहा - " बोलो राय बहादुरकी जय । सैकड़ों आदमियोंने एक साथ कहा- “जय, राय बहादुरकी जय ! ” स्वामीजी ने कहा - " अच्छा चलते हैं । ईश्वर राय बहादुरका मङ्गल करें। यही हमारा भाई है और इसकी अप्सरातुल्य स्त्री पहले हमारी धर्मपत्नी थी । " स्वामीजी उठ खड़े हुए। हम विस्मयमें पड़े खड़े ही रहे, जुबान से कुछ नहीं निकला । धूल रमाये, मैले गैरुये वस्त्र पहने, मुण्डितशिर, दुबले पतले स्वामीजी अन्धकारमें अदृश्य होगये । हमने देखा उनके चारों और स्वर्गीय ज्योति है और पापी अमरेन्द्र - राजसम्मान से सम्मानित, हास्यमुख, लम्पट अमरेन्द्र - - बागमें खड़ा हुआ अभिनन्दन ग्रहण कर रहा है। वह खूब तृप्त था, खूब सुखी था, खूब सम्मानित था । पर पागल धूल में जा रहा था । उसीका धन, उसीकी स्त्री लेकरओफ ! क्या मालूम समाजमें क्या हो रहा है ! एक बार संन्यासीकी ओर हमने देखा और एक बार उसकी ओर देखा - दोनों के भविष्यत्का स्मरण किया, स्त्रीके भविष्यत्‌का भी स्मरण किया । सर्वनाश ! कौन जाने कौन सम्मानित है - संन्यासी या रायबहादुर ! हम धीरे धीरे बागकी तरफको चल दिये । * * श्रीयुत बाबू केशवचन्द्र गुप्त एम. ए., बी. एल. की बंगला गल्पका अनुवाद | For Personal & Private Use Only Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विविध प्रसङ्ग । १ भद्रबाहु - संहिता की परीक्षा । गत चौथे पांचवें अंक में हमने सूचित किया था कि हितैषीके पाठकोंके सुपरिचित्त लेखक श्रीयुत बाबू जुगलकिशोरजी मुख्तार ' भद्रबाहु-संहिता' की परीक्षा लिखनेवाले हैं । खुशीकी बात है कि परीक्षाका लिखना शुरू हो चुका है और उसका पहला लेख इस अंक के प्रारंभ में ही प्रकाशित किया जाता है । हम अपने पाठकोंसे आग्रहपूर्वक प्रेरणा करते हैं कि वे इस लेखको . अवश्य पढ़ें और अच्छी तरह विचार पूर्वक पढ़ें । लेख कितने परिश्रमसे लिखा गया है और इसके लिए लेखक महाशयको कितनी कठिन तपस्या करनी पड़ी है, इसका अनुभव विचारशील पाठक स्वयं ही कर लेंगे। तो भी इतना कहे बिना नहीं रहा जाता कि जबसे जैनसमाजमें अन्ध श्रद्धाका साम्राज्य हुआ है, और लोग सच्चे झूठेकी परीक्षा करना भूल गये हैं, तबसे अबतक इस प्रकारका शायद एक भी प्रयत्न नहीं हुआ है । जैनसाहित्य के इतिहास में यह प्रयत्न अपना प्रभाव सदा के लिए छोड़ जायगा । हमारा विश्वास है कि ये ग्रन्थपरीक्षासम्बधी लेख लोगोंको केवल परीक्षापटु ही न बना देंगे; किन्तु यह भी सिख लायँगे कि स्वाध्याय करना-ग्रन्थोंका बारीक दृष्टिसे अध्ययन करना-किसे कहते हैं और इसमें कितने अधिक परिश्रमकी तथा कितने अधिक साधनों की आवश्यकता होती है । २ दिगम्बर-जैनमहासभाका सुधार । हमारे एक मित्र लिखते हैं कि " महासभा के सुधारकी कुछ लोगोंको विशेष करके जैन मित्रके सम्पादक महाशयको बहुत चिन्ता रहती है। जान पड़ता है कि ये सब लोग महासभा के सुधारकों कोई बहुत बड़ा काम समझते हैं । पर वास्तव में महासभाकी जो वर्तमान दशा है उसके देखते हुए उसका सुधार करना बहुत ही है। दो चार उपचारोंसे ही उसका सुधार हो सकता है । सबसे पहला और अच्छा उपाय यह है कि जैनगजट बन्द कर दिया जाय । बेचारा बहुत समय से कष्ट भोग रहा है, उसका जीना मरना बराबर हो रहा है, जो कोई उसे इस भवयंत्रणा से मुक्त कर देगा उसे बड़ा ही पुण्य होगा । उसके समाधिलाभ करनेसे महासभा के मेम्बरोंका एक बड़ा भारी बोझा घट जायगा । दूसरा उपाय यह है कि महासभाका दफ्तर बिलकुल उठा दिया जाय और महामंत्री साह - बके अनन्त आशीर्वाद ग्रहण किये जायँ । दफ्तरके उठ जानेसे जैनसमाजकी कोई न होगी, उसका कोई भी काम रुक न रहेगा; यदि कोई चाहे तो इस बात की हम गारंटी लिख दे सकते हैं । तीसरा उपाय यह है कि महाविद्यालय मथुरासे उठाकर फिर काशी भेज दिया जाय और उसका फण्ड स्याद्वादपाठशालामें शामिल कर दिया जाय । यदि यह पसन्द न हो, तो विद्यालय बन्द ही कर दिया जाय और जो रुपया है वह किसी तीर्थके मुकद्दमें में खर्च कर दिया जाय । यदि मेरी ये दोनों ही रायें कुतर्क समझी जायँ, तो विद्यालयकी रकम युद्धफण्डमें दे दी जाय और इस बातकी आशा रक्खी जाय कि महासभा के दो चार अधिकारियोंको रायबहादुरीका खिताब For Personal & Private Use Only Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ a m AWAIMAMITRAATMALAIMIMALARIAAR विविध प्रसन। दिया जायगा । यह याद रखना चाहिए कि ये मान उद्देश्य अच्छा नहीं है ? अथवा तीनों ही उपाय जुदा जुदा फलदायक न किसी सभा या मण्डलको अपना संकुचित कार्यहोंगे; दर्शन-ज्ञान-चारित्रके समान इन तीनोंकी क्षेत्र बढ़ानेका अधिकार नहीं है ? एसोसियेशन एकतासे ही महासभाका सुधार होगा । उसको या मण्डलके नामके साथ व्यापक — जैन ' शब्द महा समाधि प्राप्त हो जायगी और इससे बढ़- लगा हुआ है, न कि दिगम्बर श्वेताम्बर या कर उसका कोई सुधार हो नहीं सकता । जो स्थानकवासी । अतः उसके उद्देश्य किसी लोग इससे विरुद्ध उपाय बतलाते हैं, वे उसे एक ही सम्प्रदायमें कैद नहीं हो सकते । यह संसारारण्यमें भटकाना चाहते हैं । सम्पादक संभव है कि उसकी स्थापनाके समयकी परिस्थिति महाशय, आशा है कि आप मेरे इन सुधारके ऐसी हो कि वह केवल दिगम्बरसमाजमें ही नये आविष्कारोंको अपने पत्रमें अवश्य प्रकाशित काम कर सकता हो, पर पीछे वह दशा नहीं कर देंगे।" इस पर ठीका टिप्पणी व्यर्थ है। रही यह देखकर मण्डलने अपना कार्यक्षेत्र बढ़ना ३ भारत-जैन-महामण्डलका सुधार। उचित समझा हो । यदि उसने अपना कार्यक्षेत्र ब्रह्मचारीजी महासभाके समान भारत-जैन- बढ़ाया तो कुछ अनुचित नहीं किया । उसके महामण्डलका भी सधार चाहते हैं । गत नवीन उद्देश्यकी सफलता न होनेका कारण पुराने आसोज सदी २ के जैनमित्रमें आपने जैन-. उद्देश्यका मारा जाना नहीं है, किन्तु काम यंगमेन्स एसोसियेशन ' का पुराना इतिहास करनेवालोंकी कमी है । भारतकी तमाम जातिप्रकाशित करनेका परिश्रम उठाया है और यह योंकी अपेक्षा जैन जाति इस विषयमें सबसे अधिक सिद्ध करनेकी कोशिश की है कि शरू शुरूमें अभागिनी है कि उसके प्रायः सभी उच्चशिक्षाप्राप्त उसका उद्देश्य दिगम्बरजैनसमाजकी उन्नति ग्रेज्युएट-जिनकी एक अच्छी संख्या है-न करनेका था । संभव है कि उसका पहले यही अपने धर्म और समाजसे ही कुछ सहानुभूति उद्देश्य रहा हो, परन्तु ब्रह्मचारीजीने उसके जो रखते हैं और न देशसे । राजनीतिक और २५ अक्टूबर सन् १८९९ को निश्चित किये हए सामाजिक दोनों ही क्षेत्र उनसे खाली पड़े हैं। ४ उद्देश्य प्रकाशित किये हैं तथा सन् १९००के वास्तवमें उनके प्रेम और उत्साहके अभावसे ही जो ३ प्रस्ताव दिये हैं, उनसे तो यह कदापि मण्डलको सफलता नहीं मिल रही है । यदि सिद्ध नहीं होता कि एसोसियेशन दिगम्बरजैन- दश बीस शिक्षित युवक अब भी कमर कसके समाजके लिए ही स्थापित हआ था. यद्यपि उस खड़े हो जाये, तो मण्डल वह काम कर सकता समय उसके सारे मेम्बर दिगंबरी ही थे। उद्दे- है जो अबतक किसी भी संस्थाने नहीं किया श्योंमें या प्रस्तावोंमें एक भी शब्द ऐसा नहीं है है। हम ब्रह्मचारीजीसे पूछते हैं कि आपकी जो उसके दिगम्बपिनको सिद्ध करता हो। और महासभाका तो कोई भी उद्देश्य नहीं मारा गया यदि थोड़ी देरके लिए यह भी मान लिया जाय है, फिर उसे सफलता क्यों नहीं हो रही है ? कि पहले यह मण्डल शुद्ध दिगम्बरी ही था. उसकी दुर्दशाका भी क्या यही कारण नहीं है तो भी इससे क्या यह सिद्ध हो गया कि कि उसमें उत्साही काम करनेवाले नहीं हैं ? उसका दिगम्बर-श्वेताम्बर-स्थानकवासी इन भारतजैनमहामण्डल कुछ काम कर रहा तीनों जैन सम्प्रदायोंकी उन्नति करनेका वर्त- है या नहीं, यह दूसरी बात है, पर इसमें For Personal & Private Use Only Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MASAIRATIALA जैनहितैषी सन्देह नहीं कि उसका यह उद्देश्य कि तीनों अपनं श्वेताम्बरी-स्थानकवासीभाइयोंसे द्वेष न सम्प्रदायोंमें पारस्पारिक सहानुभूति बढ़ाई जाय करके उनके साथ प्रेम और सहानुभूति रक्खे । और एकताका प्रचार किया जाय, बहुत ही ४ स्वयंवर पद्धतिसे विवाह । अच्छा है। उसका यह उद्देश्य कट्टरसे कट्टर दिग . बाबू अवधविहारीलालजी, मास्टर जिला म्बरी श्वेताम्बरी या स्थानकवासीको भी बुरा , स्कूल बदायूँ, अपनी कन्याका विवाह-जिसकी नहीं लग सकता । सहानुभूति या एकताका अवस्था १४ वर्षकी है-आगामी वर्ष स्वयंवर मतलब यह नहीं है कि तीनों मिलाकर एक कर पद्धतिसे करना चाहते हैं । वे जातिके श्रीवादिये जायँ, यह कभी हो भी नहीं सकता । स्तव कायस्थ हैं । किसी भी शाखाके कायस्थमतलब यह है के तीनोंमें जो पारस्परिक युवक-जिनकी उम्र २०-२५ वर्षकी हो और द्वेष बढ़ रहा है, वह मिट जाय और जो काम जो कमसे कम मैट्रिक पास हों-इस. स्वयंवरमें एक साथ मिलकर किये जा सकते हैं वे किये उपस्थित हो सकते हैं । कन्या सुन्दरी, बुद्धिजायँ । शिक्षाप्रचार आदिके ऐसे एक नहीं मती, संस्कृतकी प्रथम परीक्षा पास, और गृहसैकड़ों कार्य हैं जो जुदे जुदे धर्मविश्वासोंको कार्यनिपुणा है । आगत युवकोंमेंसे वह जिसे रखकर भी एक साथ किये जा सकते हैं। एक १ पसन्द करेगी उसके गलेमें वरमाला डालेगी मण्डल ही ऐसी संस्था है जो इस उदार उद्देश्यका और फिर उसके साथ उसका विवाह हो जायगा। समाने रखकर काम कर सकती है। यदि वह पाणिप्रार्थियोंको कन्याके पितासे पत्रव्यवहार AR काम करे तो जनजातिके लिए एक सबसे बढ़ करना चाहिए । इत्यादि । इस समाचारको प्रकाकर गौरवकी चीज बन सकती है । ब्रह्मचारी- शित करके सहयोगी जातिप्रबोधक लिखता हैजीको उसे 'दिगम्बर संस्था' बनानेकी कोशिश " इस संवादसे हमको अपार हर्ष हुआ और न करना चाहिए । यदि अँगरेजी पढ़े हुए लोगों- हम उस दिनकी प्रतीक्षा करते हैं कि जब हमारी की दिगम्बर संस्थाकी उन्हें आवश्यकता ही जातिमें भी फिरसे इस प्राचीन रीतिका रिवाज हो तो वे 'श्वेताम्बर ग्रेज्युएट एसोसियेशन ' के हो । गार्हस्थ्य सुखसे जो आजकल प्रायः लोग समान एक जुदी 'दिगम्बर जैन ग्रेज्युएट एसोसि- वंचित हैं, उसका मूल कारण यह है कि पतियेशन' स्थापित कर सकते हैं और उससे अपनी पत्नीका स्वभाव नहीं मिलता।......जबतक इच्छानुसार केवल दिगम्बरजैन समाजकी ही दोनोंका स्वभाव नहीं मिलता, गृहस्थकी गाड़ी उन्नति करा सकते हैं । जिसतरह जुदे जुदे सम्प्र- ठीक नहीं चल सकती और दोनोंका स्वभाव दायों और जातियोंकी जुदी जुदी संस्थाओंकी उसी अवस्थामें मिल सकता है कि जब दोनों जरूरत है, उसी तरह ऐसी संस्थाओंकी भी एक दूसरेको जानते हों और उन्होंने अपनी जरूरत है जो कई सम्प्रदायों और जातियोंमें हार्दिक इच्छासे एक दूसरेसे विवाह किया हो । प्रम और सहानुभूति बढ़ानेका संदेशा सुनाती माता पिता द्वारा निश्चित किया हुआ सम्बन्ध हों । काम सब ओरसे होना चाहिए । जिस सुख और शान्तिके स्थानमें प्रायः अशान्तिका तरह दिगम्बर जैनसमाजकी और और बातों- कारण होता है । कारण कि सम्बन्ध करते समय में उन्नति करनेकी आवश्यकता है, उसी प्रकार उनकी दृष्टि एकदेशी होती है । सब बातोंकी उसे यह सिखलानेकी भी जरूरत है कि वह ओर उनका ध्यान नहीं जाता।" स्वयंवर हमारे For Personal & Private Use Only Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ALLAIMILIMELIMMEDIA विविध प्रसङ्ग। ammEDIREMEETimim देशकी पुरानी प्रथा है, उसकी प्रशंसाका प्रभाव पतिका आदर्श गुण शौर्य था, बल था और यह हमारे चित्तोंपर जम रहा है । इस लिए उसके एक ही गुण उनकी दृष्टिमें उनके सुखी होनेके उद्धारकी बात सुनकर आनन्द होना ही चाहिए; लिए काफी था । इस स्वयंवरमें भी कन्या जिस परन्तु विचारपूर्वक देखनेसे मालम होगा कि गुणको विशेषतासे पसन्द करती हो उस माता पिता द्वारा किये हुए विवाहोंमें जिस स्वभाव गुणमें जो युवक श्रेष्ठ समझा जायगा, वही न मिलने की शिकार त सहयोगी करता है, उसकी वरमालाका आधिकारी होगा, इस प्रकारकी शर्त संभावना इस स्वयम्वर में भी रहेगी । स्वयंवर रहना चाहिए । अस्तु । हमारी समझमें हमारा सभामें वह लड़की आधिक से अधिक यह देख सकती लक्ष्य स्वयंवर या माता पिता द्वारा चुना हुआ है कि वर सुन्दर है, हृष्ट पुष्ट है, शिक्षित है और वर और प्राचीन पद्धति या नवीन पद्धति न सुभाषी है। स्वभावकी परख बिना कुछ दिन . होकर यह होना चाहिए कि जिस पद्धतिसे योग्य तक साथ रहे कैसे होगी ? और यह बिल्कुल - वर और योग्य कन्याओंका दानोंकी सम्मातके सच है कि स्वभाव मिले बिना सन्दरसे सन्टर अनुसार, सुखकर सम्बन्ध हो सके वही पद्धति और हृष्टपुष्ट पुरुषसे भी स्त्रीको सुख नहीं मिल सबसे अच्छी है और उसीका प्रचार होना सकता है । चतुर और विचारशील मातापिता चाहिए। इस प्रकार के स्वयंवरके बिना भी इससे कहीं ५ थियोसोफिकल सुसाइटीका कार्य । अच्छा चुनाव कर सकते हैं । वे पढ़ने-लिखने- इस सुसाइटीकी स्थापना सन् १८७५ में हुई की योग्यता, सुन्दरता और स्वस्थताके सिवाय थी । सारी दुनिया भरमें इसके अनुयायी मौजूद थोड़ेसे परिश्रमसे वरकी चाल चलनका भी पता हैं यद्यपि उनकी संख्या कम है । सारी दुनियाके लगा सकते हैं और यह भी जान सकते हैं कि थियोसोफिस्टोंकी संख्या २५६९६ है और उनकी लड़की उसे पसन्द करती है या नहीं। भारतवासी थियोसोफिस्टोंकी ५९३६ । इतने कम पर उक्त स्वयंवरमें इस प्रकारकी सावधानी होना होकर भी ये लोग काम खूब कर रहे हैं। काशीका कठिन है । न जाने कहाँ कहाँके अपरिचित सेन्ट्रल हिन्दू कालेज थियोसोफिकल सुसाइटीके युवक आवेंगे जिनकी चालचलन और स्वभाव ही परिश्रमका फल था जो अब हिन्दू विश्वआदिके विषयमें कुछ भी ज्ञान न होगा विद्यालयको दे दिया गया है। इसके सिवाय और लड़की अपनी १४ वर्षकी छोटीसी अनु- उसके दो कालेज और हैं,-एक लड़कोंका अडिभवहीन एकदेशी बुद्धिके द्वारा उनमेंसे किसी यारमें और दूसरा लड़कियोंका काशीमें । हाई एकके हाथमें अपने जीवनकी बागडोर पकड़ा स्कूलोंकी संख्या ८ है । ८ प्राइमरीस्कूल, १ मिडिल देगी । कौन कह सकता है कि वह इस स्कल और १ संस्कृतस्कूल भी सुसाइटी चलाती है । युवकको पाकर सचमुच ही सुखी होगी ? पूर्व शिक्षाके सिवाय धार्मिक, सामाजिक और राजकालके स्वयंवरोंसे इस स्वयंवरका मिलान नहीं नीतिक क्षेत्रोंमें भी सुसाइटीने आशासे अधिक हो सकता । द्रौपदी, सीता आदिके स्वयंवरोंमें कार्य किया है। हमारे जैनसमाजके शिक्षिताको कन्याओंकी इच्छानुसार शर्ते की जाती थीं कि जो ससाइटीके मेम्बरोंकी थोड़ीसी संख्या और उसके लक्ष्य वेध करेगा या धनुष तोड़ेगा, उसके गलेमें कामके साथ अपनी संख्या और अपने कामोंका वरमाला पड़ेगी । द्रौपदी और सीताकी दृष्टिमों मिलान करके देखना चाहिए। For Personal & Private Use Only Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ BIHARIWARI जैनहितैषी ६ आर्यसमाजके प्लेटफार्मपर जैनधर्मका हम लोग हैं जिनके प्लेटफार्मोपर-दूसरे धर्म___ व्याख्यान । वालोंके तो क्या अपने ही धर्मके माननवालोंकेगुरुकुल कांगड़ीके गतवार्षिकोत्सवके समय यदि वे अपनेसे जरा भी विरुद्ध विचार रखते हैंआर्यसमाजके प्लेटफार्म पर स्याद्वादपाठशाला काशी- व्याख्यान नहीं हो सकते हैं और एक वे हैं जो के धर्माध्यापक पण्डित उमरावसिंहजीका एक अपनी सभाओंमें दूसरे विद्वानोंको आदरपूर्वक व्याख्यान हुआ था जिसमें पण्डितजीने जैन- बुलाते हैं और उनके विचारोंसे लाभ उठानेका धर्मके अनुसार ईश्वरका स्वरूप निरूपण किया प्रयत्न करते हैं। था। जैनमित्रके सम्पादक महाशयने इस विष- ७ एक जैनविधवाके कन्याजन्म । यमें पण्डितजीकी बहुत प्रशंसा की है और उनके बारामती ( पूना ) के संभवतः हूमड़जातीय साहसको बहुत बड़ा बतलाया है । लिखा है शाह माणिकचन्द बालचन्दजी जैनकी भावजकेकि “ इतना बड़ा साहसका काम कि आर्य- जो दशवर्षसे विधवा है-हाल ही एक लड़की समाजियोंके जल्सेमें उनके विरुद्ध सिद्धान्तका उत्पन्न हुई है । जिस समय उक्त विधवा गर्भविवेचन सबको सुनाया, पर अति दुःखकी बात वती थी, उस समय किसी सज्जनने इसकी है कि किसी भी जैनपत्रने उनके इस कार्यकी सूचना कोर्टको दे दी थी, इस लिए कोर्टने सराहना नहीं की और न उनके दिलको बढ़ाया।” उससे जामिन ले ली थी कि वह किसी प्रकार पण्डितजीका व्याख्यान यदि अच्छा हुआ है, गर्भपात न कर डाले । इससे बेचारी लड़कीकी यदि उसमें ऐसी बातें कही गई हैं जो कुछ विशे- जान बच गई, वह सुखपूर्वक प्रसूत हुई । सहषता रखती हैं तो अवश्य ही उनकी प्रशंसा हो योगी जैनबोधक इस विषयमें बड़े ही मजेकी नी चाहिए; पर केवल इसी लिए कि उन्होंने बात लिखता है कि बारामतीके पंच इस बातकी आर्यसमाजके प्लेट फार्म पर व्याख्यान दिया, चिन्तामें हैं कि यदि कोई आदमी इस बातको प्रशंसाका कार्य हो गया, यह हम नहीं मान कहे कि उक्त विधवाने अपराध किया है तो हम सकते। हमारी समझमें यह बात नहीं आई उस विधवाको जातिसे खारिज करें या उसे कि इसमें पण्डितजीका साहस क्या हुआ। आर्य- दण्ड देवें; परन्तु भयके मारे कोई तैयार ही नहीं समाज प्रतिवर्ष अपने जल्सोंपर जुदा ज़दा होता है और बेचारे पंच यह सब जानते हैं कि धर्मोके विद्वानोंको निमंत्रण देकर बुलाता है जो दश वर्षसे विधवा है, उसके बिना पराये और अपने प्लेट फार्म पर शौकसे उनके व्या- पतिके सहवास सम्बन्धके सन्तान नहीं हो सकती ख्यान कराता है । वह समझता है कि इससे है और सन्तान प्रत्यक्ष है; पर क्या करें, बिना हमारे ज्ञानकी वृद्धि होगी। उसे यह डर नहीं किसी कहनेवालेके तैयार हुए कहीं न्याय हो रहता है कि विधर्मियोंके व्याख्यान हमें अपने सकता है ? बलिहारी है ! इन्हीं पंचोंकी बुद्धि धर्ममें शिथिल कर देंगे। पण्डितजी भी इसी और न्यायपटुताके भरोसे हम कहा करते हैं कि तरह जैनधर्मकी कुछ बातें सुनानेके लिए निमं- हमारी पंचायत संस्था' बहुत अच्छी है। उसकी त्रित किये गये होंगे और उन्होंने अपनी बद्रिके न्यायशीलताके कारण हमारे यहाँ पाप नहीं अनुसार अपने विषयका प्रतिपादन किया होगा। होते, अन्याय नहीं होते और हमारी रगोंमें यह कोई वादविवादका या शास्त्रार्थ आदिका काम विशुद्ध रक्तका प्रवाह हो रहा है । सच नहीं था, जिसमें उनके साहसकी प्रशंसा की तो यह है कि हमारी और और संस्थाके जाय । हमारी समझमें तो इस समाचारको समान यह पंचायत-संस्था भी बिल्कुल सड़ गई पढकर हमें आर्यसमाजके साहसकी और उसकी है। जब तक हम इसका नये सिरेसे फिर संस्कार उदार नीतिकी प्रशंसा करनी चाहिए । एक तो नहीं करेंगे तब तक इससे कोई लाभ नहीं हो सकता। For Personal & Private Use Only Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ WAI तीर्थोंके झगड़े मिटानेका आन्दोलन । श्रीयुत सम्पादक महाशय- जैनहितैषी,' आपके पाठकोंको स्मरण होगा कि 'हितैषी' वर्षीय दिगम्बरजैनतर्थिक्षेत्रकमेटीके महामंत्री के गतांकमें-ठीक क्षमावनीके पवित्र दिनको-एक लाला प्रभुदयालजीने एक पेम्फलेट मेरी अपीलके समग्र जैनसमाजके कल्याणकारी आन्दोलनका विरुद्ध हाल ही प्रकाशित किया है। यह लेख मैंने प्रारंभ किया गया था । उक्त अंकमें एक अपील- उसीको पढ़कर लिखा है । मुझे आशा है कि आप जिसका कि शीर्षक तीर्थोके झगड़े मिटाइए' इसे इसी अंकमें प्रकाशित करनेका प्रयत्न करेंगे। था-की गई थी और उसकी कई हजार प्रतियाँ [यद्यपि निम्नलिखित लेख दिगम्बरी हिन्दी और गुजराती भाषामें जगह जगह पहुँ- भाइयों और इसके बादका दूसरा लेख * चाई गई थीं । इसके सिवाय पत्रव्यवहारद्वारा, श्वेताम्बरी भाइयोंको उद्देश्य करके लिखा गया पर्यटन द्वारा और मुलाकात आदिके द्वारा है, तथापि दोनों ही लेख दिगम्बर-श्वेताम्बर भी इस विषयमें जो कुछ प्रयत्न बन सकता दोनों ही सम्प्रदायके भाइयोंके लिए एक सरीखे था वह किया गया था, किया जा रहा है और उपयोगी हैं । दूसरा लेख श्वेताम्बर 'जैनकाआगे भी किया जायगा। मेरी समझमें किसी न्फरेंस हेरल्ड' के खास अंकमें प्रकाशित हुआ है भी अपीलकी या आन्दोलनकी सफलताकी और हेरल्डके विद्वान सम्पादकने एक स्वतन्त्र आशा तब की जानी चाहिए जब दूसरी नाट द्वारा उसका अनुमोदन किया है। ] ओरसे भी उसकी प्रतिध्वनि उठे-उससे मिलती हुई या उससे विरुद्ध आवाज सुनाई अज्ञानताके मायाजालसे बचो। पड़े। यह जानकर मुझे बहुत सन्तोष हुआ धर्म, सत्य, सम्यक्त्व, ये शब्द कितने मधुर है और मेरे उत्साहमें खूब ही वृद्धि हुई है कि हैं। पृथिवीके प्रत्येक मनुष्यको इन तत्त्वोंकी मेरी उक्त अपीलकी प्रतिध्वनि एक तरफसे नहीं आवश्यकता है और इन्हींकी खोज तथा प्राप्तिके किन्तु दो तरफसे उठी है । एक ओरसे तो मुझे लिए प्रत्येक मनुष्य व्याकुल रहता है । परन्तु दिगम्बर-श्वेताम्बर धनिकों, लेखकों, व्याख्या- प्रकृतिका यह एक नियम है कि जो चीज ताओं और साधारण पुरुषोंके सैकड़ों सहानुभूति- जितनी ही अधिक कीमती होगी, उसकी प्राप्तिमें दर्शक पत्र और कितने ही त्यागी महात्मा कठिनाइयाँ भी उतनी ही अधिक होंगी । कोई और मुनियोंकी विना माँगी सहानुभूति प्राप्त भी कीमती चीज अनायास ही, दुःख सहन किये हुई है और दूसरी ओरसे एक विरुद्ध पक्ष बिना, प्राप्त नहीं होती । तदनुसार धर्म, सत्य भी मेरे सम्मुख कमर कसके खड़ा हुआ है। और सम्यक्त्व ये सहज ही प्राप्त होनेवाली इसकी जरूरत भी थी। क्योंकि सत्यका यथा- दसरा लेख आगामी अंकमें प्रकाशित किया थेस्वरूप फैलानेमें विरुद्ध पक्ष बहुत बड़ा सहायक जायगा । स्थानाभावके कारण हम उसे इस अंकमें होता है। आपको मालूम हुआ होगा कि भारत- प्रकट न कर सके। -सम्पादक । For Personal & Private Use Only Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ mum जैनहितैषी वस्तुयें नहीं हैं । अधर्म, असत्य और मिथ्यात्व जाता है । केवल वशीभूत ही नहीं हो जाता है किन्तु नामके तत्त्व सुन्दर आकर्षकरूप धारण करके, अपनी इस निर्बलताको छुपानेके छिए उस कषायप्रमादी मनुष्यको भुला देते हैं और उसे युक्ति- परिवारको भी सुन्दर मोहक स्वरूप और प्रभावप्रयुक्तियोंसे अपने वशमें करके, अपना गुलाम शाली नाम दे देता है और यह बतलाना चाहता है बनाके, उस पर अत्याचार करते हैं । मनुष्योंका कि “मैं निर्बल नहीं हूँ, सबल हूँ, मैं कषायके बहुत बड़ा भाग इसी अवस्थामें पड़ा हुआ है। वशीभूत थोडे ही हुआ हूँ किन्तु मैंने धर्मपालनके बड़े भारी खेदकी बात यह है कि जो मनुष्य लिए कषायको केवल एक अस्त्र बना लिया है!" अधर्म और असत्यकी गुलामी चिरकालसे करता वह कहता है कि “यह मैं मानता हूँ कि आ रहा है, वह चाहे जितना ही ख्वार क्यों न क्रोध करना, लड़ना, फूट डालना, वैर निकालना, हो जाय, तो भी, बहुत समयके परिचयके आदि सब बातें पाप हैं; परन्तु मैं तो सच्चे कारण, इन 'खूबसूरत बला' ओंको ही अपनी धर्मकी रक्षाके लिए, एक हथियारके तौरपर इष्टदेवी मान लेता है और इन फँसानेवाली इन वृत्तियोंसे काम लेता हूँ । इस लिए इसमें बलाओंको ही 'सत्यकी रानी' माननेके कोई हानि नहीं है । इससे तो मुझे उल्टा धर्मलिए औरोंको भी समझानेका यत्न करता रक्षाका महान् पुण्य-बन्ध होगा । इस लिए हे है। ऐसी परिस्थितिमें, सत्यकी देवीको खोज नि- भाइयो! तुम भी मेरा मार्ग धर लो और कषायकालनेका काम, बहुत ही दुष्कर हो जाता है। सेवनमें लग जाओ । प्यारे भोले भाइयो ! तुम्हारे उसको पानेका मार्ग है भी बहुत कठिन, ऐसे आगे कुछ थोड़ेसे लोग दयाकी, शान्तिकी, सममनुष्य उस पर चल ही नहीं सकते हैं जो झौतेकी, क्षमाकी, उदारताकी, भलमंसाहतकी पग पग पर लुभा जाते हों या उत्तेजित हो और एकताकी मीठी मीठी बातें कर रहे हैं, पर जाते हों। सत्यदेवी अपने उम्मेदवारोंको उच्च सावधान! तम इनसे बचे रहना, नहीं तो ये चारित्रकी कठिन कसौटी पर कसती है, दुःख तुम्हें बिल्कुल पुरुषत्वहीन बना देंगे । ये क्षमा देती है और दुःख सहन करनेपर जो उम्मेदवार दया आदि सब गुण केवलज्ञानियों, तीर्थकरों उच्च चारित्र (क्षमा, दया, नम्रता आदि ) को और मुनिजनोंके लिए ही हैं; हम लोग तो पंचसम्पूर्ण रीतिसे, हरतरहका त्याग करके, पाल मकालके मनुष्य हैं, इस लिए हमारे लिए तो सकता है उसे ही दर्शन देती है। लड़ना, झगड़ना, ईर्षा करना, भड़काना, भाईधर्मका आधार चारित्र अथवा सदाचार है। भाईका अहित चाहना, जैसे बने तैसे सर्वोपरि कषायोंको दबाये बिना सदाचार नहीं बन , - बनना, धर्मके नामसे युद्ध करना, 'रक्षा' के सकता और जब तक कषायें म लिए 'हिंसा' करना, झूठी गवाहियाँ तैयार हैं तबतक आत्माका कल्याण नहीं हो सकता। करना, अपनी वैरवृत्तिको तृप्त करनेके लिए इसलिए धर्मका प्रथम उपदेश यह है कि अज्ञानी जनोंको उत्तेजित करना और उनकी कषायोंको दबाओ, कषायोंको मन्द करो। अज्ञानतासे लाभ उठाकर उनके रुपयोंसे युद्ध परन्तु क्रोध, वैर आदि, जो कषायोंका परि- करना-पराये पैसोंसे दिवाली' मनाना, यही धर्म वार है, वह इतना बलवान है कि मनष्य उससे पानको सार्थकता है। . डर जाता है और शीघ्र ही उनके वशीभूत हो खेदकी बात है कि मिथ्यात्वका यह उपदेश For Personal & Private Use Only Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थों के झगड़े मिटानेका आन्दोलन । अज्ञानी जनों पर बहुत ही जल्दी असर कर जाता है । क्योंकि जनसाधारणकी सदसद्विवेकबुद्धि या अच्छे बुरे को पहचान सकनेकी शक्ति मन्द होती है; वे आजकल के 'धर्मात्मा' कहलानेवाले लोगों के मुँह से निकले हुए शब्दों को ही सत्य मान लेते हैं । वे यह नहीं जानते अपना हित मनुष्य आप ही कर सकता है; जब तक अपनी हिताहित समझने की बुद्धिका विकाश नहीं होगा तब तक मिथ्यात्वके मोह उपजानेवाले प्रपंचोंसे उसकी रक्षा नहीं हो सकेगी । इसी कारण शास्त्रकार कहते हैं कि पंचम - कालमें सम्यग्ज्ञान या सत्यज्ञानकी प्राप्ति अतिशय कठिन है । एक तो मनुष्यमें अपना हिताहित सोच सकनेकी यों ही कमी है, पराये उपदेशों पर विश्वास रखके ठगाये जानेका स्वभाव ही विशेष है और दूसरे मिथ्यात्वरूपी शैतानका बल इतना बढ़ा चढ़ा हुआ है कि उसने अपनी लुभानेवाली - आकर्षक - जनसाधारणको मोहित कर डालने की कलाका जाल लगभग सारे संसार में फैला रक्खा है । तो भी, जिन्हें अपने धर्मकी- अपने आत्मा के रक्षणकी सचमुच ही चिन्ता है, उन्हें निराश न होना चाहिए । सत्यका कुछ लोप नहीं हो गया है, केवल उसके ऊपर स्वार्थसाधु अज्ञानी या हठी लोगोंने परदा डाल रक्खा है । इस पर - देको अपनी बुद्धिरूपी पैनी छुरीसे काट डालने - की जरूरत है । जो लोग ऐसा करेंगे उन्हें सत्य - देवी - धर्म - दर्शन अवश्य होंगे । " मार्ग एक ही है, ' हाँ, सचमुच एक ही है और वह यह है कि वीतराग अर्थात् रागद्वेषरहित महा पुरुषोंके उपदेश किये हुए शास्त्र आप स्वयं ही वाँचिए, स्वयं ही समझिए और जो रागद्वेषका उपदेश देते हों, उनका उपदेश सुननसे साफ इंकार कर दीजिए । वीतरागता प्राप्त करना ही प्रत्येक मनु ५११ ष्यका लक्ष्यबिन्दु होना चाहिए और मनुष्य, चाहे वह संसारी हो चाहे गृहत्यागी, उसे रागद्वेष कम करते जाने का ही उद्यम करते रहना चाहिए । 'त्यागियों को रागद्वेषसे दूर रहना चाहिए और संसारियोंको रागद्वेष के कीचड़ में फँसना चाहिए, ' ऐसे महा अनर्थकारी उपदेशोंसे बचिए ! यदि तुम इसे सुनोगे तो याद रक्खो फँस जाओगे । इसलिए साहसी बनो, आत्मबलको स्फुरायमान करो, मिथ्यात्वसे डरो, और रागद्वेष बढ़ानेवाली तथा धर्मके नामसे झगड़ा फसाद करनेवाली फिलासफी बतलानेवालोंसे दूर रहो । यदि तुम ज्ञानका प्रकाश चाहते हो, तो वह अज्ञानके अन्धकार में जानेसे नहीं मिलेगा । वीतरागता या मुक्ति चाहते हो, तो वह लड़ाई-झगड़ों और द्वेष - वैरों में कभी नहीं मिलने की । जो दुनियादारी में लाचार होकर रागद्वेष करते हों, उन्हें भी धर्म के कार्यों में तो रागद्वेषके दूर करनेका ही उद्योग करना चाहिए कि जिससे धीरे धीरे समभावका अभ्यास बढ़ता रहे और समय आने पर दुनियादारीमें भी रागद्वेषरहित आचरण हो सके । भाइयो ! मुक्ति के इच्छुको ! यदि तुम तत्त्वज्ञानकी गहरी बातें नहीं समझ सकते हो तो न सही; पर रागद्वेषको कम करनेका अभ्यास डालने की ओर अवश्य ध्यान रक्खोयदि केवल इसी एक बात को स्मरण रक्खोगे तो तुममें सारे सद्गुण और सारे ज्ञान एक न एक दिन जागरित हुए बिना न रहेंगे । जैन समाज में तीर्थोंके सम्बन्धमें जो झगड़े चल रहे हैं उनको शान्त करने के लिए गत पर्युषण पर्व के समय, कितने ही दिगम्बर - श्वेताम्बर सज्जनोंकी सहानुभूतिसे एक निर्दोष आन्दोलन इस लेखक ने उठाया था, जिसका स्वरूप हितैषीके गत अंकमें विस्तार के साथ समझाया गया है और इस ढंगसे समझाया है कि उसमें किसी For Personal & Private Use Only Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१२ जैनहितैषी प्रकारका भ्रम या सन्देह नहीं रह सकता। है। इसीके प्रभावसे ही हमारे शान्तिप्रचारक उक्त लेखमें यह कहीं भी नहीं लिखा गया है आन्दोलनके सामने लालाजी या उनके लेखक कमर कि अमुक पर्वतराज पर दिगम्बर भाइयोंको कसके खड़े हो गये हैं और करोड़ों पंचेन्द्रिय अपनी पद्धत्यनुसार पूजन करनेका हक नहीं जीवोंकी हिंसा करनेवाले वर्तमान यूरोपीय युद्धकी मिलना चाहिए। ऐसी सलाह भी नहीं दी गई स्पष्ट शब्दोंसे अनुमोदना कर रहे हैं । जब ईसाई है कि उन्हें अपना हक छोड़ देना चाहिए । धर्मके पादरी अपने ईश्वरसे यह प्रार्थना करते सम्मेदशिखरके या अन्य किसी तीर्थके मुकद्दमे- हैं कि "हे ईश्वर ! दोनों पक्षोंको सुमति सूझे और में दिगम्बरयोंका दोष है, इस प्रकारका एक शीघ्र ही इस युद्धिकी शान्ति हो,' तब दिगम्बरशब्द या इशारा भी लेखभरमें नहीं है। जैनधर्मके अनुयायी लालाजी प्रचार करते हैं कि दिगम्बरसम्प्रदायको छोड़ दो, या दिगम्बर “क्या आप कह सकते हैं कि सत्यकी विजपूजाविधिको बदल डालो, इस प्रकारकी यके लिए यह रुपया खर्च करना और मूर्खतापूर्ण सूचना भी मैंने नहीं की है । मनुष्यहानि करना व्यर्थ है या अन्याय है ? कभी इस प्रकारके खयालोंको मैं पसन्द भी नहीं नहीं।" देखा लालाजीका सत्यका शास्त्र ? करता हूँ। तो भी लाला प्रभुदयालजीने या आप रागद्वेषरहित जिनदेवके भक्तोंको और उनके नामसे किसी और 'धर्मात्मा' ने एक सारी दुनियाको यह सिखलाने के लिए तयार पेम्फलेटके द्वारा दिगम्बरी भाइयोंका भड़का- हुए हैं कि लाखों मनुष्योंकी हत्या करनेसे सत्यका नेका प्रयत्न किया है और समग्र दिगम्बर-श्वेता. विजय होता है ! लालाजी यदि यह भी बतला म्बर समाजकी निःस्वार्थ सेवा करनेके लिए देनेकी कृपा करते कि जिस सत्यके लिए आप उद्यत हुए सज्जनोंपर-जिनकी मेरे लेखमें मनुष्योंके संहार करनेका हक माँगते हैं उस सहियाँ हैं-अनेक दोष लगाये हैं। इतना ही सत्यकी व्याख्या और स्वरूप क्या है, तो नहीं, लालाजीने दिगम्बर भाइयोंको यह सिखा- अच्छा होता । क्या जो कुछ आप कहते हैं वही पन भी दिया है कि लड़नेमें ही धर्म है, 'सत्य' है ? प्रत्येक युद्ध में लड़नेवाले दोनों ही अच्छी तरहसे लड़ो, खूब लड़ो, शक्ति भर धन पक्ष अपनी अपनी बातको ‘सत्य' कहते हैं । एकट्ठा करके लड़ो और जो लोग लड़नेके बदले यदि इस तरहके 'सत्य' के लिए अर्थात् — स्वयं शान्तिके साथ न्याय करानेकी सलाह देते हैं माने हुए सत्य ' के लिए ही एक मनुष्यको उनके साथ भी लड़ो! पर मैं इसमें बेचारे दूसरे मनुष्यकी जान लेनेका हक मिल जाय, लालाजीको दोष नहीं दूंगा । इस समय तो फिर समझ लेना चाहिए कि प्रत्येक राज्य, संसारभरमें युद्धकी हवा बह रही है और प्रत्येक समाज, प्रत्येक जाति और प्रत्येक व्यक्तिको जहाँ तहाँ “ लड़ो-मारो-काटो, बदला लो, खून करने और रुपया उड़ानेका हक मिला हुआ मिट्टीमें मिला दो" यही शब्द सुन पड़ते हैं। है; क्योंकि कभी न कभी तो इनका दूसरे राज्य, अतः जान पड़ता है कि इसी प्रबल भावनाका समाज, जाति और व्यक्ति के साथ किसी न किसी प्रभाव जैन जैसी शान्त, रागद्वेषको नष्ट करनेमें विषयमें झगड़ा हो ही जाता है । परन्तु यदि ऐसा ही धर्म माननेवाली और शत्रु पर क्रोध न हक मिल जायगा, तो दुनियामें शायद एक भी करनेकी टेव रखनेवाली कौम पर भी पड़ गया मनुष्य जीता नहीं रह सकेगा-आदमीको आदमी For Personal & Private Use Only Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ATMAH A ROLOBALHOMBREATHER तीथोंके झगड़े मिटानेका आन्दोलन खा जायगा; पर बेचारे लालाजीमें इतनी बात. दिगम्बर बनकर जंगलमें जा बैठिए । इससे सोचनेकी बुद्धि कहाँ ? आपको बड़ेसे बड़ा धर्मलाभ होगा जिसे कि तीर्थोके मामले में दिगम्बरसमाजने एक पक्ष आप बिना माँगे ही समाजको देनेके लिए तैयार लिया है और श्वेताम्बरसमाजने दूसरा । दिग- हो गये हैं ! समाजको आपकी सम्मति नहीं म्बर समाजका दावा है कि अमुक तीर्थ हमारा चाहिए। बातमी चाहिए । अपना घर खाली करके आपके समान है और यही उसका 'सत्य' है, इसी प्रकार पराई पूजीसे बहादुर बननेकी उत्कण्ठा रखनेवाश्वेताम्बरसमाज दावा करता है कि अमक तीर्थ लोंके हाथके खिलौने बननेके लिए लोग तैयार हमारा है और यही उसका 'सत्य' है। पाठक नहा। - नहीं हैं। देखेंगे कि यहाँ 'सत्य' का कोई एक खास लालाजी इस प्रकारका डौल बनाते हैं मानों स्वरूप नहीं है । अर्थात् दोनों अपने अपने दावेको आप सत्यकी रक्षा करनेके लिए ही कमर कसके सत्य बतला रहे हैं । ऐसी दशामें इस स्वयं तैयार हुए हैं; परन्तु आपका 'सत्य' स्वयं माने हुए ' सत्यके लिए लड़ना- भोले भक्तोंके आपका ही माना हुआ सत्य है, न कि वास्तरुपयोंको उडाना और वैरविरोधको पष्ट करके विक अथवा सार्वजनिक सत्य; और इस सत्यकी समाजको निचोड डालना, सर्वथा अन्याय है। रक्षाके लिए किये जानेवाले युद्धका स्वरूप भी इसके विरुद्ध क्षमा, नम्रता, भ्रातृत्व, मैत्री आदि आपहीने अपनी ही पद्धतिसे अर्थात् हिंसक सार्वकालिक, सर्वसम्मत और समस्त जीवोंके लिए आशयसे खड़ा किया है । इस तरह लालाजीका एक से उपयोगी 'सत्य' हैं, इसलिए इन की 'लक्ष्य' दूषित है और उक्त 'लक्ष्य'तक पहुँचनेके रक्षाके लिए-अर्थात् ऐक्य, और सुखशान्तिरूप लिए उन्होंने जो ‘मार्ग' ग्रहण किया है वह सिद्धान्तकी रक्षाके लिए युद्ध करना । न्याय , भी दूषित है । जिसकी बुद्धि इतनी भ्रमित हो है; परन्तु यह युद्ध मारपीटसे नहीं किन्त सम- गई हो कि 'लक्ष्य' और 'मार्ग' दोनोंमेंसे झौतेसे, न्यायसे, लोकमत तैयार करनेरूप एक भी बातका वास्तविक निर्णय नहीं कर निर्दोष अस्त्रसे और लोगोंको अपनी निजकी सकती है, ऐसे मनुष्य पर हमें दया करनी बुद्धिसे विचार करनेकी सम्मति देनेरूप निरुपटव चाहिए और ऐसी भावना भानी चाहिए कि शस्त्रसे होग चाहिए । लालाजी ! हमारा यद उसे सुबुद्धिकी प्राप्ति हो। इसी प्रकारका है; लाखों मनुष्योंकी हत्या और अत: अब लालाजीको छोड़कर भगवान् महाकरोड़ों रुपयोंका स्वाहा करनेवाला आपका वीरके पुत्रों और वीतरागताके इच्छुकोंके सम्मख यद्ध आपको ही मबारक हो! आपको मैं नीचे लिखा खुलासा करता हूँ कि जिससे यदि हत्यामें और रुपया बरबाद कर- लालाजीके फैलाये हुए भ्रमजालकी असत्यता नेमें ही धर्मलाभ दिखता हो, तो आप अपना यह आप-ही-आप समझमें आजाय और इस कुपथसे सिद्धान्त अपने ही घरमें चलाइए; इसकी दूसरों बचनेकी बुद्धि प्रत्येक जैनभाईको सूझे । पर आजमायश करनेकी आवश्यकता नहीं है ! १ दिगम्बर या श्वेताम्बर भाइयोंको आप घरद्वारवाले हैं, दूकानदार हैं, खुशीसे अपनी पूजापद्धति नहीं छोड़ना है। अपना घर द्वार बेच डालिए और अपना सारा देशके नेताओंसे 'न्याय' करानेकी जो सम्मति रुपया तीर्थरक्षाके लिए अर्पण कर दीजिए, पश्चात् दी गई है उसमें यह कहीं भी नहीं कहा गया है For Personal & Private Use Only Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१४ BLOOmam जैनहितैषी कि दोनों सम्प्रदायोंको एक ही रीतिसे पूजा बनानेके काममें करो । किन कामोंमें खर्च करनेके लिए तैयार होना चाहिए। मेरा कहना तो करना चाहिए और किनमें नहीं, इस बातका यह है कि सब लोग अपनी, अपनी पूजाविधि 'विवेक' करनेके लिए कहना अधर्म कदापि नहीं खुशीसे बनाये रक्खें , श्रद्धापूर्वक बनाये रक्खें हो सकता; किन्तु आँखें बन्द करके समाज और और अपनी अपनी पद्धतिसे पूजा करनेके कार्यमें, देशका बल तोड़नेमें धनकी और सो भी पराये इस समय जो अन्तराय आड़े आते हैं, वे धनकी बरबादी करना अवश्य ही अधर्म है; दूर हो जायँ और निर्विघ्नतापूर्वक अपनी अपनी बल्कि कहना होगा कि इसके समान धर्मद्रोही, रीतिसे पूजा होती रहे, इस प्रकारका मार्ग देश- देशद्रोही और समाजद्रोही कार्य दूसरा नहीं है। भक्त नेताओंके द्वारा ग्रहण करलेना चाहिए। शास्त्रोंके उद्धार और प्रचारका काम; न्यायलब्ध मैं इस बातको मानता हूँ कि यदि दिगम्बर-श्वे- धनसे उदर निर्वाह करना सिखानेवाली विद्याताम्बर अगुए स्वयं ही एकत्र होकर आपसमें ओंके साधन खडे करनेका काम; जबतक समानिबटेरा कर लें और ऐसा प्रयत्न करें जिससे जमेसे निरुद्यमता न निकाल दी जायगी तबतक किसी भी तीर्थ पर अपनी अपनी पद्धतिसे पूजा धर्माचरणोंका होना कठिन है, इसलिए निरुपाठ करनेमें किसी प्रकारका झगड़ा न होने द्योगिता मिटानेवाली संस्थायें खोलनेका काम; पावे, तो यह सबसे अच्छा मार्ग है और इसमें समाजकी कुरीतियाँ मिटाने के आन्दोलनका काम; दोनोंकी ही प्रतिष्ठा है; परन्तु कठिनाई यह है जबतक देश शान्ति, एकता, स्वाधीनता, और कि दोनोंही सम्प्रदायोंमें लालाजी जैसे मताग्रही धनधान्यकी पूर्णता न होगी, तबतक देशके और कलहप्रेमी महात्माओंकी कमी नहीं है। धर्मोकी भी रक्षा होना संभव नहीं है, इसलिए ऐसी दशामें तीसरेको बीचमें डाले बिना सफ- जो देशभक्त नेता देशकी स्थिति सुधारनेके लता नहीं हो सकती और इसी कारण भारतके लिए जी जानसे परिश्रम कर रहे हैं, उनके सबसे अधिक विश्वासपात्र, देशहितैषी और प्रयत्नमें तन-मन-धनसे सहायक बननेका काम; धर्मभावनायुक्त नेताओंको पंच बनाकर उनके इस तरहके न जाने कितने काम करना है। द्वारा फैसला करानेकी सूचना की गई है। इन सभी कामों में धनकी आवश्यकता है और २'लोभ के वश मुकद्दमा मिटानेकी यह सभी जानते हैं-देशी और विदेशी सभी अर्थ सूचना नहीं की गई। शास्त्रज्ञ एक स्वरसे कहते हैं कि भारत जैसा " तुम पैसे बचा रक्खो, लोभी बनो, धर्म निर्धन देश कोई भी नहीं है। अतः ऐसे निर्धरक्षाके लिए धनको क्यों बरबाद करते हो ?" न देशमें यदि किसीके पास थोड़ा बहुत धन इस तरहका इशारा भी हमारे लेखमें नहीं है। हो तो उस धनका केवल वही अकेला मालिक हमारे लिखनेका अभिप्राय तो यह था कि आज नहीं है, किन्तु सारा देश मालिक है, वह तो कल इस देशकी ऐसी दशा है कि “धनका केवल 'ट्रस्टी ' है। उस धनको स्वेच्छाचरिताटोटा है, उदारताकी कमी है " इसलिए जो पूर्वक आपसी युद्धोंके द्वारा देशको और भी अधिक थोडा बहत धन इस देशमें बच रहा है, उसका निर्बल बनानेके काममें उडानेका किसी भी उपयोग आपसी लड़ाई-झगड़ोंमें न करके संसा- भारतवासीको अधिकार नहीं है। मेरा वचन रको धर्ममय पवित्र और उच्चसंस्कारसम्पन्न किसीको सहन हो या न हो, और इसके लिए For Personal & Private Use Only Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थोके झगडे मिटानेका आन्दोलन । मुझे चाहे जो उपनाम दिया जावे, परन्तु मैं इस बातको अपनी सारी शक्ति लगाकर जोरके साथ कहूँगा कि जो भारतवासी धनी बनकर उस धनका उपयोग अपने निजी मौज-शौक में और लड़ाई-झगड़े करके देशकी दशा और भी आधिक शोचनीय बनानेमें करते हैं, उनके समान कोई मूर्ख, देशद्रोही और पापी नहीं है और जो लोग धनियों को सर्वोपयोगी धर्मसिद्धान्तों के प्रचार में और देशसेवा के अनेक कामों में धन खर्च करने की सलाह देनेके बदले इस प्रकार के धर्मयुद्धों में तथा आपसी लड़ाई-झगड़ोंमें खर्च करने के लिए उत्ते - जित करते हैं वे मनुष्य जातिके कट्टर शत्रु हैं । ३ अमुक पक्ष न्यायका उल्लंघन कर रहा है, इस प्रकारका दोष किसीको भी नहीं लगाया गया । हमारी अपील में यह कहीं भी नहीं कहा कहा गया है कि दिगम्बरोंने न्यायका उल्लंघन किया है । जो मनुष्य आपसमें फैसला करनेकी सलाह देने के लिए निकला है वह ऐसा कभी कह भी नहीं सकता कि झगड़ा किसने खड़ा किया और अमुक तीर्थका सच्चा हकदार कौन है | किसी प्रकारका आरोप और किसी प्रकारका जजमेंट ( फैसला ) देना उसका काम ही नहीं है । मैंने बड़ी ही सावधानीसे - इस तरहसे कि किसी एक भी पक्ष पर कोई आरोप न आवे - किसी के साथ ग़ैरइन्साफी न हो जाय - तटस्थ होकर अपील की थी कि छद्मस्थ होनेके कारण मनुष्य मात्र भूलका पात्र है । इस लिए एक पक्षसे भूल भी हो सकती है, तो भी दूसरे पक्ष को अपने भाई के साथ लड़ने के बदले आपस में ही समझौता कर लेना चाहिए। मेरा निजी और दृढ अभिप्राय यह है कि जिन शान्तिमय स्थानोंको अगणित आत्माओंके मोक्ष प्राप्त करने के कारण हम पवित्र ५१५ मानते हों उन स्थानों पर, जो जन्म से जैन हैं केवल उन्हींको नहीं किन्तु अन्य लोगों को भी - जो वहाँ आते हैं-दर्शन-पूजन ध्यान करनेका सुभीता होना चाहिए और यदि वे वहाँ दर्शन-पूजन करें तो इससे हमें प्रसन्न होना चाहिए । दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनोंको आपस में सलाह करके ऐसा प्रबन्ध कर डालना चाहिए कि दोनों ही अपनी अपनी पद्धतिसे निर्विघ्नतया पूजापाठ किया करें । परन्तु पूजनकी इस आवश्यकता की ओर और पूजनका अधिकार प्रत्येक मनुष्यको मिलना चाहिए इसकी ओर ध्यान देनेके लिए सरकारी कानूनमें गुंजायश नहीं है। कानून तो पहाड़को एक स्थावर सम्पत्ति मानकर उसका अधिकार किसी एक पक्षको दे देना, बस इतना ही मतलब रखता है । पर यदि हम देशभक्त अगुओं से अपना न्याय करावेंगे, तो वे धर्मको बाधा न पहुँचे और सच्चे हकदारकी मालिकी भी न जाय इन दोनों बातोंका खयाल रखकर कोई अच्छा मार्ग ढूँढ़ निकालेंगे | जिन लोगोंपर कानूनसे लड़नेकी ही धुन सवार है, उन्हें जानना चाहिए कि कानून केवल बुद्धिवादका परिणाम है, उसमें अभीतक धर्मभावनाका मेल नहीं हुआ है । मद्यपान और वेश्यागमन ये दो बहुत ही बड़े अधर्म और अनर्थ हैं, तो भी बुद्धिवादसे तैयार किया गया सरकारी कानून न वेश्याके धंधेको बन्द करता है और न शराब बेचना बन्द करता है । इसीलिए धर्म और कानून दोनों के अनुभवी अगुओंके द्वारा इन धार्मिक युद्धोंका फैसला करा लेना हमारे लिए विशेष कल्याणकारी है । इसके सिवाय जिन्होंने सम्मेद शिखरसम्बन्धी मामलोंपर बारीकी से विचार किया है वे जानते हैं कि यह मुकद्दमा 'प्रिवी कौन्सिल' तक जायगा, तो भी इस कलहकी समाप्ति होनेवाली नहीं है । इसके सम्बन्धमें ऐसी For Personal & Private Use Only Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AmARImammmmm जैनहितैषीHiftinimunting बहुतसी बातें मुझे मालूम हुई हैं जिन्हें उन्हें केवल तीर्थोकी मालिकी या पूजाके में प्रकट नहीं कर सकता; परन्तु इतना हकका ही निर्णय नहीं चाहिए, वे तो यह तो निस्सन्देह होकर कहा जा सकता है कि जजमेंट चाहते हैं कि दिगम्बरसम्प्रदाय ही प्रिवी कौंसिलसे फैसला मिल जानेपर भी सबसे पहला और सच्चा धर्म है और श्वेताम्बर अदालतोंके धक्के खानेका काम जैनोंके भाग्यसे पीछेसे निकला हुआ झूठा धर्म है और इस टलनेका नहीं । इस तरह वर्षोतक कष्ट भोगकर, बातका जजमेंट देनेकी लालाजी जितनी लाखों रुपयोंका पानी बनाकर, परस्पर एक दूस- योग्यता बेचारे देशके नेताओंमें कहाँ ? रेको निर्बल बनाकर, जब दोनों पक्ष थक जायँगे जान पड़ता है लालाजीके कानमें स्वयं तब अन्तमें आपसमें ही निबटेरा करनेको लाचार श्रीमहावीर स्वामी आकर कह गये हैं कि होंगे । इससे तो यही अच्छा है कि अभीसे श्वेताम्बर हमारे संघमें नहीं हैं और वे मिथ्याती पंचोंके द्वारा मामला ते करा लिया जाय और हैं । लालाजी कहते हैं-" क्या मिथ्यात्व सम्यमेल-मिलाप बढ़ाया जाय । वणिक जैसी सयानी क्त्व मिलनेसे महावीरकी एकता अथवा जाति भी यदि इस ओर ध्यान न देगी तो और मुक्तिका मार्ग हो सकता है ? कदापि नहीं .... कौन देगा ? जल आग्निकी अथवा अंधकार प्रकाशकी ४ देशके नेता जैनधर्मके गौरवकी एकता हो सकती हो तो दिगम्बर-श्वेताम्बररक्षा अवश्य करेंगे। की एकताकी कल्पना भी हो सकती है, अन्यथा देशके नेता भारतवर्ष के ही वातावरणमें नहीं । ” ( लालाजी जोशमें आकर गये तो थे जन्मे हैं और भारतवर्ष में ही बडे हुए हैं. इसलिए श्वेताम्बर धर्मको अन्धकार कहने, पर लिख गये उनमें धर्मभावना अवश्य होगी और जिनमें धर्म- अपने ही धर्मको अन्धकार ! ) लालाजी या उनके भावना है वे अजैन होने पर भी जैनधर्मका गौरव 'धर्मात्मा ' लेखक जिस हृदयसे ये शब्द लिख किस बातमें है इस बातको सुगमतासे समझ हरे हैं उस हृदयको मैं बाँच सकता हूँ। आप सकेंगे और उस गौरवकी रक्षाका भी वे स्वदेश- इन झगड़ोंसे दिगम्बरधर्मकी प्राचीनता और सत्यता प्रेम और धर्मभावनाके कारण अवश्य खयाल और श्वेताम्बरधर्मकी अर्वाचीनता तथा . असरक्खेंगे। इसके सिवाय आजकल जैनधर्मसम्ब- त्यता कोर्टाके द्वारा सिद्ध कराना चाहते हैं। न्धी पत्र, पुस्तक, शास्त्रादि अँगरेजीमें भी प्रका- यदि मैं भूलता नहीं होऊँ तो एक केसमें ऐसा शित होने लगे हैं और अजैन भारतवासी जैन- प्रयत्न सचमुच किया भी गया है। सरकारी सभाओंमें जैनतत्त्वसम्बन्धी व्याख्यान भी देने अदालतोंसे इस प्रकारकी आशा करना, इसे लगे हैं, ऐसी दशामें भारत के सारे ही नेता जैन- 'धर्म भोलेपन के सिवाय और क्या कह सकते भावनाओंसे बिल्कुल ही कोरे हैं, ऐसा कहना हैं ! जब मैं आपसमें सुलह और शान्ति करातो अपनी अज्ञानता प्रकट करना है । पर नेके लिए खड़ा हुआ हूँ, तब एक तटस्थ पुरुषके लालाजीको अपनी अज्ञानता प्रगट होनेकी क्या रूपमें मैं इस बातका इशारा भी नहीं कर सकता परवा है, उन्होंने तो देशके नेताओंमें जो हूँ कि कौन सम्प्रदाय पहला है और कौन पीछेका जैनधर्मसम्बन्धी अज्ञानताका दोष निकाला है, और तीर्थोकी मालिकी तथा पूजनके है, वह एक दूसरे ही आशयसे निकाला है। हकके झगड़ेसे 'कौन धर्म अधिक प्राचीन For Personal & Private Use Only Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SARILALITALITAHATAIMILIAHITIHAARAMAIRAIMILAR तथाँके झगड़े मिटानेका आन्दोलन । ififtiffinfirmffiftifiniti RTAITHERS ५१७ है या सच्चा है । इस प्रश्नका कोई सीधा सम्बन्ध ५ आपसमें फूट कौन कराता है ? भी तो नहीं है। इसी प्रकार यह कहनेका लालाजी कहते है कि “ नहीं मित्रो, (अपील साहस करना भी-कि जो प्रथम जन्म पाता करनेवाले ) असंभव एकताका लोभ दिखाकर है वह सच्चा और जो पीछे.जन्म पाता है वह दिगम्बरोंमें अनेकताका प्रयत्न कर रहे हैं-आपसमें झूठा-एक प्रकारसे अपनी मूर्खता प्रकट करना फूटका बीज बो रहे हैं।" इस विषयमें मैं अब ही है। इतना तो मैं कहूँगा कि इति- क्या कहूँ ? इसका उत्तर तो लालाजीको एक हासज्ञोंके उपयोगके लिए तारीखोंका पता अवश्य बच्चा भी दे देता कि पानीसे आग बुझती है, या लगाया जाना चाहिए और जगत्के तत्त्वज्ञानकी सुलगती है ? पर इतना तो मुझे अवश्य कहना वृद्धिके लिए जुदा जुदा धर्मशास्त्रोंके सिद्धान्तों- चाहिए कि एकताकी हिमायत करनेवाले दिगम्बर की जाँच-पड़ताल भी अवश्य होनी चाहिए; भाइयोंके विरुद्ध दूसरे दिगम्बरी भाइयोंको उत्तेपरन्तु ' मैं सच्चा और तू झूठा' केवल इसी जित करके परस्पर शत्रुता उत्पन्न करनेका काम कदाग्रहकी तुष्टिके लिए जो धार्मिक विवाद और लालाजीने शुरू कर दिया है । इतना ही नहीं शास्त्रार्थ आदि होते हैं, इस समय हमें उन्हें किन्तु आपने 'भारतजैनमहामण्डल , जैसी तिरस्कारकी दृष्टिसे देखना चाहिए और जहाँतक संस्थाके सुशिक्षित और प्रतिष्ठित सभ्योंपर भी इस बन सके उन्हें दबा देना चाहिए। जनसमाजमें एकताकी हिमायतके अपराधके बदले निन्दाके जिसे जो धर्म अच्छा लगे उसे वह श्रद्धापूर्वक वाण छोड़कर कलहका बीज बो दिया है। पाले और दूसरे लोग अपनी रुचिके अनुसार ६ पंच नियत करनेकी सम्मति जिस धर्मको पालते हों उनके प्रति देनेवाले सज्जन । सहिष्णता रक्खे-माध्यस्थ्य वृत्ति रक्खे, यही सबसे 'तीर्थोंके झगड़े मिटाइए' शीर्षक अपीलमें अच्छा मार्ग है । मनुष्य जबसे समाज बना कर जिन सज्जनोंके हस्ताक्षर हैं वे दिगम्बर और श्वेतारहना सीखा है, तबसे समाजकी रक्षाके लिए म्बर दोनों ही सम्प्रदायोंके प्रसिद्ध और प्रतिष्ठित उसे इस नीतिका अवलम्बन करना ही पड़ा है। पुरुष हैं। इस कार्यमें शेठपार्टी भी शामिल है यदि कोई मनुष्य औरोंके धर्मोके प्रति सहिष्णुता और सुशिक्षित-पार्टी भी शामिल है । अपीलमें नहीं रख सकता है, तो वह समाजके लिए एक ऐसी एक भी सही नहीं है जिसने आँखकी शर्मसे भयंकर जन्तु है, समाजके हितके लिए उसे या आग्रहसे अपने हृदयके विरुद्ध सम्मति दी सभाजमेंसे दूर कर देना चाहिए । आश्चर्यकी हो। पर इस अपीलके विरुद्ध हमारे लालाजीने बात तो यह है कि लालाजी जिस धर्मको कार्ट- जो पेम्फलेट निकाला है उसमें हृदयसे सहियाँ के द्वारा सत्य सिद्ध कराना चाहते हैं उसी देनेवाले शायद दो चार सज्जन भी न होंगे। धर्मको स्वयं इतना भी नहीं जानते हैं जितना पर, - पर, सहियोंमें जिन सेठ सज्जनोंके नाम छपे हैं उन्हें, या उनकी तरफसे सही कर देनेवाले एक साधारण विद्याथा जानता है। इस पर मा पर धर्मविषयक गहरी समझ न रखनेवाले मुनीम आपका यह हौसला है ! मालूम नहीं यह लेख साहबोंको, दोष देनेके लिए मैं तैयार नहीं हूँ। आपका ही है या आपकी आड़में किसी क्योंकि यह सारी ही बाजी अकेले लालाजीकी दसरे धर्मात्माकी दिखलाई हुई कारीगरी है। खेली हुई है और आपहीने बड़े प्रयत्नसे दवाव For Personal & Private Use Only Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१८ KATARIAGEBALABALLAHBAIAHELIBABARD जैनहितैषी आदि डालकर ये सहियाँ कराई हैं । अस्तु । बड़ा भारी हित या अहित होनेवाला नहीं है। पंच नियत करना या नहीं करना, यह दोनों सुलहकी पक्षमें सही देकर ही यदि सब लोग सम्प्रदायोंकी और खास करके वादी प्रतिवादि- बैठ रहेंगे तो यह काम आगे न बढ़ सकेगा; और योंकी इच्छा पर निर्भर था, उनसे कोई जबर्दस्ती विपक्षमें सही देनेवाले सज्जन यदि भीतरसे सुलएकता करनेको नहीं कहता था, एकताके हिमा- हके पक्षपाती होंगे तो उनसे कुछ सुलहके मिशयती भी दबाव डालकर नहीं किन्तु नम्र प्रार्थना नकी हानि नहीं हो सकेगी। उदाहरणके तौर पर और समझौतेके मार्गसे ही काम कर रहे थे, इसके इन्दौरके एक प्रतिष्ठित सेठजीने मेरे इस आन्दोसिवाय एकताकी हिमायत दिगम्बर-श्वेताम्बर लनके प्रति सहानुभूति प्रकट की थी; परन्तु दोनों पक्षके सेठ और बाबुओंकी ओरसे (न कि उन्हींके मुनीमजीसे सेठजीके नामकी सही लालाकिसी एक ही सम्प्रदायकी ओरसे) होती थी, जीने अपने निन्दात्मक पेम्फलेटमें करा ली है। तब यह समझमें नहीं आता कि एक लालाजीको मेरा विश्वास है कि एक दिन ये हमारे विरुद्ध सहीही इसमें अपने धर्मके ध्वंस होनेका भय देनेवाले सज्जन भी जगत्को 'शासनप्रेमी' बनाक्यों हुआ ? जब अभीतक श्वेताम्बरोंने ऐसी नेमें हमारे साथ हाथ मिलायँगे और परस्परके कोई कार्रवाई नहीं की है तब लालाजी जैसे वैरविरोधको भुला देंगे; बल्कि इससे भी धर्भोन्मत्तोंके लिखे हुए अण्डवण्ड लेख पर आगे बढ़कर मैं तो यह भावना भाता हूँ कि दिगम्बर समाजके सेठ सज्जनोंने सही देकर और अपने खर्चसे इस आन्दोलनको जारी रखनेके अपनी शामिलगीरी बतलाकर हमारी समझम ता अपराधके कारण मेरा गालियोंसे सत्कार करश्वेताम्बरोंके सन्मुख अपनी अनुदारता ही प्रकट नेवाले लालाजी और उनकी प्रेरणासे सही करकी है और मानों बतला दिया है कि हम नेवाले तमाम सज्जन एक दिन रागद्देषका नि:सुलहको नहीं कलहको पसन्द करते हैं । मैं - शेष क्षय करके वीतराग अवस्था प्राप्त करें। श्वेताम्बरसम्प्रदायके प्रसिद्ध प्रसिद्ध सेठोंसे । -अगुओंसे मिला हूँ और उन्होंने इस एकताके एक बात और लिखकर मैं इस लेखको समाप्त आन्दोलनके प्रति पूरी पूरी सहानुभूति प्रकट की करूँगा । लालाजीको, मेरी एकताकी चर्चाको है । इसी प्रकार मैं दिगम्बर सम्प्रदायके भी 'कूटनीति' कहकर और उसमें शामिल होनेवाले कई सुप्रसिद्ध अगुआ-सेठोंसे मिला हूँ और उन्होंने प्रसिद्ध दिगम्बर महाशयोंको धर्मशन्य, खाद्याभी इस आन्दोलनके प्रति प्रसन्नता प्रकट की है। खाद्यविचारहीन आदि विशेषण देकर भी सन्तोष इसलिए मुझे विश्वास है कि धीरे धीरे लोकमत नहीं हुआ, इसलिए उन्होंने लगे हाथ मुझपर तैयार हो जायगा और धर्म तथा देशकी नीवरूप भी पुष्पवृष्टि कर डाली है और इसे मैं सचमुच ही एकताका शुभागमन जैनसमाजमें अवश्य होगा। उनकी कृपावृष्टि ' समझता हूँ । यद्यपि जैसा कि लालाजीने हमारी अपील पर सही करने. लालाजी कहते हैं, मैं तीर्थरक्षामें पाप नहीं बतवाले सज्जनोंपर जिस तरह कटाक्ष किया है, लाता हूँ, (मैं तो तीर्थरक्षाका अच्छेसे अच्छा उनके पेम्फलेट पर सही करनेवालों पर वैसा और थोड़े खर्चवाला मार्ग बतलाता हूँ ) तो भी कटाक्ष करनेकी मेरी इच्छा नहीं है; परन्तु यह मुझे इस बातको स्वीकार करनेमें कोई संकोच मैं अवश्य कहूँगा कि पक्ष या विपक्षके लेखोंपर नहीं है कि मैं किसी मूर्तिकी पूजा नहीं करता दश पाँच सहियाँ अधिक या कम होनेसे कोई (और पूजनेवालोंको रोकना भी नहीं चाहता )। For Personal & Private Use Only Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + AIMIMARATHMImmmmmmmmmm भारतमें जनसमाजकी अवस्था। भारतमें जैनसमाजकी अवस्था परन्तु मेरे दूसरे भाई जिन महावीर भगवानकी भारतमें जैनसमाजकी अवस्था । मूर्ति पूजनेमें अपने आत्माका कल्याण समझते हैं, (जातिप्रबोधकसे उद्धृत ।) उन्हीं महावीरदेवके समस्त धर्म राज्यकी-समग्र “पाठको! आगेके पृष्ठकी संख्याओंको ज़रा जनसमाजकी मैंने एक बड़े विस्तारवाली विशाल ध्यानसे दोखिए । इनसे आपकी अवस्थाका मूर्ति बना रक्खी है और उसकी सेवा पूजा अर्थात् पता लगता है, जातिके ह्रासका कारण मालूम उस समाज और उस धर्मकी सेवा-शुश्रूषा यथाशक्ति होता है । जैनजातिमें स्त्रियोंकी कुल संख्या यथामति तन-मन-धनसे करना यही मेरी प्यारी ६०४६२९ हैं जिसमें १५३२९७ विधवाओंकी मूर्तिपूजा है । दूसरे तमाम मनुष्योंको अपने अपने संख्या है । अर्थात् १०० पीछे २५ विधवायें हैं इष्ट देवकी पूजा करनेका जितना हक है उतना ही और स्त्रियोंकी संख्या पुरुषोंसे ३८९२४ कम मुझे इस विशाल मूर्तिकी पूजा करनेका है। है। किसी किसी पुरुषके एकसे अधिक स्त्रियाँ मेरी पूजापद्धति किसीका दिल दुखानेवाली या भी हैं । यह बात विवाहित पुरुषों और विवाकिसीको हानि पहुँचानेवाली नहीं है, इस लिए दूसरे हिता स्त्रियोंकी संख्यासे मालूम होती है । सज्जनोंको चाहिए कि वे अपनी अपनी पूजा ___ २६९६२७ विवाहिता स्त्रियाँ हैं और २६८९३८ विवाहित पुरुष हैं अर्थात् ६९६ स्त्रियाँ विवाहित पद्धतिमें श्रद्धापूर्वक लगे रह और मेरी पूजा- अधिक हैं। एक तो वैसे ही स्त्रियोंकी संख्या विधिकी ओर माध्यस्थ्यभावना-मतसहिष्णुता कम, दूसरे चौथाई विधवायें, तीसरे किसी किसी रक्खें। दूसरोंकी दृष्टिमें मेरी पूजाविधि भले पुरुषके एकसे अधिक स्त्रियाँ । तब विचार ही अच्छी न हो, पर मेरी पूजापात्र मूर्ति इतनी करनेकी बात है कि कितने पुरुषोंको कुंवारा रहना विशाल है कि उसमें दिगम्बर-श्वेताम्बर सबका पड़ता है, अर्थात् कितने पुरुष सन्तान उत्पन्न समावेश हो जाता हैं, इस लिए मैं तो अपनी सम- करके जातिकी संख्याको नहीं बढ़ा सकते । इन झके अनुसार अपनी पूजामें इनको भी पूजाका कारणोंसे ही अब तक बराबर जातिका ह्रास मान देता हूँ और इनकी सेवाभक्तिके लिए शरी- होता रहा, वर्तमानमें हो रहा है और आगेको रद्रव्यादि सामग्री भेट करता हूँ । इसलिए मुझपर होगा । यह बात अविवाहित स्त्री पुरुषोंकी इन देवोंको ( श्वेताम्बर-दिगम्बरोंको ) अवकपा संख्यासे भी सिद्ध हो जाती है । ३१७१९७ नहीं करनी चाहिए और यदि कदाचित् अवरुपा पुरुष अविवाहित हैं और १८१७०५ स्त्रियाँ हो जाय तो क्या डर है, देव तो मेरे ही हैं। इन्हें अविवाहित हैं, अर्थात् १३५४९२ पुरुषोंको, अवश्य कुँवारा रहना पड़ेगा। कोई कोई पुरुष कई मना लेनेकी कला इनके भक्तसे छुपी नहीं रह । कई स्त्रियोंसे विवाह करता है, इसके हिसाबसे सकती। लोकमें प्रसिद्ध है कि भक्तके सामने कुँवारोंके और भी अधिक रहनेकी सम्भावना है। भगवान् भी सीधे हो जाते हैं। अतएव यदि जातिकी संख्या बढ़ाना अभीष्ट है समग्र जैनसमाजकी तो कुँवारोंकी दशा सुधारनी चाहिए, समाजमें मूर्तिका उपासक विधवायें कम हों इसका प्रयत्न करना चाहिए । और एक पुरुषको एक पुरुषको एकसे अधिक स्त्रियोंके साथ विवाह करनेसे रोकना चाहिए तथा रंडुअविभक्त जैनसंघका श्रावक, वोंको जिनकी इन्द्रियाँ शिथिल हो गई हैं पुनवाडीलाल मोतीलाल शाह। विवाह करनेसे मना करना चाहिए।" For Personal & Private Use Only Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 520 आयुरुष स्त्री विवाहित विधुर विधवा वर्ष स्त्री .-1 52 1966 2-3 178 247 20 153 353 For Personal & Private Use Only 5-10 10-15 15-20 20-25 25-30 30-35 35-40 40-45 45-50 50-55 55-60 19719 9571 16434 16115 14373 70088 56225 49149 60220 55412 52664 36409 44474 23577 4678 2098 9129 8976 2310 1068 4509 12772 12376 28800 31933 14519 16745 5969 जैनहितैषी भारतवर्षमें जैनियोंकी अवस्था / अविवाहित , अविवाहित विवाहित स्त्री पुरुष 19887 19623 8902 9485 15970 16239 15473 15848 113 14491 13977 70851 65314 1094 34483 5616 3708 18608 25718 994 34446 15295 42175 439 40542 251 32616 4774 279 30409 2775 131 19880 19751 61 8618 1268 84 8769 411 38 3019 423 2950 317197 181705 268638 4513 20836 42735 51882 43564 36176 22397 20928 9897 8882 2960 2677 2146 3598 4911 5087 7193 6145 , 9151 4853 6708 2539 3640 906 2706 7344 11312 16049 13761 23267 13549 24283 159 , 1.48 11698 2.95 18191 4652 8247 १०से ऊ 8886 643553604629 269627 57418 153297 -