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________________ KAMARITALIANIMAMIALALALITTHALALBAHAAMAKARARIA जैनधर्म और जैनदर्शन। उत्तरोतर सीढियोंकी बात है, वैसी बौद्ध दोनों ही धर्मों में अविकृत रूपसे ले लिया धर्ममें नहीं है । जैन जातिविचार मानते हैं, गया है । जैनोंने कर्मको एक प्रकारके पर बौद्ध नहीं मानते । परमाणुरूप सूक्ष्म पदार्थके रूपमें कल्पना "जैन और बौद्धको एक समझनेका कारण करके, केवल कितनी ही गुरुतर दार्शनिक जैनमतकी अच्छी तरह आलोचना न करना, समस्याओंकी सृष्टि की है, किन्तु उसमें कर्मइसके सिवाय और कुछ नहीं है। हमारे फलवादकी मूल बात पूर्णरूपसे सुरक्षित शास्त्रोंमें कहीं भी दोनोंको एक समझनेकी है । हिन्दूदर्शनका दुःखवाद और जन्मभूल नहीं की गई है। वेदान्तसत्रमें जदे जदे मरणात्मक दुःखरूप संसार सागरसे पार स्थलों पर जदे जदे हेतवादसे बौद्ध और जैन- होनेके लिए निवृत्तिमार्गानुसारी मोक्षान्वेषणमतका खण्डन किया गया है। शंकर दिग्वि- यह हिन्दू बौद्ध और जैन, सबका ही मुख्य जयमें लिखा है कि शंकराचार्यने काशीमें सूत्र है । निवृत्ति तपके द्वारा कर्मबन्ध क्षय बौद्धोंके साथ और उज्जयिनीमें जैनोंके साथ होने पर आत्मा कर्मबन्धसे मुक्त होकर शास्त्रार्थ किया था। यदि दोनों मत एक स्वभावको प्राप्त करेगा और अपने नित्य-बुद्धहोते, तो उनके साथ दो जदे जदे स्थानों में शुद्ध स्वभावके अमित गौरवसे महिमान्वित दो बार शास्त्रार्थ करनेकी आवश्यकता नहीं होगा । उस समय थी। प्रबोधचन्द्रोदय नाटकमें बौद्ध भिक्ष और भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः। जैन दिगम्बरकी लडाईका वर्णन है। क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन् दृष्टे परावरे ॥ यह स्पष्ट भावसे जैन और हिन्दु शा" हिन्दधर्मके साथ जैनधर्मका अनेक स्त्रों में घोषित हुआ है। स्थलोंमें सादृश्य और अनेक स्थलोंमें विरोध जन्म जन्मातरोंमें कमाये हुए कर्मोको है; परन्तु विरोधकी अपेक्षा सादृश्य ही . साहश्य हा वासनाविध्वंसी निवृत्तिमार्गके द्वारा क्षय अधिक है । इतने दिनोंसे कितने ही मुख्य " हा मुख्य करके परमपदप्राप्तिकी साधना हिन्दू, जैन विरोधोंकी ओर दृष्टि रखनेके कारण वैर वर और बौद्ध तीनों ही धर्मों में एक ही समान विरोध बढ़ता रहा और लोगोंको परस्पर का परस्पर उपदेश की गई है । दार्शनिक मतवादके अच्छी तरह देख सकनेका अवसर नहीं । हा विस्तारमें और साधनाकी क्रियाओंकी विशिमिला । प्राचीन हिन्दू सब सह सकते थे; व सह सकत या ष्टतामें भिन्नता हो सकती है. किन्तु उद्देश्य परन्त वेदपरित्याग उनकी दृष्टिमे अक्षम्य और गन्तव्यस्थल सबका ही एक हैअपराध था। रुचीनां वैचित्र्यादृजुकुटिलनानापथजुषां ____ "हिन्दु धर्मका जन्म-कर्म-वाद जैन और नणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव । बौद्ध दोनों ही धर्मोंका मेरुदण्ड है और वह महिम्नस्तोत्रकी यह सर्वधर्म-बहुमान Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522828
Book TitleJain Hiteshi 1916 Ank 09 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1916
Total Pages102
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size13 MB
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