________________
છ૭૮
HATIHARMA जनहितैषी
समHITRITI
.
. (१३) दिखा रहा है शिशु सूर्यधामको,
स्वगेहहीमें नर जो न तुष्ट हो, . मिटा रहा है तम-शत्रु नामको ।
कभी विधाता उससे न रुष्ट हो। विलोलता है जगमें बड़ी कड़ी,
पड़े हुए हो किसके विचारमें ? चली गई पुत्र ! विरामकी घड़ी ॥
उठो, लगो पुत्र ! परोपकारमें ॥
(१४) स्व-वंशका ज्ञान जिसे बना रहे.
अभिन्न है प्राक्तन कर्म भाग्यसे, भला कभी क्यों वहादुःखको सहे।
छिपी नहीं है यह बात प्राज्ञसे । न भूल जाना तुम आर्यवंश हो,
स्वदेश-सेवाव्रतसे न नहीं भगो, जगो दुलारे ! जगदीश-अंश हो
उठो उठो पुत्र ! सुकर्ममें लगो ॥ (१०)
(१५) मिली हुई भी उसकी न है रमा,
चलागया जो क्षण आपका अभी, जिसे प्रिया है रिपुके लिए क्षमा,।
नहीं मिलेगा वह स्वप्नमें कभी । शशी इसीसे सब भाँति हीन है,
स्वधर्मके ऊपर ध्यान दीजिए, सुखाप्ति बेटा ! बलके अधीन है ॥
विनिद्र हो पुत्र ! न देर कीजए ।
(१६) मनुष्य जो व्यर्थ प्रमाद-लिप्त है,
नरेश होवे अथवा सुरेश हो,. . स्ववृद्धिहीमें अथवा सुतृप्त है।
निरुद्यमी जो धन-आकरेश हो। कभी गिरेगा वह सोमसा सही,
निपात होगा उसका अवश्य ही, सुनो, उठो पुत्र ! विधेय है यही ॥
उठो उठो आँख खुली अभी नहीं ॥ (१२)
(१७) विवेकसे विक्रमसे विहीन हो,
प्रभावशाली कुलके मराल हो, ___ अधर्मके आलसके अधीन हो ।
स्ववंश-कल्पद्रुप-आलवाल हो। विनष्ट जो हैं उनसे न बोलिए,
करो जरा पुत्र ! स्ववंश नामको, सुना न? हे पुत्र | दृगाब्ज खोलिए।
उठो सँभालो निजकाम धामको ॥ (१८) जिसे सिखाते तुम थे, तुम्हें वही
सिखा रही है, पर होश है नहीं। , उठो दिखा दो निज तेज तो सही,
सुकार्यका पुत्र ! मुहूर्त है यही ॥
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org