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________________ COLLLLLLLLLLLLLLLLLLLLLLLLLLL सार्वजनिक धनकी जिम्मेवारी। स्वं दातुं सुमहच्छक्यं दुःखमन्यस्य पालनम्। चन्दोंकी रक्षाके लिए और उनका दुरुपयोग दानं वा पालनं वेति दानाच्छ्रेयोऽनुपालनम् ॥+ न होने पावे इसके लिए बड़े बड़े कड़े कानूमनुष्य, जिन बातोंसे उसका केवल नि- . - न बना रक्खे हैं; परन्तु उनका उपयोग जका ही सम्बन्ध है उनमें चाहे जितना बहुत ही कम होनेपाता है, इस लिए लोग प्रमाद आलस्य आदि कर सकता है और . अपने इस उतरदायित्त्वको समझनेकी परवा उसके लिए उसको क्षमा भी मिल सकती , है; पर पराये कामोंके लिए-उन कामोंके " भी बहुत ही कम करते हैं। पर अब इस उत्तरदायित्वके महत्त्वको लिए जिनसे कि दूसरोंका- सर्वसाधारणका , समझ लेनेकी बहुत बड़ी आवश्यकता है। सम्बन्ध है-वह इतना स्वतन्त्र नहीं है। सार्वजनिक संस्थायें खोलनेकी ओर हमारी सार्वजनिक बातोंमें उसका जरासा भी प्रमाद प्रवृत्ति दिन पर दिन बढ़ती जाती है और अक्षम्य है । ऐसे काम उसे बड़ी सावधानीसे हमारी उन्नतिके-प्रगतिके-लिए इस प्रवृकरना चाहिए। ... त्तिका बढ़ना है भी बहुत आवश्यक; परन्तु आज हम और और सार्वजनिक कामोंको " यह बढ़ना तभी टिक सकता है, जब संस्थाछोडकर केवल सार्वजनिक द्रव्यके या पब्लि ओंके चलानेवाले अपनी पब्लिकके चन्देकी कके चन्देके सम्बन्धमें कुछ कहना चाहते - जिम्मेवारीको अच्छी तरह समझकर काम हैं । हम देखते हैं कि आजकल सार्वजनिक करें। यदि ऐसा न होगा, लोग अपनी कामोंके लिए-विद्यालय, आश्रम, पुस्तकालय, जिम्मेवारियोंको न समझेंगे तो लोगोंको आव. औषधालय, अनाथालय, मन्दिर, तीर्थ, . १. ताप, श्वास हो जायगा और तब लोग प्रयत्न करने पुस्तकप्रकाश, आदि सर्वोपयोगी कामोंके लिए • पर भी आवश्यकता समझनेपर भी-चन्दा जगह जगह चन्दा होता है, पर बहुत कम देनेको हाथ न बढायेंगे। चन्दा करनेवाले ऐसे हैं जो इस चन्देके धनकी धनं वै प्राणाः । ' विचारशीलोंने धनको बड़ी भारी जिम्मेवारीको या उत्तरदायित्वको एक प्राण बतलाया है । संस्थाओंके चलानेसमझते हों। यद्यपि गवर्नमेंटने सार्वजनिक वालोंको जानना चाहिए कि आप लोगोंके __ + धन देना बहुत ही कठिन काम है और दूसरेके हाथमें जब लोग अपने प्राणतल्य धनको दिये हुएका पालन करना उससे भी कठिन है। दान देते हैं, तब वे अपने उन प्राणोंकी भली करना और दूसरेके दिये हुएकी रक्षा करना, इनमें दानकी अपेक्षा रक्षा करना अधिक पुण्यका कार्य है। भाँति रक्षा होनेकी भी आपसे आशा रखते Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522828
Book TitleJain Hiteshi 1916 Ank 09 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1916
Total Pages102
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size13 MB
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