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________________ මුලලලලලලලලලලලලලලලලලම 8 सम्मानित। ®®eeeeeeeeeeeDD® (ले०-श्रीयुत पं० ज्वालादत्त शर्मा ।) [१] रोगोंके वासके लिए थोड़े ही बनाया है । रोग व्यवसायके कारण अमरेन्द्र बाबूके साथ दुष्टोंको होता है।" हमारा परिचय होने पर उनके सौजन्य और जमीन्दार-दम्पतीको हमारी बात सुनकर हँसी उदारता आदि गुणोंसे हमारे साथ उनकी एक आगई। उन्होंने आपसमें एक दूसरेको देखा। तरहसे मित्रता हो गई थी। वे त्रिपुरा जिलेके दोनोंकी चितवनमें और दृष्टिमें कोमलता भरी ज़मीन्दार थे; पर उन्होंने कलकत्तेमें आकर एक हुई थी । अमरेन्द्रने कहा-“ होता होगा, पर साबुनका कारखाना खोल रक्खा था । कल- डाक्टरके मुँहसे यह बात अच्छी नहीं मालूम कत्तेकी पार्क स्ट्रीटमें रहनेके कारण उनकी होती।" मित्रता कई बड़े बड़े आदमियोंके साथ हो गई छोटी आँखवालेको 'हिरन जैसे नेत्रवाला' थी । अमरेन्द्र बाबू सज्जन थे, उनके घरमें कहनेसे वह प्रसन्न नहीं होता। पर सुन्दरीको उनकी स्त्रीके सिवा और कोई न था । उनकी सुन्दरी कहा जाय तो वह प्रसन्न होती है। मनस्त्री असामान्या रूपवती और मधुरभाषिणी ही-मन प्रसन्न होकर, ललनासुलभ लज्जाको थी। वह पढ़ी लिखी भी मालूम होती थी; किन्तु दिखाते हुए उसने हमारी ओर भर्त्सनाकी दृष्टिसे थी बड़ी विलासप्रिया । पर विलासिता उसके देखा-निस्सन्देह उसमें सन्तोष भरा हुआ था। लिए शोभाका कारण थी। निश्चय ही घरू काम हमने कुछ झेंपकर कहा-"नहीं, मेरे कहनेका काज करनेसे उसके रूपकी अवमानना होती। यह आशय था कि आपको कोई रोग नहीं है जिस समय वह बढ़िया कौंचपर लेटी हुई बड़ी और यदि रोग है भी, तो उसको डाक्टर नहीं ही नजाकतसे अपने कल्पित रोगकी कहानी बता सकता। किसी संन्यासीको दिखाइए और सुनाती थी, उस समय सचमुच ही हमें धनी कोई दिव्य औषध खाइए।" अमरेन्द्र पर ईर्ष्या हो आती थी। दोनोंका मुँह गंभीर हो गया। उन्होंने फिर __उस दिन अमरेन्द्र बाबू एक बढ़िया कुर्सीपर एक दूसरेको देखा। हमने कहा--"कहिए तो बैठे हुए थे । उनकी सुन्दरी स्त्रीने कोमल कौंच- संन्यासीको बुला लाऊँ ? हमारे यहाँ आज एक परसे अपना देवी-दुर्लभ हाथ बढ़ाकर कहा- संन्यासी ठहरे हुए हैं।" " डाक्टर बाबू, अब तो मुझे सचमुच ही उन्होंने फिर एक दूसरेको देखा। अमरेन्द्र ज्वर हो गया मालूम पड़ता है ।" बाबूने कहा-"आप शिक्षित होकर इन बद हमने कुछ हँसकर कहा-“आपको कोई माशों पर श्रद्धा रखते हैं ! इनमें कितने चोर रोग नहीं है । भगवानने आपका सुन्दर शरीर डाकू छिपे हुए हैं-आप जानते हैं ? " Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522828
Book TitleJain Hiteshi 1916 Ank 09 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1916
Total Pages102
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size13 MB
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