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________________ JHANTALIMINIMI LARIHARATALAILI भद्रबाहु-संहिता। ४४१ Jथसे उठाकर रक्खा गया है जहाँ उसे उक्त क्षिप्रध्रुवाहिचरमूलमृदुत्रिपूर्वा, ग्रंथके कर्ताने अपने प्रकरणानुसार दिया होगा। रौद्रेऽर्कविद्गुरुसितेन्दुदिने व्रतं सत् । परन्तु इसे छोड़कर इस वाक्यमें मुहूतौका द्वित्रीषुरुद्ररविदिक् प्रमिते तिथौ च, संग्रह करनेकी प्रतिज्ञा की गई है। लिखा है कि कृष्णादिमत्रिलवकेपि न चापराह्ने ।। १७२ ॥ मेरे द्वारा मुहूर्तोंका संग्रह किया जाता है, अर्थात् यह पद्य मुहूर्तचिन्तामाणके पाँचवें संस्कारमैं इस अध्यायमें मुहूर्तोंका संग्रह करता हूँ। यह प्रकरणका ४० वाँ पद्य है । इससे साफ़ जाहिर है वाक्य श्रुतकेवलीका बतलाया जाता है। ऐसी कि यह संहिता ग्रंथ मुहूर्तचिन्तामाणसे बादका हालतमें पाठक सोचें और समझें कि यह कैसा अर्थात् वि०सं०१६५७से पीछेका बना हुआ है। अनोखा और असमंजस मालूम होता है। श्रत- यहाँतकके इस संपूर्ण कथनसे यह तो सिद्ध केवली और महर्लोका संग्रह करें ? जो स्वयं हो गया कि, यह खंडत्रयात्मक ग्रंथ (भद्रद्वादशांगके पाठी और पूर्ण ज्ञानी हों-जिनका बाहुसंहिता) भद्रबाहु श्रुतकेवलीका बनाया प्रत्येक वाक्य संग्रह किये जानेके योग्य हो-वे हुआ नहीं है, न उनके किसी शिष्यप्रशिखुद ही इधर उधरसे मुहूर्तोंके कथनको इकट्ठा ष्यका बनाया हुआ है और न वि. सं. करते फिरें ! यह कभी नहीं हो सकता । वास्त . १६५७ से पहलेहीका बना हुआ है; वमें यह सारा ही ग्रंथ भद्रबाहु श्रुतकेव बल्कि उक्त संवत्से पीछेका बना हुआ है। लीका बनायाहुआ न होकर इधर उधरके परन्तु कितने पीछेका बना हुआ है और किसने प्रकरणोंका एक बेढंगा संग्रह है-जैसा कि गया है। __ बनाया है, इतना सवाल अभी और बाकी रह ऊपर दिखलाया गया है और अगले लेखोंमें, असम्बद्ध विरुद्धादि कथनोंका उल्लेख करते हुए। . भद्रबाहुसंहिताकी वह प्रति जो झालरापाटऔर भी अच्छी तरहसे दिखलाया जायगा । इस- . नके भंडारसे निकली है और जिसका ग्रंथ-प्राप्तिलिए इस ग्रंथमें उक्त प्रतिज्ञाके अनुसार मुहूर्तोंका " के इतिहासमें ऊपर उल्लेख किया गया है वि. भी अनेक ग्रंथों परसे संग्रह किया गया। सं० १६६५ की लिखी हुई है। इससे स्पष्ट है अर्थात् दूसरे ग्रंथोंके वाक्योंको उठा उठाकर कि, यह ग्रंथ वि० सं० १६६५ से पहले बन चुका रक्खा है । उन ग्रंथों में महर्तचिन्तामणि, था और वि० सं० १६५७ से पीछेका बनना नामका भी एक प्रसिद्ध ग्रंथ है, जिसे नीलकंठके . उसका ऊपर सिद्ध किया जा चुका है। इस लिए छोटे भाई रामदैवज्ञने शक संवत् १५२२ (वि० यह ग्रंथ इन दोनों सम्वतों (१६५७-१६६५) ९ के मध्यवर्ती किसी समयमें सात आठ सं० १६५७ ) में निर्माण किया है। इस ग्रंथसे वर्षके भीतर-बना है, इस कहनेमें कोई संकोच र भी अनेक पद्य उठाकर उक्त अध्यायमें रक्खे । नहीं होता। यही इस ग्रंथके अवतारका समय गये हैं, जिनमेंसे एक पद्य, उदाहरणके तौरपर, है। अब रही यह बात कि, ग्रंथ किसने बनाया, यहाँ उद्धृत किया जाता है: इसके लिए झालरापाटनकी उक्त प्रतिके + यथाः अन्तमें दी हुई लेखककी इस प्रशस्तिको गौरसे तदात्मज उदारधीविबुधनीलकंठानुजो, गणेशपदपंकजं हृदि निधाय रामाभिधः । गिरीशनगरे वरे “संवत्सर १६६५ का मृगसिर सुदि १० लिपीभुजभुजेषुचंद्रमिते ( १५२२ ), शके विनिरमादिमं कृतं ज्ञानभूषणेन गोपाचलपुस्तकभंडार धर्मभूषणमुहूर्तचिन्तामणिम् ॥ १४-३ ॥ जीकी सुं लिषी या पुस्तक दे जीनै जिनधर्मका शपथ ढ़नकी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522828
Book TitleJain Hiteshi 1916 Ank 09 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1916
Total Pages102
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size13 MB
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