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________________ ४४२ जैनहितैषी । हजार छै। मुनिपरंपरा सूं विमुख छै । तीसूं न देणी । सूरि भी नहीं देवै । एक वार धर्मभूषण स्वामी दो चार स्थल मांगे दिये सो फेरि पुस्तक नहीं आई । तदि वामदेवजी फेर शुद्धकरि लिषी तयार करी । तीसूं नहीं देणी । " Jain Education International पुस्तक- परिचय | १ सूक्तिमुक्तावली । सोमप्रभाचार्यका यह प्रसिद्ध ग्रन्थ कई जगह छप चुका है । इस संस्करणमें एक विशेषता यह है कि साथ ही एक सरल संस्कृत टीका लगा दी गई है जो विद्यार्थियोंके लिए विशेष उपयोगी है । टीकाकारने अपना नाम नहीं दिया है; पर जान पड़ता है कि वे दिगम्बर सम्प्रदाय के अनुयायी अवश्य हैं । संस्कृतटीकाके नीचे मराठी अर्थ दिया है जिसके लेखक माणगांव ( कागल) के कालचन्द्र जिनदत्त उपाध्याय हैं । आपने भूमिकामें लिखा है कि 'अभी तक इसकी संस्कृतटीका कहीं नहीं छपी थी; ' परन्तु हमारे पुस्तकालय में भावनगरकी किसी जैनसभाके द्वारा लगभग ३०-३५ वर्ष पहले छपाई हुई श्रीचन्द्रकीर्तिविनेय हर्षकीर्तिसूरिकृत संस्कृतटीका मौजूद है । इसके ऊपरका एक पृष्ठ हो गया है । आश्चर्य नहीं जो कहीं अन्यत्रसे भी इसकी और और टीका में प्रकाशित हुई हों । पुस्तक की छपाई अच्छी है; पर प्रारंभ में ही ६ पेजका शुद्धिपत्र देखकर दुःख होता है । प्रकाशकोंके द्वारा संशोधनमें इस प्रकारका प्रमाद होना बहुत खटकता है । पुस्तकका मूल्य आठ है । मिलनेका पता - " बी. ए. संकेश्वरे, श्रीवर्द्धमानप्रेस, गुरुवार पेठ, निपाणी (बेलगाँव ) । " ऊपरकी इस प्रशस्तिसे, जो कि ग्रंथ बनने के अधिक समय बादकी नहीं है, साफ ध्वनित होता है कि यह ग्रंथ गोपाचल ( ग्वालियर ) के भट्टारक धर्मभूषणजीकी कृपाका एक मात्र फल है । वही उस समय इस ग्रंथके सर्व सत्वाधिकारी थे। उन्होंने वामदेव सरीखे अपने किसी कृपापात्र या आत्मीयजनके द्वारा इसे तय्यार कराया है, अथवा उसकी सहायता से स्वयं तय्यार किया है । तय्यार हो जानेपर जब इस ग्रंथके दो चार अध्याय किसीको पढ़ने के लिए दिये गये और वे किसी कारणसे वापिस नहीं मिलसके तब वामदेवजीको फिरसे दुबारा उनके लिए परिश्रम करना पड़ा । जिसके लिए प्रशस्तिका यह वाक्य 'तदि वामदेवजी फेर शुद्ध करि लिषी तयार करी—' खास तौरसे ध्यान दिये जाने के योग्य है और इस बातको सूचित करता है कि उक्त अध्यायोंको पहले भी वामदेवने ही तय्यार किया था मालूम होता है कि लेखक ज्ञानभूषणजी धर्मभूषण भट्टारकके परिचित व्यक्तियोंमें थे और आश्चर्य नहीं कि वे उनके शिष्यों में भी हों । उनके द्वारा खास तौरसे यह प्रति लिखाई गई है। उन्होंने प्रशस्तिमें अपने स्वामी धर्म - भूषणकी ग्रंथ न देने संबंधी आज्ञाका - जो संभवतः उक्त अध्यायके वापिस न आने पर दी गई होगी - उल्लेख करते हुए भोलेपनसे उसके कारणका भी उल्लेख कर दिया है, जिसकी वजहसे ग्रंथकर्ताके विषयमें उपर्युक्त विचारोंको स्थिर करनेका अवसर मिला है और इस लिए पाठकोंको उनके इस भोलेपनका आभारी होना चाहिए। ता० २९-९-१६! । I २ वर्णव्यवस्थापर विचार | लेखक पं० शिवकुमार शास्त्री । प्रकाशक, विश्वविद्याप्रचारक मण्डल, चन्दौसी- यू. पी. मूल्य एक आना । इस ४० पृष्ठकी छोटीसी पुस्तकमें यह बतलाया है कि वर्णव्यवस्था न जन्मसे मानना अच्छा है और न आर्यसमाजके समान कर्मसे । इसे सर्वथा ही उड़ा देना For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522828
Book TitleJain Hiteshi 1916 Ank 09 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1916
Total Pages102
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size13 MB
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