________________
४४०
जैनहितैषी
MITRA
हैं । यहाँ पर उनमें से कुछ पद्य, उदाहरणके तौर परिवर्तित रूप हैं । ताजिकग्रंथोंकी उत्पत्ति यवनपर, उन पद्योंके साथ प्रकाशित किये जाते हैं ज्योतिष परसे हुई है, जिसको बहुत अधिक समय जिन परसे वे कुछ परिवर्तन करके बनाये गये नहीं बीता, इसलिए इन शब्दोंको यवन-ज्योतिषमें मालूम होते हैं:
प्रयुक्त संज्ञाओंके अपभ्रंशरूप समझना चाहिए । १-क्रूरमशरिफोऽब्देशो जन्मेशः क्रूरितः शुभैः। दूसरे पद्योंमें 'इत्थिसाल' (इत्तिसाल) कंबूलेपि विपन्मृत्युरित्थमन्याधिकारतः ॥२-३-४ ॥ आदि और भी इस प्रकारके अनेक शब्दोंका -ताजिक नलिकंठी ।
प्रयोग पाया जाता है । अस्तु । इन सब बातोंसे अब्देशः क्रूरमूशरिफः शुभैर्जन्मेशः ऋरितः।। कंबूलेपि विपन्मृत्युरित्थं वर्षेशमुन्थहे ॥ ४८ ॥
मालूम होता है कि संहितामें यह सब प्रकरण -भ.संहिता।
या तो नीलकंठीसे परिवर्तित करके रक्खा गया २-अस्तगौ मुथहालग्ननाथौ मंदेक्षितौ यदा।
है अथवा किसी ऐसे ग्रंथसे उठाकर रक्खा गया सर्वनाशोमृतिः कष्टमाधिव्याधिभयं भवेत् ॥-५॥ है जो नीलकंठी परसे बना है और इस लिए सर्वनाशो मतिः कष्टमाधिभयं भवेत् ॥५॥ यह संहिता 'ताजिक नीलकंठी ' से पीछे बनी
-ता. नी०
हुई है, इसमें कोई संदेह नहीं रहता। नीलयदा मंदक्षितौ मुथहा-लग्ननाथावधोगतौ ।
कंठका समय विक्रमकी १७ वीं शताब्दीका सर्वनाशो मृतिः कष्टमाधिव्याधिरुजां भयं ॥४७॥
" पूर्वार्ध है । उनके पुत्र गोविन्द दैवज्ञने, अपनी गुरुः केन्द्रे त्रिकोणे वा पापादृष्टः शुभेक्षितः। ३४ वर्षकी अवस्थामें, 'मुहूर्तचिन्तामणि, लमचन्द्रन्थिहारिष्टं विनश्यार्थसुखं दिशेत् ॥ ४-२॥ पर 'पीयूषधारा' नामकी एक विस्तृत टीका
-ता. नी. लिखी है और उसे शक सं० १५२५ अर्थात् पापादृष्टो गुरुः केन्द्र त्रिकोणे वा शुभेक्षितः। वि० से० १६६० में बनाकर समाप्त किया है। लग्नसोमेन्थिहारिष्टं विनश्यार्थसुखं दिशेत् ॥ ५६॥ .
इस समयसे लगभग २० वर्ष पहलेका समय
-भ० सं० ऊपरके पद्योंसे पाठकोंको दो बातें मालम होंगीं। ताजिक नीलकंठीके बननेका अनुमान किया एक यह कि नीलकंठीके पद्योंसे संहिताके जाता है और इस लिए कहना पड़ता है कि पद्योंमें जो भेद है वह प्रायः नीलकंठीके शब्दोंको यह संहिता विक्रम सं० १६४० के बादकी आगे पीछे कर देने या किसी शब्दके स्थान में बनी हुई हैं। उसका पर्यायवाचक शब्द रख देने मात्रसे उत्पन्न १० इस ग्रन्थके दूसरे खंडमें, २७ वें किया गया है और इससे परिवर्तनका अच्छा
- अध्यायका प्रारंभ करते हुए सबसे पहले यह अनुभव हो जाता है । इस परिवर्तनके द्वारा दूसरे वार
वाक्य दिया है:पद्यके पहले चरणमें एक अक्षर बढ़ गया है-८ के
" तत्रादौ च मुहूर्तानां संग्रहः क्रियते मया ॥" स्थानमें ९ अक्षर हो गये हैं और चौथे चरणमें यद्यपि इस वाक्यमें आये हुए 'तत्रादौ' 'व्याधि के होते हुए 'रु' शब्द व्यर्थ शब्दोंका ग्रंथ भरमें पहलेके किसी भी कथनसे पड़ा है। दूसरी बात यह है कि इन पद्योंमें मूश
- कोई सम्बंध नहीं है और इस लिए वे कथनकी रिफ (मुशरिफ़), कंबूल (क़बूल), मुथहा,
- असम्बद्धताको प्रगट करते हुए इस बातको मुन्थहा (मुन्तिही ), इन्थिहा (इन्तिहा) सूचित करते हैं कि यह वाक्य किसी दूसरे ये शब्द जो पाये जाते हैं वे संस्कृत भाषाके १इसका अर्थ होता है-वहाँ,आदिमें, उसके आदिमें, शब्द नहीं हैं । अरबी-फारसी भाषाके अथवा उनमें सबसे पहले।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org