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________________ amIIIIIIIII भद्रबाहु-संहिता। ४३९ प्रणम्य वर्धमानं च जगदानंददायकम् । 'बाहुजाः' के स्थानमें उसका पयायवाचक पद प्रणिधाय मनो राजन् सर्वेषां शृणु तत्फलम् ॥ १॥ 'क्षत्रियाः ' बनाया गया है । भद्रबाहुचरित्रमें, ___ यह श्लोक बड़ा ही विलक्षण है। इसमें लिखा इस फलवर्णनसे पहले, राजा चंद्रगुप्त और उसके है कि-'जगत्को आनंद देनेवाले वर्धमानको नम- स्वप्नादिकोंका सब संबंध देकर उसके बाद नीचे स्कार करके (क्या कहता हूँ, ऐसी प्रतिज्ञा, लिखा वाक्य दिया है, जिससे वहाँ पर 'राजन' आगे कुछ नहीं ) हे राजन् तुम उन सबका फल और 'तत् ' शब्दोंका सम्बंध ठीक बैठता है चित्त लगाकर सुनो।' परन्तु इससे यह मालूम और उस वाक्यमें भी कोई असम्बद्धता मालूम न हुआ कि राजा कौन, जिसको सम्बोधन करके नहीं होती:कहा गया और वे सब कौन, जिनका फल प्रणिधाय मनो राजन् समाकर्णय तत्फलम् ॥३१॥ सुनाया जाता है। ग्रंथमें इससे पहले कोई भी यह वही वाक्य है जो जरासे गैरज़रूरी ऐसा प्रकरण या प्रसंग नहीं है जिसका इस परिवर्तनके साथ ऊपर उद्धृत किये हुए श्लोक श्लोकके 'राजन्' और 'तत्' शब्दोंसे सम्बन्ध हो नं. १ का उत्तरार्ध बनाया गया है। इन सब सके। इस लिए यह श्लोक यहाँपर बिलकुल भद्दा बातोंसे जाहिर है कि यह सब प्रकरण रत्ननन्दिके और निरा असम्बद्ध मालूम होता है । इसके आगे भद्रबाहुचरित्रसे उठाकर यहाँ रक्खा गया है और ग्रंथमें, श्लोक नं० १८ तक उन १६ स्वमोंके इसलिए यह ग्रंथ उक्त भद्रबाहुचरित्रसे पीछेका फलका वर्णन है जिनका सम्बन्ध राजा चंद्रगुप्तसे बना हुआ है । रत्ननन्दिका भद्रबाहुचरित्र विक्रकहा जाता है और जिनका उल्लेख रत्ननन्दिने मकी १६ वीं शताब्दीके अन्तका या १७ वीं अपने 'भद्रबाहुचरित्र' में किया है । स्वप्नोंका शताब्दीके शुरूका बना हुआ माना जाता है । यह सब फल-वर्णन प्रायः उन्हीं शब्दोंमें दिया परन्तु इसमें तो किसीको कोई सन्देह नहीं है कि है जिनमें कि वह उक्त भद्रबाहुचरित्रके दूसरे वह वि० सं० १५२७ के बाद का बना हुआ जरूर परिच्छेदमें श्लोक नं० ३२ से ४८ तक पाया है। क्योंकि उसके चौथे अधिकारमें इस संवत्का जाता है। सिर्फ किसी किसी श्लोकमें दो एक लुंकामत (दूँढ़ियामत ) की उत्पत्तिकथनके शब्दोंका अनावश्यक परिवर्तन किया गया है। साथ उल्लेख किया है * । ऐसी हालतमें यह ग्रंथ जैसा कि नीचे लिखे दो नमूनोंसे प्रगट है:- भी वि० सं० १५२७ से पीछेका बना हुआ है, १-रवेरस्तमनालोकात्कालेऽत्र पंचमेऽशुभे। इसमें कुछ संदेह नहीं हो सकता। एकादशागपूर्वादिश्रुतं हीनत्वमेष्यति ॥ ३२॥ ९ हिन्दुओंके ज्योतिष ग्रंथोंमें 'ताजिक -भद्रबाहुचरित्र। नीलकंठी ' नामका एक प्रसिद्ध ग्रंथ है। यह भद्रबाहुसंहिताके उक्त 'फल' नामके अध्यायमें अनन्तदैवज्ञके पुत्र 'नीलकंठ ' नामके प्रसिद्ध यही श्लोक नं. ३ पर दिया है। सिर्फ 'रवे- विद्वानका बनाया हुआ है । इसके बहुतसे पद्य रस्तमनालाकात् 'के स्थानमें ' स्वप्ने सूर्या- संहिताके दूसरे खंडमें-' विरोध ' नामके ४३ स्तावलोकात बदला हुआ है। वें अध्यायमें-कुछ परिवर्तनके साथ पाये जाते २-तुंगमातंगमासीनशाखामृगनिरीक्षणात् । * यथाः- मृते विक्रमभूपाले सप्तविंशतिसंयुते राज्यहीना विधास्यन्ति कुकुला न च बाहुजाः॥४३॥ दशपंचशतेऽब्दानामतीते शणुता परम् ॥ १५ ॥ भद्रबाहुसंहिताके उक्त अध्यायमें यह भद्रबाहु- लुंकामतमभूदेकं लोपकं धर्मकर्मणः । देशेऽत्रगौ रे चरित्रका श्लोक नं० १३ पर दिया है। सिर्फ ख्याते विद्वत्ताजितनि मेरे ॥ १५८ ॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522828
Book TitleJain Hiteshi 1916 Ank 09 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1916
Total Pages102
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size13 MB
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