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________________ aummnIOmmmmmmmmARAILORD ४३० + जैनहितेषी असत्य छिपानेके लिए आगे पीछेके कथनका जन्मनिष्क्रमणस्थानज्ञाननिर्वाणभूमिषु । ठीक सम्बन्ध उपस्थित नहीं रहता-इस बातका अन्येषु पुण्यदेशेषु नदीकूलनगेषु च ॥ ३५-४॥ पूरा खयाल नहीं रहता कि मैंने अभी क्या इनमेंसे पहला श्लोक उक्त प्रतिष्ठापाठके दूसरे कहा था और अब क्या कह रहा हूँ। मेरा यह परिच्छेदमें नं. ५ पर और दूसरा श्लोक तीसरे कथन पहले कथनके अनुकूल है या प्रतिकूल- परिच्छेदमें नं० ३ पर दर्ज है। इससे प्रगट है इस लिए वह पकड़में आ जाता है और उसका कि यह ग्रंथ 'प्रतिष्ठासारसंग्रह' से पीछेका बना सारा झूठ खुल जाता है । ठीक यही हालत हुआ है । इस प्रतिष्ठापाठके कर्ता वसुनन्दिका कूट लेखकों और जाली ग्रंथ बनानेवालोंकी समय विक्रमकी १२ वी १३ वीं शताब्दी पाया होती है । वे भी असत्यवक्ता हैं। उन्हें भी इस जाता है । इसलिए यह ग्रंथ, जिसमें वसुनन्दिके प्रकारकी बातोंका पूरा ध्यान नहीं रहता और वचनोंका उल्लेख है, वसुनन्दिसे पहलेका न होकर इस लिए एक न एक दिन उन्हींकी कृतिसे विक्रमकी१२वीं शताब्दीके बादका बना हुआ है। उनका वह सब कूट और जाल पकड़ा जाता ७ पंडित आशाधर और उनके बनाये है और सर्व साधारण पर खुल जाता है। यही हुए 'सागारधर्मामृत' से पाठक जरूर परिचित सब यहाँ पर भी हुआ है । इसमें पाठकोंको कुछ होंगे। सागारधर्मामृत अपने टाइपका एक अलग आश्चर्य करनेकी जरूरत नहीं है । आश्चर्य ही ग्रंथ है। इस ग्रंथके बहुतसे पद्य संहिताके उन विद्वानोंकी बुद्धि पर होना चाहिए पहले खंडमें पाये जाते हैं, जिनमेंसे दो पद्य जो ऐसे ग्रंथको भी भद्रबाहु श्रुतकेवलीका इस प्रकार हैं:बनाया हुआ मान बैठे हैं । अस्तु । अब इस धर्म यशः शर्म च सेवमानाः लेखमें आगे यह दिखलाया जायगा कि यह केप्येकशः जन्म विदुः कृतार्थम् । ग्रंथ विक्रमकी ११ वीं शताब्दीसे कितने पीछेका अन्ये द्विशो विद्म वयं त्वमोघाबना हुआ है। न्यहानि यान्ति त्रयसेवयैव ॥ ३-३६३॥ ६ वसुनन्दि आचार्यका बनाया हुआ निर्व्याजया मनोवृत्या सानुवृत्या गुरोमनः ॥ ' प्रतिष्ठासारसंग्रह ' नामका एक प्रसिद्ध प्रविश्य राजवच्छश्वद्विनयेनानुरंजयेत् ॥ १०-७२ प्रतिष्ठापाठ है । इस प्रतिष्ठापाठके दूसरे परि इनमेंसे पहला पद्य सागारधर्मामृतके पहले अध्याच्छेदमें ६२ श्लोक हैं, जिनमें 'लग्नशुद्धि ' का यका १४ वाँ और दूसरा पद्य दूसरे अध्यायका वर्णन है और तीसरे परिच्छेदमें ८८ श्लोक ४६ वाँ पद्य है । इससे साफ जाहिर है कि यह हैं, जिनमें 'वास्तुशास्त्र' का निरूपण है । संहिता सागारधर्मामृतके बादकी बनी हुई है। दूसरे परिच्छेदके श्लोकोंमेंसे लगभग ५० श्लोक सागारधर्मामृतको पं० आशाधरजीने टीकासहित और तीसरे परिच्छेदके श्लोकोंमेंसे लगभग ६० बनाकर विक्रमसंवत् १२९६ में समाप्त किया श्लोक इस ग्रंथके दूसरे खंडमें क्रमशः 'मुहूर्त' , है। इसलिए यह संहिता भी उक्तं संवत्के और 'वास्तु ' नामके अध्यायोंमें उठाकर रक्खे बादकी-विक्रमकी १३ वीं शताब्दीसे पीछेकीगये हैं। उनमेंसे दो श्लोक नमनेके तौर पर बनी हुई है। इस प्रकार हैं: ८ इस ग्रंथके तीसरे खंडमें,' 'फल' नामक पुनर्वसूत्तरापुष्पहस्तश्रवणरेवती। नौवें अध्यायका वर्णन करते हुए, सबसे पहले रोहिण्यश्विमृगद्धेषु प्रतिष्ठां कारयेत्सदा ॥२७-११॥ जो श्लोक दिया है वह इस प्रकार है:-- Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522828
Book TitleJain Hiteshi 1916 Ank 09 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1916
Total Pages102
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size13 MB
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