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________________ जनहितैषी विश्वासके वशीभूत होकर अपना प्रेमभाव लाकर रख दिया जाय और कह दिया प्रकट नहीं करता; किन्तु जब उनमें ' यथा- जाय कि यह अमुक पूर्वाचार्यका बनाया वदाप्तत्व । आदि गुणोंकी बुद्धिपूर्वक सम्यक हुआ है, चाहे फिर उसमें कुछ भी तत्त्व न परीक्षा कर लेता है तब कहीं उन्हें मानता- हो-तो हम झट उसका आदरातिथ्य करने पूजता है * । जो व्यक्ति या ग्रंथ सत्यका लग जायेंगे और किसी प्रकार · ननु न च' अनुयायी होकर उसके मार्गपर चलनेका उपदेश किये बिना ही अन्यान्य ग्रन्थोंकी तरह करता है, वह चाहे किसी सम्प्रदाय और उसकी उपादेयता स्वीकार कर लेंगे । इसी किसी स्वरूपमें हो, सत्यग्राहक उसे प्रकार किसी भिन्न सांप्रदायिक विद्वान्का अवश्य अपनायगा । यद्यपि ये उल्लेख प्रस्तुत बनाया हुआ ग्रंथ यदि हमें पसन्द आगया विषयके साथ कोई सीधा संबंध नहीं रखते; तो हम उसमें कुछ थोडासा परिवर्तन परंतु हमारे समाजके वर्तमान धार्मिक-विचा- कर-आदि-अन्तके श्लोकोंमें नामादिका फेर रोंने जो विचित्र वेष पहन लिया है उसे देखकर फार कर उसे अपने संप्रदायमें ले लेंगे। इस विषयमें दो शब्द लिखनेकी इच्छाका संवरण इस प्रकारके ग्रन्थचौर्यमें हमें कोई दूषण हम नहीं कर सके । हमारे समाजमें सांप्र- नहीं लगता-प्रत्युत अपने साहित्यमें इस दायिक मोह-अन्धश्रद्धा का इतना प्राबल्य प्रकार एक ग्रन्थकी वृद्धि हुई देख कर हमें होगया है कि जिससे हम अपने धर्मके आनन्द प्राप्त होता है ! परन्तु यदि उस मूल-स्वरूपको बहुत कुछ भूल गये हैं। ग्रन्थके मूलरूपको विकृत न बनाकर, असली सत्योपदेष्टा श्रीमहावीरके सम्यक् तत्त्वोंपर रूपमें ही उसका वाचन-श्रवण किया जाय, हमने अपनी सङ्कचित विचार-शीलताका तो हमारे सम्यक्त्वमें मालिन्य उत्पन्न हो ऐसा गहरा परदा डाल रक्खा है कि जिससे जाता है ! हमारा नाम मिथ्यात्वके पृष्ठ-पोहम उनके-तत्त्वोंके-सत्यरूपको ठीक ठीक षकोंमें गिना जाता है !! श्वेताम्बर और नहीं देख सकते । हमारी बुद्धिको अयोग्य दिगम्बर-दोनों ही संप्रदायोंमें, इस प्रकारके पक्षपात-धार्मिक कदाग्रह-ने इस तरह दबा ग्रन्थचौर्यके अनेक उदाहरण दृष्टिगोचर हो रक्खा है कि, वह स्वतंत्र विचारपूर्वक अपने रहे हैं। आप सत्यासत्य और हेयोपादेयका सम्यग् । निर्णय किसी प्रकार कर ही नहीं सकती। पाठक, आइए, इस विषयान्तरको यहीं हमारे सामने कोई अज्ञात और कृत्रिम ग्रंथ छोड़ कर, अब हम मूलविषयकी तरफ दृष्टि - डालें और देखें कि सोमप्रभाचार्यको अपने * न श्रद्धयैव त्वयि पक्षपातो न द्वेषमात्रादरुचिः अपने आचार्य बतलानेमें, दोनों संप्रदायोंके परेषु । यथावदाप्तत्वपरीक्षया तु त्वामेव वीर ! प्रभु माश्रिताः स्मः॥ -श्रीहेमचन्द्रसूरिः। पास क्या क्या प्रमाण हैं और वे कैसे हैं ? Jain Education International www.jainelibrary.org For Personal & Private Use Only
SR No.522828
Book TitleJain Hiteshi 1916 Ank 09 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1916
Total Pages102
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size13 MB
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