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________________ सूक्तिमुक्तावली और सोमप्रभाचार्य । [ले०-श्रीयुत मुनि जिनविजयजी।] ___ सोमप्रभ नामक आचार्यका बनाया हुआ अपने अपने मतानुसार सचेलक या अचेसूक्तिमुक्तावली नामका १०० पद्योंका एक लक-सवस्त्र अथवा निर्वस्त्र-कह कर अपनाते छोटासा ग्रंथ जैनसमाजे खूब आदर पा रहा हैं और उनके प्रति बहुमान प्रकट करते हैं, है । इसकी रचना प्रसाद-गुणयुक्त मधुर और उसी प्रकार सोमप्रभाचार्यको भी श्वेताम्बर बोधप्रद है। इसके प्रत्येक पद्यमें नीति, भक्ति अपने आचार्य बतलाते हैं और दिगम्बर और वैराग्य आदि, विविध प्रकारके सन्मार्गमें अपने और उनकी मुक्तावलीको सांप्रदाप्रवृत्त करनेवाले उपदेशोंका उत्तम संग्रह है। यिक विरोध-दर्शक उद्गारोंके अभावके कारण इस पर न जाने कितने विद्वानोंने न जाने निःशङ्क होकर अपने अपने हृदयमें धारण करते कितने टीका-टिप्पण और हिन्दी-गुजराती हैं। पर वास्तवमें सोमप्रभाचार्य कौन थे आदि प्रचलित देशभाषाओंके गद्यपद्यानुवाद दिगम्बर थे या श्वेताम्बर ? लिखे हैं । इस तरह यह आकारमें लघु होने- जो मनुष्य, सांप्रदायिक-मोहके वशीभूत पर भी गौरवमें एक तात्त्विक या महान् ग्रन्थ- होकर ही सोमप्रभाचार्यकी इस कृतिका आदर की बराबरीका मान पा रहा है। इसके करते हैं और केवल धार्मिक पक्षपातके कार• प्रथम पद्यका आदि पद 'सिन्दूरप्रकरः ' ण ही इस ग्रंथ उपयोगिता समझते हैं उन्हें आदि है, इसलिए इसका दूसरा नाम 'सिन्दूर- उक्त प्रश्नका उत्तर अवश्य ही अरुचिकर प्रकर' भी है। ' सोमशतक' के तीसरे नाम- होगा; परंतु जो गुणानुरागी और सत्यके से भी यह प्रचलित है। क्योंकि इसके अनुयायी हैं उनपर इसका कुछ भी प्रभाव कर्ताका नाम सोमप्रभ है। नहीं पड़ सकता । गुणग्राही और तत्त्वान्वेषी ___ जैनसमाजके श्वेताम्बर और दिगम्बर ना- मनष्य किसी व्यक्ति या कृतिका जो आदरमक दोनों ही संप्रदायोंमें इसका आदर सत्कार करते हैं वह पक्षपात या स्वार्थऔर प्रचार है । जिस प्रकार भक्तामर, क- साधनकी दृष्टि से नहीं करते; किन्तु सत्यके ल्याणमन्दिर आदि स्तात्रोंके कर्ताओंको दोनों स्वरूपको सष्ठतया समझनेके लिए उनका संप्रदायवाले अपने अपने संप्रदायके प्रभावक. आतुर हृदय ही उन्हें वैसा करनेके लिए बाध्य पुरुष मानते हैं, और तत्त्वार्थसूत्रके रचयिता करता है । जो सच्चा जैन है वह तो स्वयं महर्षि उमास्वामी- ( या उमास्वाति )-को भगवान् महावीरमें भी केवल श्रद्धा या धार्मिक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522828
Book TitleJain Hiteshi 1916 Ank 09 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1916
Total Pages102
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size13 MB
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