SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 95
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ATMAH A ROLOBALHOMBREATHER तीथोंके झगड़े मिटानेका आन्दोलन खा जायगा; पर बेचारे लालाजीमें इतनी बात. दिगम्बर बनकर जंगलमें जा बैठिए । इससे सोचनेकी बुद्धि कहाँ ? आपको बड़ेसे बड़ा धर्मलाभ होगा जिसे कि तीर्थोके मामले में दिगम्बरसमाजने एक पक्ष आप बिना माँगे ही समाजको देनेके लिए तैयार लिया है और श्वेताम्बरसमाजने दूसरा । दिग- हो गये हैं ! समाजको आपकी सम्मति नहीं म्बर समाजका दावा है कि अमुक तीर्थ हमारा चाहिए। बातमी चाहिए । अपना घर खाली करके आपके समान है और यही उसका 'सत्य' है, इसी प्रकार पराई पूजीसे बहादुर बननेकी उत्कण्ठा रखनेवाश्वेताम्बरसमाज दावा करता है कि अमक तीर्थ लोंके हाथके खिलौने बननेके लिए लोग तैयार हमारा है और यही उसका 'सत्य' है। पाठक नहा। - नहीं हैं। देखेंगे कि यहाँ 'सत्य' का कोई एक खास लालाजी इस प्रकारका डौल बनाते हैं मानों स्वरूप नहीं है । अर्थात् दोनों अपने अपने दावेको आप सत्यकी रक्षा करनेके लिए ही कमर कसके सत्य बतला रहे हैं । ऐसी दशामें इस स्वयं तैयार हुए हैं; परन्तु आपका 'सत्य' स्वयं माने हुए ' सत्यके लिए लड़ना- भोले भक्तोंके आपका ही माना हुआ सत्य है, न कि वास्तरुपयोंको उडाना और वैरविरोधको पष्ट करके विक अथवा सार्वजनिक सत्य; और इस सत्यकी समाजको निचोड डालना, सर्वथा अन्याय है। रक्षाके लिए किये जानेवाले युद्धका स्वरूप भी इसके विरुद्ध क्षमा, नम्रता, भ्रातृत्व, मैत्री आदि आपहीने अपनी ही पद्धतिसे अर्थात् हिंसक सार्वकालिक, सर्वसम्मत और समस्त जीवोंके लिए आशयसे खड़ा किया है । इस तरह लालाजीका एक से उपयोगी 'सत्य' हैं, इसलिए इन की 'लक्ष्य' दूषित है और उक्त 'लक्ष्य'तक पहुँचनेके रक्षाके लिए-अर्थात् ऐक्य, और सुखशान्तिरूप लिए उन्होंने जो ‘मार्ग' ग्रहण किया है वह सिद्धान्तकी रक्षाके लिए युद्ध करना । न्याय , भी दूषित है । जिसकी बुद्धि इतनी भ्रमित हो है; परन्तु यह युद्ध मारपीटसे नहीं किन्त सम- गई हो कि 'लक्ष्य' और 'मार्ग' दोनोंमेंसे झौतेसे, न्यायसे, लोकमत तैयार करनेरूप एक भी बातका वास्तविक निर्णय नहीं कर निर्दोष अस्त्रसे और लोगोंको अपनी निजकी सकती है, ऐसे मनुष्य पर हमें दया करनी बुद्धिसे विचार करनेकी सम्मति देनेरूप निरुपटव चाहिए और ऐसी भावना भानी चाहिए कि शस्त्रसे होग चाहिए । लालाजी ! हमारा यद उसे सुबुद्धिकी प्राप्ति हो। इसी प्रकारका है; लाखों मनुष्योंकी हत्या और अत: अब लालाजीको छोड़कर भगवान् महाकरोड़ों रुपयोंका स्वाहा करनेवाला आपका वीरके पुत्रों और वीतरागताके इच्छुकोंके सम्मख यद्ध आपको ही मबारक हो! आपको मैं नीचे लिखा खुलासा करता हूँ कि जिससे यदि हत्यामें और रुपया बरबाद कर- लालाजीके फैलाये हुए भ्रमजालकी असत्यता नेमें ही धर्मलाभ दिखता हो, तो आप अपना यह आप-ही-आप समझमें आजाय और इस कुपथसे सिद्धान्त अपने ही घरमें चलाइए; इसकी दूसरों बचनेकी बुद्धि प्रत्येक जैनभाईको सूझे । पर आजमायश करनेकी आवश्यकता नहीं है ! १ दिगम्बर या श्वेताम्बर भाइयोंको आप घरद्वारवाले हैं, दूकानदार हैं, खुशीसे अपनी पूजापद्धति नहीं छोड़ना है। अपना घर द्वार बेच डालिए और अपना सारा देशके नेताओंसे 'न्याय' करानेकी जो सम्मति रुपया तीर्थरक्षाके लिए अर्पण कर दीजिए, पश्चात् दी गई है उसमें यह कहीं भी नहीं कहा गया है Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522828
Book TitleJain Hiteshi 1916 Ank 09 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1916
Total Pages102
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy