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________________ ५१४ BLOOmam जैनहितैषी कि दोनों सम्प्रदायोंको एक ही रीतिसे पूजा बनानेके काममें करो । किन कामोंमें खर्च करनेके लिए तैयार होना चाहिए। मेरा कहना तो करना चाहिए और किनमें नहीं, इस बातका यह है कि सब लोग अपनी, अपनी पूजाविधि 'विवेक' करनेके लिए कहना अधर्म कदापि नहीं खुशीसे बनाये रक्खें , श्रद्धापूर्वक बनाये रक्खें हो सकता; किन्तु आँखें बन्द करके समाज और और अपनी अपनी पद्धतिसे पूजा करनेके कार्यमें, देशका बल तोड़नेमें धनकी और सो भी पराये इस समय जो अन्तराय आड़े आते हैं, वे धनकी बरबादी करना अवश्य ही अधर्म है; दूर हो जायँ और निर्विघ्नतापूर्वक अपनी अपनी बल्कि कहना होगा कि इसके समान धर्मद्रोही, रीतिसे पूजा होती रहे, इस प्रकारका मार्ग देश- देशद्रोही और समाजद्रोही कार्य दूसरा नहीं है। भक्त नेताओंके द्वारा ग्रहण करलेना चाहिए। शास्त्रोंके उद्धार और प्रचारका काम; न्यायलब्ध मैं इस बातको मानता हूँ कि यदि दिगम्बर-श्वे- धनसे उदर निर्वाह करना सिखानेवाली विद्याताम्बर अगुए स्वयं ही एकत्र होकर आपसमें ओंके साधन खडे करनेका काम; जबतक समानिबटेरा कर लें और ऐसा प्रयत्न करें जिससे जमेसे निरुद्यमता न निकाल दी जायगी तबतक किसी भी तीर्थ पर अपनी अपनी पद्धतिसे पूजा धर्माचरणोंका होना कठिन है, इसलिए निरुपाठ करनेमें किसी प्रकारका झगड़ा न होने द्योगिता मिटानेवाली संस्थायें खोलनेका काम; पावे, तो यह सबसे अच्छा मार्ग है और इसमें समाजकी कुरीतियाँ मिटाने के आन्दोलनका काम; दोनोंकी ही प्रतिष्ठा है; परन्तु कठिनाई यह है जबतक देश शान्ति, एकता, स्वाधीनता, और कि दोनोंही सम्प्रदायोंमें लालाजी जैसे मताग्रही धनधान्यकी पूर्णता न होगी, तबतक देशके और कलहप्रेमी महात्माओंकी कमी नहीं है। धर्मोकी भी रक्षा होना संभव नहीं है, इसलिए ऐसी दशामें तीसरेको बीचमें डाले बिना सफ- जो देशभक्त नेता देशकी स्थिति सुधारनेके लता नहीं हो सकती और इसी कारण भारतके लिए जी जानसे परिश्रम कर रहे हैं, उनके सबसे अधिक विश्वासपात्र, देशहितैषी और प्रयत्नमें तन-मन-धनसे सहायक बननेका काम; धर्मभावनायुक्त नेताओंको पंच बनाकर उनके इस तरहके न जाने कितने काम करना है। द्वारा फैसला करानेकी सूचना की गई है। इन सभी कामों में धनकी आवश्यकता है और २'लोभ के वश मुकद्दमा मिटानेकी यह सभी जानते हैं-देशी और विदेशी सभी अर्थ सूचना नहीं की गई। शास्त्रज्ञ एक स्वरसे कहते हैं कि भारत जैसा " तुम पैसे बचा रक्खो, लोभी बनो, धर्म निर्धन देश कोई भी नहीं है। अतः ऐसे निर्धरक्षाके लिए धनको क्यों बरबाद करते हो ?" न देशमें यदि किसीके पास थोड़ा बहुत धन इस तरहका इशारा भी हमारे लेखमें नहीं है। हो तो उस धनका केवल वही अकेला मालिक हमारे लिखनेका अभिप्राय तो यह था कि आज नहीं है, किन्तु सारा देश मालिक है, वह तो कल इस देशकी ऐसी दशा है कि “धनका केवल 'ट्रस्टी ' है। उस धनको स्वेच्छाचरिताटोटा है, उदारताकी कमी है " इसलिए जो पूर्वक आपसी युद्धोंके द्वारा देशको और भी अधिक थोडा बहत धन इस देशमें बच रहा है, उसका निर्बल बनानेके काममें उडानेका किसी भी उपयोग आपसी लड़ाई-झगड़ोंमें न करके संसा- भारतवासीको अधिकार नहीं है। मेरा वचन रको धर्ममय पवित्र और उच्चसंस्कारसम्पन्न किसीको सहन हो या न हो, और इसके लिए Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522828
Book TitleJain Hiteshi 1916 Ank 09 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1916
Total Pages102
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size13 MB
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