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जैनहितैषी
प्रकारका भ्रम या सन्देह नहीं रह सकता। है। इसीके प्रभावसे ही हमारे शान्तिप्रचारक उक्त लेखमें यह कहीं भी नहीं लिखा गया है आन्दोलनके सामने लालाजी या उनके लेखक कमर कि अमुक पर्वतराज पर दिगम्बर भाइयोंको कसके खड़े हो गये हैं और करोड़ों पंचेन्द्रिय अपनी पद्धत्यनुसार पूजन करनेका हक नहीं जीवोंकी हिंसा करनेवाले वर्तमान यूरोपीय युद्धकी मिलना चाहिए। ऐसी सलाह भी नहीं दी गई स्पष्ट शब्दोंसे अनुमोदना कर रहे हैं । जब ईसाई है कि उन्हें अपना हक छोड़ देना चाहिए । धर्मके पादरी अपने ईश्वरसे यह प्रार्थना करते सम्मेदशिखरके या अन्य किसी तीर्थके मुकद्दमे- हैं कि "हे ईश्वर ! दोनों पक्षोंको सुमति सूझे और में दिगम्बरयोंका दोष है, इस प्रकारका एक शीघ्र ही इस युद्धिकी शान्ति हो,' तब दिगम्बरशब्द या इशारा भी लेखभरमें नहीं है। जैनधर्मके अनुयायी लालाजी प्रचार करते हैं कि दिगम्बरसम्प्रदायको छोड़ दो, या दिगम्बर “क्या आप कह सकते हैं कि सत्यकी विजपूजाविधिको बदल डालो, इस प्रकारकी यके लिए यह रुपया खर्च करना और मूर्खतापूर्ण सूचना भी मैंने नहीं की है । मनुष्यहानि करना व्यर्थ है या अन्याय है ? कभी इस प्रकारके खयालोंको मैं पसन्द भी नहीं नहीं।" देखा लालाजीका सत्यका शास्त्र ? करता हूँ। तो भी लाला प्रभुदयालजीने या आप रागद्वेषरहित जिनदेवके भक्तोंको और उनके नामसे किसी और 'धर्मात्मा' ने एक सारी दुनियाको यह सिखलाने के लिए तयार पेम्फलेटके द्वारा दिगम्बरी भाइयोंका भड़का- हुए हैं कि लाखों मनुष्योंकी हत्या करनेसे सत्यका नेका प्रयत्न किया है और समग्र दिगम्बर-श्वेता. विजय होता है ! लालाजी यदि यह भी बतला म्बर समाजकी निःस्वार्थ सेवा करनेके लिए देनेकी कृपा करते कि जिस सत्यके लिए आप उद्यत हुए सज्जनोंपर-जिनकी मेरे लेखमें मनुष्योंके संहार करनेका हक माँगते हैं उस सहियाँ हैं-अनेक दोष लगाये हैं। इतना ही सत्यकी व्याख्या और स्वरूप क्या है, तो नहीं, लालाजीने दिगम्बर भाइयोंको यह सिखा- अच्छा होता । क्या जो कुछ आप कहते हैं वही पन भी दिया है कि लड़नेमें ही धर्म है, 'सत्य' है ? प्रत्येक युद्ध में लड़नेवाले दोनों ही अच्छी तरहसे लड़ो, खूब लड़ो, शक्ति भर धन पक्ष अपनी अपनी बातको ‘सत्य' कहते हैं । एकट्ठा करके लड़ो और जो लोग लड़नेके बदले यदि इस तरहके 'सत्य' के लिए अर्थात् — स्वयं शान्तिके साथ न्याय करानेकी सलाह देते हैं माने हुए सत्य ' के लिए ही एक मनुष्यको उनके साथ भी लड़ो! पर मैं इसमें बेचारे दूसरे मनुष्यकी जान लेनेका हक मिल जाय, लालाजीको दोष नहीं दूंगा । इस समय तो फिर समझ लेना चाहिए कि प्रत्येक राज्य, संसारभरमें युद्धकी हवा बह रही है और प्रत्येक समाज, प्रत्येक जाति और प्रत्येक व्यक्तिको जहाँ तहाँ “ लड़ो-मारो-काटो, बदला लो, खून करने और रुपया उड़ानेका हक मिला हुआ मिट्टीमें मिला दो" यही शब्द सुन पड़ते हैं। है; क्योंकि कभी न कभी तो इनका दूसरे राज्य, अतः जान पड़ता है कि इसी प्रबल भावनाका समाज, जाति और व्यक्ति के साथ किसी न किसी प्रभाव जैन जैसी शान्त, रागद्वेषको नष्ट करनेमें विषयमें झगड़ा हो ही जाता है । परन्तु यदि ऐसा ही धर्म माननेवाली और शत्रु पर क्रोध न हक मिल जायगा, तो दुनियामें शायद एक भी करनेकी टेव रखनेवाली कौम पर भी पड़ गया मनुष्य जीता नहीं रह सकेगा-आदमीको आदमी
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