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________________ ४७४ IMULIDARB0m जैनहितैषी जिगाय यो भावरिपूंश्च सोऽयं हैं जो सूक्तिमुक्तावली और गुर्वावली आदिमें __ श्लाघ्यो न केषां मुनिचन्द्रसूरिः ।। मिलते हैं । देखिएतस्याभवन्नजितदेवमुनीन्द्रवादिश्रीदेवसूरिवृषभप्रमुखा विनेयाः । सूर्याचन्द्रमसौ कुतर्कतमसः कर्णावतंसौ क्षितेआद्यादभूद्विजयसिंहगुरुर्गरीयान् धुर्यों धर्मरथस्य सर्वजगतस्तत्त्वावलोके दृशौ । निस्सङ्गतादिकगुणैरनिशं वरीयान् । निर्वाणावसथस्य तोरणमहास्तम्भावभूतामुभाततः शतार्थिकः ख्यातः श्रोसोमप्रभसूरिराट् । वेकः श्रीमुनिचन्द्रमूरिरपरः श्रीमानदेवप्रभुः ॥ सूरिः श्रीमणिरत्नश्च भारत्यास्तनयाविव ॥ तयोर्वभूवाजितदेवमूरिः शिष्यो वृहद् च्छनभःशशाङ्कः । जिनेन्द्रधर्माम्बनिधिःप्रपेदे घनोदकः स्फुर्तिमतीव यस्मात् ये प्रमाण तो उन अन्य ग्रन्थ-कारोंके हैं श्रीदेवमूरिप्रमुखा वभवरन्येऽपि सत्पादपयोजहंसाः । येषामवाधा रचितास्थितीनां नालीकमैत्री मुदमाततान॥ विशारदशिरोमणेरजितदेवसूरेरभूत् । के दिये जाते हैं जो उनके अन्य ग्रन्थों में क्रमाम्बुजमधुव्रतो विजयसिंहमूरिः प्रभुः । मितोपकरणक्रियारुचिरनित्यवासी च यविद्यमान हैं। ऊपर हमने सोमप्रभाचार्यके चिरन्तनमुनिव्रतं व्यघितदुःखमायामपि ॥ तत्पपूर्वाद्रिसहस्ररभिः सोमप्रभाचार्य इति प्रसिद्धः । ' हेम-कुमार-चरित ' का नाम है । यह श्रीहेमसूरेश्च कुमारपालदेवस्य चेदं न्यगदच्चरित्रम् ॥ ग्रन्थ बहुत बड़ा है। कोई ७-८ हजार इन श्लोकों का तात्पर्य पूर्वके श्लोकों के श्लोक प्रमाण है । इसकी रचना कुछ संस्कृत जैसा ही है । ये ही श्लोक, कुछ थोडेसे और कुछ प्राकृतमें हैं । महाराज कुमारपाल शब्दोंके फेर फारके साथ, 'मुमतिनाथ. और आचार्य हेमचन्द्रका इसमें चरित वर्णित चरित' नामक ग्रन्थके अन्तमें भी दिये है । विक्रम सवत् १२४ १ में इसकी समाप्ति हुए हैं जो कुमारपालके राजत्व-कालमें लिखा हुई है । महाराज सिद्धराज जयसिंहके मान- गया था। विजयसिंहसूरिके एक शिष्यपात्र और भ्रातृतुल्य प्रागवाट (पोरवाड़ ) अर्थात् सोमप्रभाचार्यके गुरु-भ्राता-हेमचन्द्र ज्ञातीय कविचक्रवर्ती श्रीश्रीपालके पुत्र सिद्ध- थे। उन्होंने, कोई १२०० श्लोक प्रमाण पाल-जो महाराज कुमारपालके बड़े प्रेमपात्र 'नाभेय-नेमि-द्विसन्धान' नामका गद्यपद्यथे–की ' वसति । में रह कर यह बनाया मय मनोहर काव्य लिखा है जिसका संशोगया था और स्वयं हेमचन्द्रसूरिके, महेन्द्र- धन उक्त कवि-चक्रवर्ती श्रीश्रीपालने किया मुनि, वर्द्धमान मुनि और गुणचन्द्रमुनि नामके है । इसकी प्रशस्तिमें लेखकने जो अपनी विद्वान् शिष्योंने इसका श्रवण किया था। गुरुपरंपरा लिखा है वह भी उपरि लिखित इस महत्त्ववाले ग्रंथमें, अन्तमें सोमप्रभाचार्यने प्रशस्तिके समान ही है। पाठकोंके अवलोजो अपनी गुरुप्रशस्ति दी है उसमें भी वही कनार्थ हम उसे भी यहाँ पर उद्धृत कर गुरुपरंपरा-वे ही तीनों नाम-क्रमसे मिलते देते हैं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522828
Book TitleJain Hiteshi 1916 Ank 09 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1916
Total Pages102
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size13 MB
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