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________________ ४३६ . जैनहितेषी nniniliffiti HOT i इत्येतत्कालचक्रं च केवलं भ्रमणान्वितं । हुई । खोज लगानेसे मालूम हुआ कि भद्रबाहु षड्भेदं संपरिज्ञायशिवं साधयतं नृप ॥ १२४ ॥ श्रुतकेवलीसे पहले इस नामके कोई भी उल्लेख इस श्लोकमें लिखा है कि-हे राजन इस प्रकारसे योग्य आचार्य नहीं हुए । एक एलाचार्य भगकेवल भ्रमणको लिये हुए इस छह भेदोंवाले वत्कुन्दकुन्दाचार्यका दूसरा नाम है । दूसरे कालचक्रको भले प्रकार जानकर तुम अपना एलाचार्य चित्रकूटपुरनिवासी कहे जाते हैं कल्याण साधन करो। यहाँ पर पाठकोंको यह जिनसे वीरसेनाचार्यने सिद्धान्तशास्त्र पढ़ा था बतला देना जरूरी है कि इस ग्रंथमें इससे पहले और जिनका उल्लेख इन्द्रनन्दिने अपने 'श्रुताकिसी राजाका कोई संबंध नहीं है और न किसी वतार' ग्रंथमें किया है। तीसरे एलाचार्य भट्टारक राजाके प्रश्नपर इस ग्रंथकी रचना की गई है, हैं, जिनका नाम 'दि० जैनग्रंथकती और उनके जिसको सम्बोधन करके यहाँपर यह वाक्य कहा ग्रन्थ ' नामकी सूचीमें दर्ज है, और जिनके जाता । इसलिए यह वाक्य यहाँ पर बिलकुल नामके साथ उनके बनाये हुए ग्रंथों में सिर्फ असम्बद्ध है और इस बातको सूचित करता है 'ज्वालामालिनी कल्प' नामके किसी ग्रंथका कि यह प्रकरण किसी ऐसे पुराणादिक ग्रंथसे उल्लेख है। ये तीनों एलाचार्य भद्रबाहु श्रुतकेवलीसे उठाकर रक्खा गया है जो वि० सं० ५३० के उत्तरोत्तर कई कई शताब्दी बाद हुए माने बादका बना हुआ है और जिसमें किसी राजाको जाते हैं । इनमेंसे किसी भी आचार्यका बनाया लक्ष्य करके अथवा उसके प्रश्नपर इस सारे कथ- हुआ रिष्ट-विषयका कोई ग्रंथ उपलब्ध नहीं नकी रचना की गई है और इसलिए यह उस हआ। दुर्ग' नामके आचार्यकी खोज लगाते ग्रंथसे भी बादका बना हुआ है। ___हुए जैनग्रंथावली ' से मालूम हुआ कि 'दुर्ग५ एक स्थानपर, दूसरे खंडमें, निमित्ता- देव ' नामके किसी जैनाचार्यने 'रिष्टसमुच्चय , ध्यायका वर्णन करते हुए, ग्रंथकतोने यह नामका कोई ग्रंथ बनाया है और वह ग्रंथ जैनिप्रतिज्ञा-वाक्य दिया है: योंके किसी भी प्रसिद्ध भंडारमें न होकर 'दक्कन पूर्वाचार्यथा प्रोक्तं दुर्गाद्येलादिभिर्यथा। कालिज पूना' की लायब्रेरीमें मौजूद है । चूंकि गृहीत्वा तदभिप्रायं तथा रिष्टं वदाम्यहम् ॥३०-१०॥ यह ग्रंथ उसी विषयसे सम्बंध रखता था जिसके ' अर्थात्-'दुर्गादि और एलादिक नामके कथनकी प्रतिज्ञाका ऊपर उल्लेख है इस लिए पूर्वाचार्योंने रिष्टसंबंधों जैसा कुछ वर्णन किया इसको मँगानेकी कोशिश की गई। अन्तको, है उसके आभिप्रायको लेकर मैं वैसे ही यह श्रीयुत पं० नाथूरामजी प्रेमीने अपने मित्र रिष्टका कथन करता हूँ' । इस प्रतिज्ञावाक्यसे श्रीयुत मोहनलाल दलीचंदजी देसाई, वकील स्पष्ट है कि ग्रंथकर्ताने दुर्गादिक और एलादिक बम्बई हाईकोर्टकी मार्फत पूनाकी लायब्रेरीसे नामके आचार्योंको ‘पूर्वाचार्य' माना है। उक्त ग्रंथको मँगाकर उसे मेरे पास भेज देनेकी वे ग्रंथकर्तासे पहले होगये हैं और उन्होंने कृपा की । देखनेसे मालूम हुआ कि ग्रंथ प्राकृत रिष्ट या अरिष्टके सम्बंधमें कोई ग्रंथ लिखे हैं भाषामें है, उसमें २६० (२५८+२) गाथायें जिनके आधार ग्रंथकर्ताने यहाँ कथनकी प्रतिज्ञा हैं और उसकी वह प्रति एक पुरानी और जीर्णकी है । ऐसी हालतमें उक्त आचार्यों और शीर्ण है । बड़ी सावधानीसे संहिताके साथ उनके ग्रंथोंकी खोज लगानेकी जरूरत पैदा उसका मिलान किया गया और मिलानसे. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522828
Book TitleJain Hiteshi 1916 Ank 09 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1916
Total Pages102
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size13 MB
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